रॉबर्ट गिल की पारो - 11 Pramila Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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रॉबर्ट गिल की पारो - 11

भाग 11

वह टैरेन्स के लिखे पत्र में लीसा को तलाशता रहा था। क्या एक शब्द भी टैरेन्स उसके लिए नहीं लिख सकता था? क्या यह टैरेन्स की सोची-समझी साजिश नहीं थी कि वह अपने दोस्त को इस दर्द से बाहर निकालना चाहता था? वह टैरेन्स पर गुस्सा निकाले या कृतज्ञता व्यक्त करे। रॉबर्ट समझ नहीं पा रहा था।

लंदन से भेजे अखबारों के बंडल को रॉबर्ट देखता रहा। शायद कोई नाटक का विज्ञापन या सूचना या समाचार कि उसमें लीसा का चेहरा दिख जाए। हर महीने उसके पास टैरेन्स अखबार भेजना नहीं भूलता था ताकि रॉबर्ट अपने आपको लंदन से जुड़ा महसूस करता रहे। लीसा के साथ बिताए सुखों को वह खोना नहीं चाहता था। लेकिन जो दु:ख लीसा को छोड़ आने से हुआ उससे बचना भी मुश्किल है।

 

लीसा,

मेरे गीतों को गुनगुनाने दो

जिसकी ख्वाहिशों की मुट्ठी में

हसरतों की लपटें हैं

मैं तुम्हारे होठों को अपने गीतों से

तर कर दूंगा

और गुनगुनाऊंगा कोई गीत...

 

वह मुस्कुराने लगा... अरे, फोटोग्राफर, पेन्टर, शिकारी और अब पोएट भी... लीसा ने मुझे पोएट भी बना दिया।

उसने अपने ड्राइंग रूम में दीवार पर लगी पेंटिंग देखी और पास ही तिपाई पर शेर की खाल और भूसा भरा उसका सिर... जिसे जॉय ने बड़े इत्मीनान से उसके कहने पर साफ किया था और बाद में खूब उल्टियां की थीं।

एल्फिन ने शादी भी कर ली थी और बहुत खुश रहता था। महीने में एक-दो बार एल्फिन उसके पास आ जाता था। अक्सर वे लोग शिकार पर जाते थे। तब रॉबर्ट का अपना घोड़ा तेज दौड़ता रहता था। पीछे एल्फिन का घोड़ा... और ढेर सारे साजो-सामान के साथ जयकिशन और दो-तीन कर्मचारी टैन्ट, खाने का सामान आदि लेकर साथ होते। जंगल में पड़ाव पड़ता। टैन्ट में दिनभर रॉबर्ट और एल्फिन रहते। खाना बनता, जिसमें कभी तीतर और कभी कबूतर का माँस होता। छोटी-सी मेज बीच में रख दी जाती, जिसमें टमाटर, ककड़ी, प्याज, मूली आदि कटे हुए होते। शराब पीने के बाद वे दोनों खाना खाते और पहले से बने लकड़ी के मचान पर चढ़ जाते। दूर पेड़ से एक बकरा-बकरी बाँध दिया जाता और उन्हें भूखा रखा जाता ताकि वे चिल्लाए और शेर को पता चले और वह शिकार को आए।

कभी-कभी टैन्ट और मचान में दो-दो दिन बीत जाते लेकिन कोई शेर नहीं आता। कभी-कभी निराश होकर लौटना पड़ता। रॉबर्ट ने इन तीन वर्षों में पांच शेर-चीते का शिकार किया था। वह अपने इन कर्मचारियों और जॉय के साथ दूर तक निकल जाता। कैमरा तो उसके साथ होता ही था। अधिकतर वह प्रकृति के चित्र खींचता और कभी परंपरावादी लोगों के जिनकी अद्भुत पोशाकें और रहन-सहन से वह अचंभित भी रहता था। लेकिन फोटो धुल  कर कभी स्पष्ट नहीं दिखती वह उन्हें अलग कर देता। हमेशा काला  अंधेरा ही रहता।

सारे शेर, चीते, हिरन जहाँ जो मिला उसका शिकार करके वह उन्हें सुरक्षित अपने घर में ही रखता था।

एल्फिन साथ जरूर जाता लेकिन, शिकार रॉबर्ट ही करता था।

रॉबर्ट ने एक बार हँसते हुए एल्फिन को बताया था-‘‘यहाँ चाहे शेर, चीता किसी का भी शिकार करो ये लोग उसे शेर ही कहते हैं।’’

दोनों हँसने लगे थे।

एल्फिन की पत्नी साईसा घरेलू और सीधी लड़की थी। कई बार वह रॉबर्ट के लिए मसाले वाली सब्जी बनाकर भेजती थी। जिसमें पिसी-कुटी दालचीनी का छिड़काव रहता था। रॉबर्ट को दालचीनी बहुत पसंद थी, खासकर उसकी सुगंध। जयकिशन पत्थर के खलबट्टे पर दालचीनी कूटता था और अपने हिसाब से और भी कई मसाले कूट कर रख लेता था। रॉबर्ट को घी पसंद था इसलिए सारा खाना घी में ही बनता था।

रॉबर्ट कहता था-‘‘जॉय! तुम्हारे यहाँ वह काली स्मॉल बॉल (सरसों-राई) का आॅइल (तेल) निकलता है वह दुर्गन्ध देता है, मुझे पसंद नहीं। (और वह तेल भारत में बहुतायत से खाया जाता है) इसीलिए इंडियन्स के बॉडी से दुर्गन्ध आती है।’’

जॉय फीकी हँसी हँस देता था। क्या समझें ये लोग पसीना किसे कहते हैं। रात-दिन के कामों में पसीना बहाना और बदलने को कपड़े भी नहीं। हमारा देश एक गरीब देश है, जॉय सोचता। लेकिन तब भी वह मीट, चिकन, फिश आदि सभी कुछ सरसों के तेल में बनाता था। रॉबर्ट को पता भी नहीं चलता था। यह निरामिश भोजन इसी तेल का पका स्वादिष्ट लगता है।

’’’

