इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 6 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 6

शहर की शानदार मॉल।
एक से एक चमकती- दमकती दुकानें। गहमा - गहमी से लबरेज़ बाज़ार। युवाओं के खिलते सूर्यमुखी से चेहरे।
करण और आर्यन को यही काम दिया गया था कि वो अड्डे के लड़कों को अपने साथ ले जाकर कुछ कपड़े, जूते और दूसरा ज़रूरी सामान दिलवा लाएं।
लड़के ऐसे नहीं थे जिनकी कोई खास पसंद - नापसंद हो। उन्हें तो ज़िंदगी ने जब - जब जो- जो जैसा- जैसा दिया था, वो उन्होंने खुले दिल से अपनाया था। लेकिन अब यहां कोई विवशता नहीं थी।
अड्डे के स्वामी ने कहा था कि हर एक को एक - एक ड्रेस तो बिल्कुल उसकी पसंद की दिलवानी है, जो भी वो कहे, जिस पर उसकी नज़र टिके। और एक - एक ड्रेस यूनिफॉर्म की तरह सफ़ेद शर्ट और काली पैंट। लेकिन बिल्कुल सही नाप की। बदन पर फिट। फबती हुई।
इसीलिए लड़कों को भी करण और आर्यन के साथ में भेजा गया था ताकि नाप- जोख को लेकर कोई शिकायत न रहे।
करण और आर्यन वैसे कोई बहुत अनुशासित - अनुभवी युवक तो नहीं थे लेकिन चलते- पुर्जे तो थे ही। उनकी ये खासियत- सलाहियत शाहरुख के मार्फ़त अड्डे के स्वामी के पास भी पहुंच चुकी थी। इसीलिए उन्हें ये काम दिया गया था।
वहां के ये सभी दर्जन - भर लड़के क्योंकि युवा होते हुए भी अलग- अलग आयु के थे, अतः उन्हें दो वर्गों में बांट लिया गया था। वैसे भी किशोर और युवा पुरुषों की पसंद - नापसंद या तौर- तरीके में कुछ तो अंतर होता ही था।
पहले दिन छोटे किशोर लड़के चुने गए थे। बीस- इक्कीस साला आर्यन और करण इन्हें साथ में लेकर बाज़ार जाने वाले थे।
स्वामी का मानना था कि सभी युवक करण और आर्यन से अपनी बात ज़्यादा खुल कर उन्हें समझा पाएंगे। मालिक के सामने शायद कुछ लिहाज़ या संकोच में रहेंगे।
वैसे कुदरत ने तो उन्हें गूंगा- बहरा ही बनाया था। पर आंखों और हाव - भाव की भाषा सबके पास थी। अभावों की भाषा में सब पारंगत थे।
बाज़ार में सभी को बहुत मज़ा आया। सभी को शायद इस तरह की शाही मेहमान- नवाजी का मौका पहली बार ही मिला था।
सरकारी छात्रावास में तो सब हर चीज़ न्यूनतम पाने के अभ्यस्त हो चले थे। सरकार से उनके लिए आता था, अच्छी तरह आता था लेकिन उनकी संरक्षा और हिफाज़त के नाम पर लगी इल्लियां, खटमल और जोंक भी तो होते थे। उन्हीं के हिस्से पर पलने वाले।
वहां तो उनकी चड्डियां सिलने तक के लिए जो थान आता था, वहां के कर्मियों की मंशा ये रहती थी कि लड़के नाड़े की जगह सुतली या रस्सी से काम चला लें तो उनके लिए कुछ बच जाए। अपनी ज़िंदगी को दबा- छिपा कर रखने की जिम्मेदारी भी इन दीन - हीन लड़कों की ही थी। आए दिन इनके इजारबंद टूटते थे, गांठों ही गांठों से भरी ज़िंदगी।
लेकिन अब यहां ये आर्यन और करण की सरपरस्ती में बड़े घर के लाडले बच्चों की तरह घूम रहे थे। सुन या बोल न भी सकें पर कृतज्ञता इनके पोर- पोर से झर रही थी।
आर्यन और करण इनसे बातचीत में इशारों की भाषा के इतने अभ्यस्त होते जा रहे थे कि कभी- कभी आपस में भी इशारों में ही बात करने लग जाते।
