अपंग - 64 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 64

64

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उस दिन दोनों असहज थे, जो कुछ हुआ था वह इतना अचानक था जैसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था दोनों को | वो दोनों ही न तो बच्चे थे, न किशोर और न ही उस सब से अनजान लेकिन फिर भी जो कुछ हुआ था वह इतना अचानक था कि वे स्वयं ही चौंक से गए थे | आख़िर उस दिन खुद पर संयम नहीं कर पाए थे |मनुष्य संवेदनाओं का पुतला ही तो है, उससे किन्हीं क्षणों में कुछ भी हो सकता है फिर चाहे हम उसको कुछ भी नाम क्यों न देते रहें |

इंसान की मानसिक और जिस्मानी ज़रूरतें होती हैं जिनको दबा भी दिया जाता है लेकिन किसी असहज मानसिक स्थिति में वह एक अजीब से भ्रम में फँस जाता है और वह सब कुछ हो जाता है जिसे समाज, विशेषकर भारतीय समाज लांछना की दृष्टि से देखता है | स्थिति कभी ऎसी भी आ ही जाती है कि न चाहते हुए भी बहुत कुछ हो जाता है | इसके पीछे मानसिक व शारीरिक अवस्था का बहुत बड़ा हाथ होता है और वह स्थिति एक चुनौती के रूप में सामने आ खड़ी होती है | वह हाड़-माँस से बना है जिसमें न जाने कितनी तरंगें उठती रहती हैं | एक छुअन थी जो सराबोर कर गई थी दोनों को, भानु डरी---कहीं कोई नज़र न लग जाए !

रिचार्ड अब तक अपनी जिस्मानी ज़रूरतें ही तो पूरी करता रहा था, भानु ने उसके जीवन में प्रवेश करके उसकी मानसिक ज़रूरतों को कुछ ऐसे जगा दिया था जिनके माध्यम से वह अब अपने जीवन को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखने लगा था | पहले वह समझता था कि शायद अपनी जिस्मानी ज़रूरतों को पूरा करना ही उसका जीवन था लेकिन भानु के आने के बाद, उससे जुड़ने के बाद उसका भीतर जैसे जाग गया था और जिस्मानी ज़रूरतों से उसका मन ऐसा हटा कि उसे अपना वह पागलपन अब याद तक नहीं आता था | सवाल यह था कि एक व्यक्ति के जीवन में आने से क्या इतना बदलाव हो सकता है, वो भी रिचार्ड जैसे आदमी के मन में जिसके लिए हर शरीर केवल एक खिलौने जैसा ही था | लेकिन --हुआ था न ! हो रहा था |

जो कुछ भी हुआ उसके बाद सारी रात भर सोफ़े पर ही एक-दूसरे की बाहों में समाए रहना, उनके शरीरों में कुछ ऐसा था महसूस हो रहा था जैसा ईश्वर के आलिंगन में समा जाना | रिचार्ड ने आज तक कभी ऎसी संवेदना को महसूस नहीं किया था, शायद भानु ने भी नहीं | वास्तविक प्यार की बौछारों से भीगते उनके तन-मन इतनी उम्र में पहली बार जैसे पिघलते रहे थे | आज भानु एक ऎसी मोमबत्ती सी पिघल रही थी जिसकी मोम पिघलकर दिल की ज़मीन पर जमा हो रही थी, उसे महसूस यह भी हो रहा था जैसे जब चाहे उस मोमबत्ती को अपनी गर्म साँस से जला लेगी और जो दिलों के अँधेरे कोनों को रोशन कर देगी |

जैनी ने जब नॉक किया था तब दोनों चौंके थे और सोफ़े से उठ खड़े हुए थे | सिटिंग -रूम का दरवाज़ा खुला था जिसमें से बाहर लगे काँच की खिड़कियों में से रोशनी के छोटे-छोटे बेलगाम टुकड़े इधर-उधर दौड़ते-भागते आँख-मिचौनी खेलने लगे थे, बिलकुल उनके जज़्बातों की तरह !