‘‘तो तुम लंदन जा रहे हो? मुझे बताया भी नहीं। आज आॅफिस से पता चला कि तुम्हारी लीव सेंक्शन हो गई है।’’ एल्फिन ने वरांडे में प्रवेश करते हुए कहा। जहाँ रॉबर्ट आरामकुर्सी पर किसी सोच में डूबा बैठा था।

‘‘हाँ! टैरेन्स ने सूचना भेजी है। फादर बीमार हैं। चाहते हैं कि उनके सामने मेरी शादी हो जाए। उधर फ्लावरड्यू की मदर भी प्रेशर बना रही हैं कि आखिर शादी कब होगी? ड्यू के दादा-दादी भी ओल्ड एज में हैं और अशक्त महसूस करते हैं।’’

तभी जयकिशन ने टेबिल पर लाकर पानी रखा। दूसरी कुर्सी पर एल्फिन बैठ गया।

‘‘हाँ! तुम्हें जाना चाहिए।’’ एल्फिन ने कहा।

‘‘एल्फिन, इतनी लम्बी जर्नी बहुत ऊबाऊ होती है। यहाँ आते समय तो तुम मिल गए थे। अब? अकेले?’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘तुम अकेले कहाँ हो? तुम अपने आप में एक सम्पूर्ण कहानी हो, काल्पनिक नहीं, यथार्थ कहानी।

रॉबर्ट हँसने लगा।

‘‘नहीं, मैं जोक नहीं मार रहा। तुम अकेले होकर भी अनेक रिश्तों से बंधे हो। तुम उन्हीं में जीते हो... और हम लोग रिश्तों में जीकर भी अकेले हैं।’’

अब दोनों हँसने लगे।

जयकिशन ने लाकर तली मछली, वाइन की बोतल और लंबे दो गिलास लाकर टेबिल पर रख दिए.

रॉबर्ट ने कहा- ‘‘जॉय!  सलाद भी कुछ लाओ।’’

जॉय चला गया। एल्फिन ने गिलास भरा, दोनों ने चियर्स किया और मछली का टुकड़ा मुंह में रखा।

’’’

जहाज में चढ़ने वालों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। आखिर वे लोग अपने देश लौट रहे थे। भले ही कम समय के लिए, लेकिन जा तो रहे थे।

कितनी लंबी यात्रा थी। जहाज ने लंगर डाल दिया था। जहाज से उतरते ही उसने देखा टैरेन्स खड़ा है। वैसा ही जैसा वह छोड़ गया था।

दोनों लिपटे और आँखें आंसुओं से भीग गईं। इतनी संवेदना... फिर भी हम तो क्रूर शासक कहलाते हैं। दोनों फिटन में बैठ गए एक दूसरे का हाथ थामे... हाथों में अपनत्व की गर्माई थी। कहीं कुछ नहीं बदला था... वहीं पेड़, ठंडक और अपने सारे लोग... टैरेन्स चुप था... वह भी चुप था... घोड़े दौड़ रहे थे। रॉबर्ट ने मौन तोड़ा-‘‘फादर कैसे हैं?’’

टैरेन्स ने हाथ छोड़ दिया। ‘‘स्वयं ही चलकर देख लेना।’’

‘‘अर्थात्, ठीक नहीं हैं।’’ रॉबर्ट ने मानो स्वयं से ही सवाल पूछा हो। उसने एक लंबी सांस भरी।

‘‘पहले क्वार्टर में चलते हैं, फिर फादर के पास जाएंगे। तुम फ्रेश हो लेना। यार! दोस्त तुम तो इंडिया जाकर और भी अच्छे हो गए।’’ टैरेन्स ने कहा।

‘‘कैसे?’’

इस पर दोनों हँसने लगे।

’’’

शाम गहरा गई थी। लीसा के लिए पूछने की हिम्मत उसके पास नहीं थी। इंडिया से कितना कुछ खाने के लिए रॉबर्ट लाया था। जो जॉय ने बनाकर दिया था। टैरेन्स को भी इंडियन व्यंजन पसंद आए.

‘‘वहाँ राईस बहुत खाया जाता है टैरेन्स, और राईस को पीसकर उसकी भी अनेक रेसिपी... मैं तो हैरान रह गया टैरेन्स... लेकिन रेड चिली ये लोग बहुत यूज करते हैं।’’ रॉबर्ट ने कहा।

दोनों फादर से मिलने चर्च की ओर बढ़ने लगे। फादर को देखा तो वह रो पड़ा। कितने कमजोर और बीमार हैं फादर। उनके हाथों की उंगलियाँ भी कांप रही थीं जो झुर्रियों से भरी थीं। उनकी एक आँख में आंसू अटका था। जो झिलमिला रहा था। लेकिन रॉबर्ट लगातार रो रहा था।

फादर ने उसे रो लेने दिया। नॉर्मल होने के बाद फ्लावरड्यू के घर की बातें उन लोगों को बताईं। केवल सात दिन बाकी थे और फिर विवाह होना था।

’’’

24 मई, 1841 को रॉबर्ट फादर और टैरेन्स के साथ सेन्ट ल्यूक चेलसिया के लिए रवाना हुआ। यह एक लम्बा सफर था।

दूसरे दिन 25 मई  को  चौबीस वर्षीय फ्रान्सिस फ्लावरड्यू रिकरबाय से शादी होनी थी। तब रॉबर्ट छत्तीस वर्ष का था। टैरेन्स भी इसी उम्र का होगा या उससे एक-दो साल छोटा ही होगा।

रिकरबाय भवन बहुत सुंदर सजाया गया था। चारों तरफ फूलों की बहार थी और गुदगुदी घास जिन पर ब्राउन रंग के गमले रखे थे। बांसों से सुंदर सजावट की गई थी उसी का गेट बनाकर उस पर सुन्दर फूलों की बेलें चढ़ा दी गई थीं। जो अपनी सुगंध बिखेर रही थीं। लाल मोटी बजरी की पगडंडियां बनाई गई थीं। मानो लाल कार्पेट बिछा हो। वैसे ही लाल कपड़ों में उनके नौकर अनुशासन में घूम रहे थे। पूरा माहौल ही एक समृद्ध घराने का था। जहाँ उनकी राजकुमारी (लाड़ली बेटी) का विवाह होने जा रहा था। फादर के आने की खबर एक तेज हवा की तरह हवेली के भीतर पहुंच गई थी। बूढ़े दादा, दादी, फ्लावरड्यू के माता-पिता और दोनों भाई स्वागत के लिए आ चुके थे। पीछे सुनहरे लंबे लिबास में फ्लावरड्यू खड़ी थी। संभवत: उसके लिबास की कशीदाकारी सोने-चांदी के धागों से की गई थी। रॉबर्ट को देखकर वह मुस्कुराई और फिर शमार्ती सी सफेद फूलों की लताओं के पीछे से झाँकने लगी। उसकी माँ ने ही उसका हाथ पकड़कर खींचा। ...‘‘देखो फ्लावर कौन आया है?’’