बाज़ार आते समय तो शाहरुख ने इन्हें अपने किसी जानकार की जीप से छुड़वा दिया था पर अब ये सब सामान से लदे- फ़दे एक भीड़ भरी सड़क के किनारे इंतज़ार में खड़े थे। शायद वही जीप इन्हें लेने के लिए भी आने वाली थी।
करण बार- बार शाहरुख को फ़ोन मिला रहा था। लेकिन बात बन नहीं रही थी।
थोड़ी ही देर में एक बाइक पर सवार शाहरुख वहां आया और बदहवासी में बाइक करण को देते हुए बोला - तू जा, अभी की अभी थाने में जीप की रिपोर्ट लिखवा कर आ।
उसके ऐसा बोलते ही दोनों हक्के- बक्के होकर उसका मुंह ताकते रह गए।
जीप कहां खड़ी थी, उसका ड्राइवर कहां था, कब चोरी हो गई, उसका मालिक कौन था...इन सब सवालों का जवाब भी करण ने उड़ते- उड़ते जाना। उसके जाने के बाद शाहरुख भी तुरंत ही एक टैक्सी रोक कर बिना कुछ बोले निकल गया।
बाद में उन सब लड़कों को लेकर आर्यन अड्डे पर पहुंचा। काफ़ी देर तक वहां किसी सवारी की प्रतीक्षा करने के बाद अंततः एक तांगा उन लोगों को मिला जिसने इतनी सवारियों को बैठाने के लिए पहले तो काफ़ी आनाकानी की लेकिन बाद में बहुत मुश्किल से गांधीजी की विशेष पहल पर मान गया। वही सबको अड्डे पर पहुंचा कर गया।
इस यात्रा का अंत चाहे जैसा भी बदरंग रहा हो लेकिन सब लड़कों को बहुत आनंद आया।
आर्यन की समझ में ये चक्कर बिल्कुल नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है। अभी कुछ दिन पहले खोए ट्रैक्टर के बारे में कोई सुराग मिला नहीं, ऊपर से जीप भी चोरी हो गई।
हो न हो, ये कोई आपसी मुठभेड़ का मामला है और कोई न कोई लेन- देन या किसी और चक्कर में शाहरुख के पीछे पड़ा है। आर्यन का दिमाग़ तो बार- बार इसी निष्कर्ष पर जा रहा था। उसे इस मुद्दे पर शाहरुख की चुप्पी भी खल रही थी।
वह कुछ भी तो बता नहीं रहा था।
अड्डे के स्वामी से मिलने जाते समय आर्यन ये सोच रहा था कि शायद वो इतनी देर लग जाने का कारण ज़रूर पूछेंगे। कोई और लड़का तो उन्हें इस बारे में कुछ बता नहीं पाएगा।
लेकिन आर्यन को हैरानी हुई कि उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। न कुछ पूछा और न ही कोई प्रतिक्रिया ही दी। आर्यन ने कुछ संकोच से उनके सामने पड़ी कुर्सी को नज़दीक खींचा और वह उनके सामने बैठ गया। वो बड़े खुश से थे और आर्यन की ओर देख कर मुस्कुरा रहे थे। आर्यन ने इस मौक़े का लाभ उठाना चाहा। वह तपाक से बोल पड़ा - सर, करण को वहीं से जाना पड़ा था, क्योंकि...
- मुझे मालूम है... मुझे पता चल गया कि शाहरुख ने करण को थाने भेज दिया। मुझे ये भी पता चल गया कि वो जीप चोरी हो गई जिसमें तुम लोग गए थे। ... पर मुझे ये नहीं पता कि उस जीप को कौन चुरा ले गया। ये कह कर वो बहुत ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे।
आर्यन को इस बात से काफ़ी तसल्ली हुई कि शाहरुख ने उन्हें सब कुछ पहले ही बता दिया है।
लेकिन इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद स्वामी के चेहरे पर कोई चिंता या परेशानी की लकीर नहीं थी। आर्यन ने उनसे पूछा - सर, मैं आपका नाम जान सकता हूं?
वो उसी तरह हंसते हुए बोले- क्यों नहीं! ज़रूर। तुम मुझे स्वामी जी कह सकते हो?
आर्यन को घोर आश्चर्य हुआ। क्योंकि वे सभी लोग बिना कुछ जाने उन्हें स्वामी जी ही तो बोल रहे थे।
वे कुछ रुके, फिर मुस्कुराते हुए बोले - आइ एम सामी.. मैं सामी हूं!