"कम इन जैनी ---" रिचार्ड ने अपने आपको स्वस्थ करते हुए जैनी को कमरे में आने के लिए पुकार लिया था |

"गुड़ मॉर्निंग सर-मैडम --" उस बड़े से कमरे में सेंटर-टेबल पर उसने ट्रे रखी और आँखें नीची करके बाहर चली गई थी |

भानु हमेशा साड़ी पहनती थी, उसके इस रूप में रिचार्ड को देवी का रूप नज़र आता जबकि उसने कभी न कुछ देखा था, न ही अपने जीवन में ऐसा कुछ महसूस किया था | यह महसूसना शुरू ही भानु को देखने के बाद हुआ था और साड़ी में भानु का यह अप्रतिम रूप उसे दैवीय लगता | इस समय भानु ने अपने लंबे बिखरे बालों को समेटकर एक गोला सा बनाकर अपनी गर्दन पर चिपका लिया था | बिखरी साड़ी को अपने शरीर के चारों ओर लपेटकर वह आँखें नीची करके सोफ़े के कोने में जा सिमटी थी |

रिचार्ड ने सेंटर-टेबल से कॉफ़ी की ट्रे उठाई और भानु के समीप कार्पेट पर जा बैठा | भानु की आँखें सजल थीं, लेकिन एक सुकून से भरा उसका चेहरा जैसे किसी भीतरी रोशनी से दमक रहा था, लरजती पलकें झुकी हुईं थीं |

"भानु, कॉफी ---प्लीज़ ---" भानु ने चुपचाप कॉफ़ी का मग अपने लरजते हाथ में थाम लिया | रिचार्ड अपनी कॉफ़ी लेकर वहीं कार्पेट पर सोफ़े पर बैठी भानु के पैरों के पास आ बैठा था | कुछ था जो दोनों के बीच में गुनगुना रहा था लेकिन बोल थे कि गुम थे |

"वाव --थैंक्स --यू आर हीयर --सो स्वीट ऑफ़ यू ---" पुनीत जैनी के खाने के बंधन से छुटकर उस दिन दनदनाता सिटिंग-रूम में चला आया था जबकि उसने कहीं भी जाने से पहले दरवाज़े पर 'नॉक' करना सीखा था |उस दिन तो वह कोई अलग ही बच्चा था, पहले गुड़ मॉर्निंग करना भी भूल गया था |भागकर आया और चिपट ही तो गया फिर अचानक याद आया तो बोल उठा ;

"गुड़ मॉर्निंग मॉम  ---रिचार्ड अंकल---हो---हो---हो-- " वह खुशी से चिल्ला रहा था | बच्चे को इतना खुश देखकर भानु और रिचार्ड के चेहरे खिल उठे | दोनों के बीच में सोफ़े पर कूदता पुनीत अचानक रिचार्ड को नीचे कार्पेट पर बैठा देखकर चौंका था ---

"व्हाई आर यू सिटिंग डाउन ?प्लीज़ कम अप ऑन द सोफ़ा ---" पुनीत ने हाथ पकड़कर रिचार्ड को सोफ़े पर बैठा दिया और बंदर की तरह कूदाफाँदी करने लगा --- |

बच्चे की उछल-कूद से उन सबके ऊपर कॉफ़ी गिरने की पूरी संभावना थी | वह उछलता और उन दोनों के हाथ में पकड़ी कॉफ़ी छलकने लगती | लगभग आधी कॉफ़ी अभी बाक़ी थी | रिचार्ड मुस्कुराया और उसने भानु के हाथ से कॉफ़ी लेकर, दोनों के मग आगे बढ़कर मेज़ पर रखी ट्रे में रख दिए | ऐसा लग रहा था जैसे कोई प्यारा सा परिवार जश्न मना रहा हो -----!!

अचानक फ़ोन की घंटी बजी, लैंडलाइन की ---