फ्लावरड्यू ने फादर को अभिवादन किया और टैरेन्स से हाथ मिलाकर रॉबर्ट की ओर बढ़ी।

रॉबर्ट ने उसे खींचकर लिपटा लिया और आँखों में अपार स्नेह भरकर उसे तुरन्त छोड़ भी दिया। फादर हल्के से मुस्कुराए।

विशाल संपत्ति के मालिक फ्लावरड्यू के दादा-दादी सफेद स्वर्ण फूलों से सुसज्जित लिबास में थे। दादी ने अपनी झुर्रियों से भरे गले में कीमती मोती की लंबी माला और सोने का नेकलेस जिनमें विभिन्न कीमती रत्न जड़े थे, पहन रखी थी। कान के छेद जिनका माँस लंबा लटक गया था। उनमें कीमती कर्णफूल झूल रहे थे। पतले सफेद झुर्रियों से भरे हाथों में जड़ाऊ सोने के कंगन थे... वह पहनी हुई थीं।

दादाजी सोने के बड़े बटन लगे लंबे सफेद ओवर कोट में थे और पॉकिट में सोने की चेन में घड़ी लटकी थी। दादाजी जैसा लिबास उसने इंडिया में भी देखा था। जहाँ के महाराजा और उनके गांवों के जमींदार भी ऐसा ही पहनते थे। वहाँ भी मलमल के वस्त्रों का चलन था।

दादा-दादी ने उन लोगों को बैठने का इशारा किया।

बैठक और भी आलीशान ढंग से सजी थी। पहले भी वह यहाँ आ चुका था। लेकिन आज की रौनक और ही थी। शाम को रिकरबाय हवेली जगमग करेगी, उसने सोचा। टैरेन्स इतनी सम्पन्नता देखकर अचंभित हो उठा।

दोनों मित्रों ने एक दूसरे को देखा और आँखों में ही बातचीत हो गई।

टैरेन्स ने वह पूरी हवेली देखनी चाही। फ्लावरड्यू और रॉबर्ट उसे लेकर घूमने लगे। तब तक दादा-दादी ने फादर से बात की होगी। क्योंकि उसके पहुंचते ही दादाजी ने कहा-‘‘मि. रॉबर्ट, तो तुम इंडिया वापिस चले जाओगे। कितने दिनों की छुट्टियाँ मिली हैं?’’

‘‘तीन महीने वह यहाँ रहेगा फिर फ्लावरड्यू को लेकर इंडिया लौटेगा।’’ उसने बताया।

उन्होंने इच्छा जताई कि ‘‘वह तीन महीने इसी हवेली में रहे और अगर इंडिया में रहने के लिए अधिक धन चाहिए तो मुझसे ले लो।’’

‘‘मैं सुखी हूँ ग्रैंड डैड।’’ उसने कहा।

वे बुदबुदाए-‘‘एक सैनिक क्या जाने किसे सुख कहते हैं। फ्लावरड्यू सुखी रहे यही हम लोग चाहते हैं।’’

रॉबर्ट ने उनकी फुसफुसाहट सुन ली। कहा-‘‘अपने-अपने सुख खोजने पड़ते हैं ग्रैंड डैड। इन भौतिक वस्तुओं का मुझे मोह नहीं...।’’

‘‘लेकिन हमारी बेटी नाजुक है। किसी राजकुमारी की तरह पली-बढ़ी है।’’ उन्होंने कहा।

‘‘मैं सुखी रखूंगा।’’ कहते हुए वह उठ गया।

साथ में टैरेन्स भी उठ गया। फादर समझ गए कि रॉबर्ट को बुरा लगा है। उन्होंने महसूस किया कि ये शादी कहीं रॉबर्ट पर थोपी हुई शादी तो नहीं है।

‘लेकिन मैंने जो रॉबर्ट के लिए किया वह गलत नहीं हो सकता।’ वे मन ही मन आश्वस्त हो गए।

’’’

चर्च में विवाह का माहौल था। अगर टैरेन्स गलत नहीं हैं तो उसके अनुमान के अनुसार पांच सौ गैस्ट आए हैं, जिनमें नौकर और अन्य कामों को करने वाले उस गिनती में शामिल नहीं हैं।

टैरेन्स नया सूट पहने था। सफेद कमीज की बांहों में झालर लगी थी, जो बाहर झाँक रही थी। करीब-करीब वैसा ही सूट रॉबर्ट का था। सुंदर सुनहरी चमक से भरे जूते। पॉकिट से बाहर झाँकता दूधिया सफेद रूमाल और वहीं पर लटकी थी सोने की चेन में सोने की ही बनी घड़ी जो दादाजी ने उसे अभी-अभी दी थी।

वैसी ही सफेद वेशभूषा में फ्लावरड्यू परिलोक से उतरी एक परी ही लग रही थी। उसका विशेष श्रृंगार किया गया था। हाथों में विभिन्न कीमती पत्थरों से जड़े कंगन थे। गले में कान में वैसी ही बारीक बनावट से बनाए गए आभूषण और बालों में क्लिप की जगह एक सुनहरी सोने की तितली बैठी थी। जिसके पंखों में रंग-बिरंगे बेशकीमती पत्थर जड़े थे। वह अपने सोने के तारों से काढ़ा गया गाऊन दोनों हाथों से उठाए चर्च की सीढ़ियां चढ़ रही थी। दोनों तरफ उसकी ही परिचारिकाएं थीं, जो उसे पंखा झल रही थीं। सुंदर दुधिया गोरे चेहरे पर पसीने की दो चार बूंदें झिलमिलाने लगी थीं। शायद फ्लावरड्यू घबराई हुई थी।

रॉबर्ट ने देखा... खट् ... खट् ... चेहरे पर रंग-बिरंगी रोशनी घूम रही है... मैं मरना नहीं चाहता... मुझे बचा लो। जंजीरों में जकड़ा उसका प्रेमी और उसकी ओर बढ़ती लीसा... वह चौंक पड़ा... क्या लीसा तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगी? रॉबर्ट के साथ टैरेन्स था... बस एकमात्र वही उसकी ओर से... अब ड्यू बोल रही थी फादर के समक्ष... फिर रॉबर्ट ने बोला। दोनों फादर के कहे अनुसार दोहराते गए शब्दों को ... कान जैसे सुन्न हो गए रॉबर्ट के...। बधाईयों का तांता लगा था। ड्यू सभी के दिए तोहफे स्वीकार करते हुए पीछे खड़ी अपनी परिचारिका सायसा को देती जा रही थी। सायसा पीछे टेबिल पर रखती जा रही थी, जो भर चुका था। धीमे-धीमे दिन खिसक गया था। रात्रि भोज की तैयारी थी। रॉबर्ट, टैरेन्स दोनों ने ऐसा रात्रि भोज नहीं देखा था। एक बड़े-से हॉल में इसकी व्यवस्था थी। जहाँ शराब की बोतलें खुल रही थीं। सूखे तले मसाले वाले मेवे, तली मसालेदार मछलियां और भी इतनी अन्य सामग्री शराब के साथ परोसी जा रही थी। मेहमान हॉल में अपने हाथों में गिलास लिए हँसी, ठहाके और बातचीत में व्यस्त थे। हॉल में कार्यरत नौकर खाने की प्लेट उनके सामने ले जाते वे कोई टुकड़ा उठाते और शराब का एक घूंट पी लेते।

रॉबर्ट और फ्लावरड्यू के लिए सिंहासन जैसी नक्काशीदार बड़ी-बड़ी कुर्सियां रखी गई थीं। जिन पर गुदगुदा शनील गद्दियों और कुशन के साथ लगाया गया था। वैसी ही कुर्सियां हॉल के एक कोने में दादा-दादी के लिए रखी थीं। बाकी मेहमान खड़े ही थे और घूम-घूम कर पी खा रहे थे। रॉबर्ट थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर खड़े-खड़े ही लगातार शराब के गिलास खाली करता रहा। फ्लावरड्यू भी थोड़ा-थोड़ा-सा घूंट भरती रही। शायद उसकी आदत नहीं थी तो वह नहीं पी रही थी।

आज रात कैसी होगी सोचकर फ्लावरड्यू ने आँखें बंद कर लीं। उसकी बंद आँखों पर रॉबर्ट ने अपने जलते हुए गरम होंठ रख दिए।

’’’

रॉबर्ट के आग्रह पर टैरेन्स और दो दिन रुका और फिर चला गया। फादर रॉडरिक दूसरे ही दिन लौट गए थे।

रॉबर्ट नहीं पूछ पाया कि लीसा कैसी है? कहाँ है?

’’’

इन तीन महीनों में रॉबर्ट कई बार टैरेन्स से मिला। वह फ्लावरड्यू को कहीं न कहीं घुमाने ले जाता और कोई न कोई वस्तु उसके लिए खरीदता। फिर भी फ्लावरड्यू खुश थी। उसके चेहरे पर सब कुछ पा लेने की अनोखी चमक थी। उसके पास इतनी ड्रेसेस थीं कि यदि वह साल भर उन ड्रेसेस को  दुबारा न पहने तो भी कम नहीं पड़ेगी। हर तरह की उसके पास ज्वेलरी (जेवर) थे। रिकरबाय खानदान की वह इकलौती लड़की थी। सुख उसके कदमों में लोट रहा था। फादर रॉडरिक कहते थे-‘‘जाने दो फ्लावरड्यू को इंडिया... मुझे विश्वास है रॉबर्ट उसे अच्छे से रखेगा। वह भावुक और प्यार से भरा लड़का है।’’

फादर लंदन लौट गए थे। और उनसे  मिलने रॉबर्ट अब तक चार-पांच बार जा चुका था।

लीसा उसके दिलो दिमाग पर छाई रहती। लेकिन फ्लावरड्यू उसका ‘कर्तव्य’ है। उसके वैवाहिक जीवन का यह आरंभ था और वैवाहिक जीवन की यह प्रथम दस्तक...  जो फ्लावरड्यू ने उसे दी थी। भले ही यह सब एक तरफा था ‘लेकिन’ का उत्तर वह कैसे दे पाएगा। वह स्वयं नहीं जानता।  क्या वह कभी फ्लावर को बता पाएगा कि लीसा के साथ प्रेम और शारीरिक संबंध थे उसके।

शायद फ्लावरड्यू सब कुछ समझ जाएगी क्योंकि यह संबंध शादी के पहले के थे। लेकिन सगाई तो हो चुकी थी। उसे फ्लावर के प्रति ईमानदार रहना है। उसने अपने आप से कहा।

पिछले तीन दिन से वह टैरेन्स के साथ है। वे लोग बहुत बातें करते हैं। इंडिया के किस्से... काले इंडियन्स का थोड़ी-थोड़ी देर में लुंगी खोलना और फिर पुन: लपेटना।

‘‘क्या सभी काले हैं?’’ टैरेन्स ने पूछा।

‘‘नहीं। कलकत्ता में लड़कियां सुंदर हैं। बालों में ढेर तेल लगाती हैं। खुले बाल या कसकर की गई चोटी। लेकिन बाल खूब लंबे और काले होते हैं। हर शादीशुदा लड़की माथे पर बड़ा सा गोल जिसे वह ‘टीका’ कहती हैं, लगाती हैं। बीच की माँग में वही लाल... हाँ... यह सब सिंदूर से होता है... रेड पाउडर... रॉबर्ट बता रहा था और टैरेन्स हँसता जा रहा था... टीका, सिंदूर, लुंगी... कैसे -कैसे शब्द।

‘‘और यार, उसने इशारे से बताया ये स्तन हैं न बंगाली लड़कियों के एकदम सख्त...।’’

‘‘अच्छा तुम्हें कैसे मालूम रॉबर्ट?’’ टैरेन्स ने पूछा।

‘‘दिखता है न मैं तो वहाँ की पूरी संस्कृति को समझना चाहता हूँ। कलकत्ता से और भी आगे पहाड़ी जगहों को मैंने देखा। ब्रह्मपुत्र के पानी में शाम को अंधेरा होने के बाद भी तैरता रहता। मैंने वहाँ की कितनी पेन्टिंग्ज बनाईं। कलकत्ता छोड़ने का मुझे अफसोस है।’’ रॉबर्ट ने कहा।

कितनी-कितनी बातें... दोनों आपस में करते रहते। घंटों बीत जाते।

‘‘डोरा की शादी हो गई टैरेन्स?’’ रॉबर्ट ने पूछा।

‘‘मालूम नहीं। फिर उस तरफ गया ही नहीं। हो ही गई होगी। ...तभी तो डोरा न कभी मिली न किसी के हाथ कोई मैसेज भेजा। इधर दादी जिद कर रही है शादी के लिए। करूंगा... लेकिन थोड़े समय बाद।’’ टैरेन्स ने कहा।

हँसी-मजाक करते दोनों ही कहीं खो गए थे। सुबह टैरेन्स सोया पड़ा था। रॉबर्ट उठकर फादर से मिलने चला गया। वहाँ से उसे फ्लावरड्यू के पास तुरन्त ही जाना था। जिस हृदय के रोम-रोम में लीसा बसी रहती है। उसी के बारे में वह टैरेन्स से पूछ नहीं पाता। यह भी नहीं पता कि मि. ब्रोनी कहाँ हैं। क्या वे टैरेन्स के बंगले पर फिर कभी लीसा के साथ रिहर्सल के लिए आते हैं।

उसे नहीं पता कि लीसा के लिए रॉबर्ट क्या है। एक दु:स्वप्न या यादों के साथ जीने का सहारा।

’’’

फ्लावरड्यू के पास जाने के लिए जब वह फिटन में बैठा तो कई बार सोचा, लीसा के पास चला जाए... लेकिन कहाँ? उसे तो यह भी नहीं मालूम कि लीसा इस समय कहाँ होगी।

फिटन जब रिकरबाय भवन के सामने पहुंची तो उसने देखा कि उसके स्वागत को परिवार के सभी लोग बाहर निकल आए हैं। बजरी के काले-लाल पत्थरों की पगडंडी पर फ्लावरड्यू भी तेज-तेज कदमों से आती दिखी।

सभी से मिलकर जब वह अपने कमरे में पहुँचा तो उसने फ्लावरड्यू को प्रगाढ़ आलिंगन में कस लिया। फिर दोनों मोम की तरह पिघलने लगे।

’’’

लंदन की यादों का कितना लंबा सिलसिला था। मि. ब्रोनी की अगाथा को लेकर कही गई दास्तान अधूरी थी या पूरी हो गई थी। कितना कुछ बाकी था सुनने, समझने को कि... मि. ब्रोनी, लीसा छिटककर दूर चले गए।

बस उसे याद था तो वही ग्रीन रूम की खिड़की से झाँकती गहरी ब्राऊन आँखें... जिनमें आँसू भरे थे।

यह आँखें उसे ज़िंदगी भर हर्ट करेंगी, वह जानता है।

साढ़े तीन वर्ष तो निकल गए इस घटना को। वह स्वयं तीन वर्ष बाद लौटा है इंग्लैण्ड... बस वह खामोश ही रहा कि अप्रत्याशित तौर पर कोई आकर उसे बताएगा कि लीसा यहाँ है... ऐसी है... यह करती है। उसने तो कभी कोशिश ही नहीं की कि पता लगाए लीसा कहां है।

फ्लावरड्यू के लिए यह समय पंखों पर सवार था, जो निकल रहा था... जबकि रॉबर्ट के लिए यह एक लंबा समय साबित हो रहा था... वह लौट जाना चाहता था।

फ्लावरड्यू ने शायद भय मिश्रित स्वर से पूछा था- ‘‘रॉबर्ट! मैं भी चल रही हूँ न तुम्हारे साथ?’’ मानो वह स्पष्ट जान लेना चाहती थी कि रॉबर्ट के मन में क्या चल रहा है।

जबकि माँ ने उसे बताया था वह रॉबर्ट के साथ जा रही है।

बड़ी-बड़ी संदूकों में फ्लावरड्यू का सामान भरा जा रहा था।

‘‘हां! आॅफ कोर्स फ्लावर...’’ कहकर रॉबर्ट ने उसे लिपटा लिया था।

हफ्ते भर के बाद का जहाज जो उसे इंडिया ले जाने वाला था में कूपे की बुकिंग हो चुकी थी।

रॉबर्ट ने टैरेन्स को कहकर अपना प्यानो उसके डैड के बंगले पर भिजवा दिया था। जहाँ नाटक की रिहर्सल होती थी।

रॉबर्ट जानता था टैरेन्स की कहीं और पोस्टिंग हुई तो वह प्यानो यहीं सैनिक क्वार्टर में छोड़ देगा।

उन दोनों को सीधे मद्रास जाना था। वह इंग्लैण्ड छोड़ने से 2 दिन पहले ही लंदन आ गए थे। फादर से मिलना था और टैरेन्स के साथ दो दिन बिताने थे। बड़े-बड़े संदूक और ढेर सारे बैग्ज में भरा सामान लेकर वे सैन्य छावनी आ गए, जहाँ पहले रॉबर्ट और टैरेन्स रहा करते थे। अब उसमें टैरेन्स अकेला रह रहा था।

फादर रॉडरिक के झुर्रियों भरे हाथों ने फ्लावरड्यू और रॉबर्ट को विदाई दी।

‘‘अब जहाज तक तुम्हें सीआॅफ करने नहीं आ पाऊंगा रॉबर्ट। मुझे माफ करना। मैंने अपना वचन निभाया, जो तुम्हारे पिता को दिया था। तुम पढ़ोगे... अच्छी नौकरी करोगे और एक खूबसूरत शिक्षित नेक लड़की से विवाह करोगे।’’ कहकर उन्होंने फ्लावरड्यू की ओर देखा और मुस्कुरा दिए। ‘‘अब शरीर में इतनी ताकत नहीं रही माय सन।’’ दोनों की आँखें झिलमिलाने लगीं। रॉबर्ट पलटा और फ्लावरड्यू का हाथ पकड़ा और चलने लगा।

फिटन पर बैठकर उसने पीछे देखा फादर का सफेद कमज़ोर हाथ अभी भी हिल रहा था। उसे महसूस हुआ यह अंतिम विदाई है। लगता है वह ज़ोर से रो पड़ेगा, तभी फ्लावरड्यू ने अपना कोमल हाथ उसके हाथों पर रख दिया। रॉबर्ट दूसरी ओर देखने लगा।

टैरेन्स और रॉबर्ट सामने के कमरे में बैठे शराब पी रहे थे। फ्लावरड्यू थकान महसूस कर रही थी। वह थोड़ा-सा खाना खाकर सोने चली गई। यह रॉबर्ट का वही कमरा था, जहाँ वह इंडिया जाने से पहले सोता था। रॉबर्ट की आँखों में झाँकते सैकड़ों प्रश्नों को टैरेन्स ने पढ़ लिया था। लेकिन वह बचना चाहता था उन सवालों से... वह काफी कुछ जानता था लीसा के बारे में... क्योंकि मि. ब्रोनी और किम अंकल आपस में बहुत मिलते थे। मि. ब्रोनी ने उन्हें संजीदा होकर काफी कुछ बताया था।

अविवाहित, उभरे पेट की लड़की... बिनब्याही माँ बनने जा रही है, कितना तो अपमानित होना पड़ता था उसकी माँ को।

लेकिन नहीं देगा वह रॉबर्ट की आँखों में झाँकते प्रश्नों का उत्तर।

कल उसे वापिस इंडिया के लिए यात्रा शुरू करनी है और उसके साथ है उसकी नवविवाहिता पत्नी।

बीते दिनों को दोनों ने एकसाथ बहुत याद किया। लेकिन डोरा स्मिथ की न ही लीसा की कोई चर्चा की।

बात आकर ठहरती थी कि अभी जिक्र होगा ऐसा कुछ लेकिन फिर बातें कहीं और मुड़ जाती थीं या मोड़ दी जाती थीं।

रॉबर्ट जब सोने गया अपने पलंग पर तो वह पास सो रही फ्लावरड्यू का स्पर्श भी नहीं कर सका। क्योंकि इसी बेड पर वह लीसा के साथ था और उसकी खामोश रुलाई अब भी उसका पीछा कर रही थी। वह भी लीसा की ओर करवट लेकर उस पर एक हाथ रखे रो रहा था। किसी ने किसी का हाथ नहीं हटाया था और खिड़की पर से चाँद झाँकता हुआ पीला पड़ चुका था।

आज भी चाँद खिड़की पर से भीतर झाँक रहा था। फुलमून की चाँदनी उसके बिस्तर पर पसरी पड़ी थी। उसने आँखें बंद कर लीं। और दृश्य देखने और सहन करने की उसमें शक्ति नहीं बची थी।

उन दोनों का यह निर्दोष प्रेम था। जिसमें अपेक्षाओं से ज्Þयादा प्रेम ही था... अपार प्रेम... तभी तो खामोशी से लीसा वहाँ से चली गई थी।

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लंदन पोर्ट पर जहाज खड़ा धुआं उगल रहा था। फ्लावरड्यू के दोनों भाई उसके परिचारिका और माँ उसे सी-आॅफ करने आए थे। जहाज में सामान चढ़ा दिया गया था। टैरेन्स को एक दिन पहले ही सेना के विशेष काम से लंदन से बाहर जाना पड़ा था। रॉबर्ट फ्लावरड्यू और उसके परिवार के साथ खड़ा था। माँ ने रोती हुई फ्लावरड्यू को वायदा किया था वह अवश्य इंडिया आएंगी। दोनों छोटे भाई भी उछल रहे थे उन्हें भी जहाज पर बैठना है। इंडिया जाना है।

फ्लावरड्यू इतना रो रही थी मानो इंग्लैण्ड छूटा तो सब कुछ छूट गया। जहाज पर चढ़कर वह लगातार हाथ हिला रही थी। दोनों भाईयों ने अपने पॉकिट से सफेद रूमाल निकालकर हिलाना शुरू किया। जब तक जहाज एक काला धब्बा नहीं बन गया। सूरज की सुनहरी रोशनी लहरों पर मचक रही थी। सुनहली चमकीली रोशनी से दोनों भाईयों ने आँखें बंद कर लीं। अब वे समझ चुके थे कि वे अपनी बहन से कितनी दूर हो चुके थे। एक साम्राज्य की इच्छा, सत्ता लोलुपता के आगे कितना कुछ छिन्न-भिन्न हो जाता है। मिसिज रिकरबाय ने सोचा।

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पहला दिन यूं ही बीता। फ्लावरड्यू जहाज के छत पर चक्कर लगा आती। डेक पर खड़ी मचलती लहरों को देखा करती और डेक पर व्यस्त होने के लिए कोई न कोई गीत गुनगुनाती रहती। उसने साथ में रंगबिरंगे ढेर सारे रेशम के धागे भी रखे थे और शटल, जिससे वह डेक पर कुर्सी डाले लेस बनाती रहती।

कभी रॉबर्ट पास आकर बैठ जाता तो वे लोग इधर-उधर की बातें करते। रॉबर्ट माऊथ आॅर्गन पर कई सारी धुनें बजा लेता था। जब वह माऊथ आॅर्गन बजाता तो फ्लावरड्यू उसका साथ मेज बजा कर देती। जहाज के और भी यात्री उनके इर्द-गिर्द आ जाते और माहौल खुश्नुमा हो उठता। कभी-कभी किसी गीत की स्वर-लहरियाँ आसपास खड़े यात्रियों को लुभातीं और उन्हें भी गुनगुनाने पर मजबूर कर देतीं। फिर स्वर हवा में विलीन हो जाते। इस बार फ्लावरड्यू के रहते उसने जहाज़ में किसी को मित्र नहीं बनाया।

रॉबर्ट ने अपनी पहली यात्रा का वर्णन एल्फिन के साथ बिताए समय को टुकड़ों में प्रति दिन फ्लावर को सुनाया। यह एक लंबी यात्रा थी... महीनों की... सब कुछ समुद्र के मिजाज पर निर्भर।

फ्लावरड्यू के पिता ने उनके केबिन में सुख-सुविधा का इंतजाम करवाया था। आखिर उनकी लाड़ली बिटिया यात्रा पर जा रही थी। ईस्ट इंडिया कंपनी अपने प्रत्येक जहाज पर कई सारे चिकित्सक और दवाईयाँ रखवाती थी। ताकि कोई बीमार पड़े तो तुरन्त चिकित्सा उपलब्ध कराई जा सकें। जहाज अपना सफर तय कर रहा था। समुद्र पर और भी जहाज कभी-कभी दिख जाते थे।

मंज़िल निकट आती जा रही थी। फ्लावरड्यू कभी-कभी चंचल हो उठती थी। वह जल परी बन जाना चाहती थी। अगर संभव होता तो वह समुद्र में कूद जाती और जहाज के साथ-साथ तैरती रहती। उसने रॉबर्ट को कहा तो वह हँस दिया। जब 15-15 फुट ऊंची लहरें आकर डेक पर बौछारें करतीं तो फ्लावर स्वयं डर जाती। अब वह इंडिया के बारे में सोचने लगी थी। उसे रॉबर्ट का संग-साथ मिल गया है। धीरे-धीरे वह वर्तमान में जीने लगी है। दादा-दादी, भाई, माँ, डैड सभी पीछे छूट चुके हैं। वह हजारो मील दूर है उनसे। अब रॉबर्ट की परछाई में वह मिल चुकी है। उसके ही अस्तित्व में समा चुकी है। रॉबर्ट का आलिंगन और एक चुंबन ही उसे समूचा पिघला देता है।

उसने दूसरे रंग का रेशम का धागा निकाल लिया था और शटल पर लेस बुनने लगी थी। मालूम नहीं इंडिया में उसका मनपसंद लिबास सिल भी पाएगा या नहीं। वहाँ क्या मिलता होगा? इसलिए माँ ने अनेक पोशाक उसके संदूक में रख दी है। क्या पता वहाँ के लोग जूट पहनते हैं या पत्ते के बनाए कपड़े। उसने तो कई तस्वीरों में काले आदिवासियों को पत्ते ही पहने देखा है। लेकिन, टैरेन्स ने बताया था ये मानव समाज से दूर अंडमान के आदिवासी हैं। सभी इंडियन्स ऐसे नहीं होते।

रॉबर्ट हंसने लगा था। इंडिया में सिल्क बनारस का और मद्रास का प्रसिद्ध है। बंगाल का मलमल बहुत ठंडक देता है। वहाँ की अमीर स्त्रियां सुंदर सिल्क की साड़ी पहनती हैं। लेकिन फ्लावरड्यू जब तक स्वयं नहीं देख लेगी उसकी भ्रान्ति नहीं टूटेगी। क्योंकि माँ के द्वारा दी गई पार्टी में आने वाली महिलाएं ऐसा ही बताती थीं कि इंडिया नंगा देश है। और वे सब हंस पड़ती थीं।

7059 समुद्री मील से थोड़ी अधिक यात्रा हो चुकी थी। यह भारतीय समुद्र तट का मद्रास पोर्ट है। जहाज काला धुआं छोड़ते हुए लंगर से बांधा जा चुका है। फ्लावर ने देखा जहाज के रुकते ही मैले कपड़े पहने काले मजदूर वहाँ सुबह की उजली धूप में खड़े थे। पहले अंग्रेज सरकार के आदमी उतरेंगे, फिर, मजदूर अंदर भेजे जाएंगे, जो सामान उतारेंगे।

रॉबर्ट के दो घोड़ों वाली फिटन लिए जयशंकर मेहमूद और फिटन चलाने वाला चालक वहाँ खड़े थे। फ्लावरड्यू रॉबर्ट का हाथ पकड़े अपने रेशम के पीले घेरदार गाउन को सम्हालती जहाज से उतरकर इस अजनबी बंदरगाह पर आहिस्ते-आहिस्ते कदम बढ़ाती चल रही थी। तीनों फ्लावरड्यू और रॉबर्ट का आधा झुक-झुककर अभिवादन कर रहे थे।

रॉबर्ट साफ शुद्ध हिन्दी बोल रहा था। फिटन में ड्राईवर के साथ आगे जयशंकर बैठ गया था। पीछे की दो सीटें जो आमने-सामने थीं, उन पर रॉबर्ट ने पहले फ्लावरड्यू को चढ़ाया, फिर स्वयं बैठ गया। यह मद्रास है। लेकिन सुबह समुद्री हवाओं की ठंडक सड़क पर थी। रास्ते भर रॉबर्ट फ्लावरड्यू को मद्रास के बारे में बताता रहा।

मेहमूद को कार्गो से सामान ले आने की हिदायत दी गई थी। उसके हाथ में सामान की लिस्ट थमा दी, जिसमें अनेक कार्टन और संदूक थे। हाथ गाड़ी पर सामान आएगा। सामान उतरते बाहर लाते घंटों लग सकते हैं। कुछ ज़रूरी सामान और कपड़े रॉबर्ट ने हाथ के बैग में रख लिए थे।

एक बड़े बंगलो के सामने आकर फिटन रुकी। रॉबर्ट ने हाथ पकड़कर फ्लावरड्यू को उतारा। लाल बजरी की पगडंडी पर दोनों ओर क्रोटन लगे थे। बंगले के चारों ओर लोहे के बार्डवायर और उसके नज़दीक लगे झाड़ियों में चार-पाँच फीट के पेड़। इसे मेहंदी कहते हैं। रॉबर्ट ने बताया। इस देश की स्त्रियां इन पत्तियों को पीसकर हथेलियों में और पैरों में लगाती हैं। कुछ ही घंटों में मेहंदी से लाल रंग निकलता है और हथेलियां, पैर रंगे जाते हैं। यह रंग कई दिनों तक नहीं छूटता है। फ्लावर को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ।

बंगलो के वरांडे में दो आरामदायक कुर्सियां और लकड़ी का नक्काशीदार टेबिल रखा था। उस पर कांसे धातु का बना बड़ा लोटा जिस पर कलात्मक चित्रकारी की गई थी। और उसी धातु के चमकते गिलास रखे थे। जॉय ने दोनों को पानी पिलाया, जो ठंडा और मीठा था। थोड़ी देर बैठकर रॉबर्ट फ्लावरड्यू को भीतर ले गया और अपना कमरा देखकर अचंभित रह गया। कमरा बहुत सुंदर सजाया गया था। पलंग पर रस्सियों के सहारे मिट्ठू, चिड़िया और कपड़े के अन्य पक्षी लटकाए गए थे। लंबे गिलासों में रंग बिरंगे फूलों के गुलदस्ते लगाए गए थे। लालटेन चमक रही थीं उनमें रंगबिरंगे पतले मोती की झालर लटकाई गई थी। पूरा कमरा बहुत सुंदर फ्लावरड्यू के स्वागत के लिए सजाया गया था।

इसी तरह पूरी बैठक में भीतर गमलों में सजावटी पौधे पीतल के बड़े गंगाल (बर्तन) में रखे गए थे। पर्दे कत्थई रंग के, उसी रंग की बंदनवार दरवाज़ों पर, जिसमें आम-अशोक के पत्ते और फूल सजाए थे। कत्थई रंग की ही बड़ी कुर्सियों पर गद्दियां और छोटे चौकोन तकिए रखे थे। यह रंग रॉबर्ट की पसंद का था। फ्लावरड्यू खुश नज़र आ रही थी। क्योंकि उसके ऊलजलूल भ्रम टूट रहे थे। इतने भी बैकवर्ड नहीं हैं ये लोग, जैसा उसने सोचा था। एक झालरदार कपड़े का बना लंबा पंखा ऊपर लगा था। जिसकी डोर कमरे के बाहर बैठे एक बुजुर्ग मजदूर के हाथ में थी। वह पंखे की डोर खींचता तो कमरे में ठंडी हवा फैल जाती। फ्लावरड्यू ने आँखें मूंद लीं। यह पंखे का तरीका उसे पसंद आया।

रॉबर्ट ने जयकिशन को इतने स्वागत और सुंदरता से सजे घर के लिए ‘थैंक्स’ कहा। और यह भी कहा कि फ्लावर निश्चय ही खुश है।

नहाने का कमरा बड़ा था। एक बड़े पीतल के गहरे बर्तन में उठाने के लिए, जिसको दोनों ओर कड़े लगे थे, में ठंडा पानी भरा था। साथ ही पीतल की बड़ी बाल्टी और लोटा रखा था, जो साफ-सुथरा और चमचमा रहा था। सभी बर्तन सुनहले और चमक से भरे थे।

‘‘सर, आप और मैडम नहा लें। मैं लंच तैयार करता हूँ।’’ जयकिशन ने कहा।

वैसे वह भोजन तैयार करके ही बंदरगाह गया था। बस अब वह रोटियां गरम-गरम परोसेगा।

एक बड़े पलंग पर जिस पर विभिन्न रंगों के धागों से कढ़ाई की गई थी चादर बिछी थी। उस पर फ्लावरड्यू लेट गई।

‘‘खाना कैसा लगा फ्लावर?’’ रॉबर्ट ने लगभग उस पर झुकते हुए पूछा।

‘‘अच्छा।’’ वह मुस्कुराई। वह समझ गई अब रॉबर्ट क्या चाहता है।

उसने देखा पर्दा ठीक से खींच दिया गया है। हवा से पर्दे पर एक ओर लगी पीतल की घंटियां बजीं। उसने चुन्बित होने वाले रॉबर्ट के होठों पर उंगली रख दी और कहा-‘‘रॉबर्ट बंगलो सुंदर है। तुम्हारा थैंक्स।’’

दोनों एक दूसरे में समा रहे थे।

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फ्लावरड्यू को गर्भधारण किए पाँचवां महीना चल रहा था। रॉबर्ट उसकी बहुत देखभाल कर रहा था। एल्फिन और उसकी पत्नी अपने डेढ़ साल के सुंदर गोल-मटोल बेटे के साथ घर आते थे। एल्फिन की पत्नी से फ्लावरड्यू की बहुत दोस्ती हो गई थी। रॉबर्ट सुबह-सुबह फिटन पर फ्लावरड्यू को लेकर समुद्र तट पर जाता था। वहाँ फिटन से उतरकर फ्लावरड्यू तट पर घूमती थी।

जिस औरत ने एल्फिन की पत्नी की जचकी (डिलीवरी) कराई थी, वही फ्लावरड्यू को देखने आती थी। उसी ने बताया था कि खूब घूमो। सब कुछ ठीक से हो जाएगा। उसने तो कितनी ही अंग्रेज मेमों की जचकी कराई है। जो पेट में आड़े-तिरछे हो जाते हैं बच्चे, जिन अंग्रेज मेम की उम्र अधिक है। उनका भी सब साधारण तरीके से किया है।

फिर फ्लावरड्यू तो बहुत कम उम्र की है। जयकिशन ने ही बताया था कि ये ईसाई दाईयां बहुत ही कुशल होती हैं। ये सेवा भी बहुत करती हैं। इन्हें मालूम भी बहुत कुछ होता है, अर्थात आयुर्वेदिक काढ़ा वगैरह बनाना जानती हैं।

जयकिशन और मेहमूद भी फ्लावरड्यू का बहुत ध्यान रखते थे। फ्लावर क्या बोलती थी, इन लोगों को भाषा समझ में नहीं आती थी। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं, जो ये दोनों न समझें।

मेहमूद समय-समय पर तरह-तरह के फलों का जूस बहुत मेहनत से निकालता था और फ्लावरड्यू को देता था। पपीता तथा अन्य फल काटकर देता और सुबह-शाम नाश्ता, खाना इत्यादि का बहुत ध्यान रखता।