ममता की परीक्षा - 97 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 97



शंकाराचार्य मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों को अपने सहयोगियों के साथ भोजन के पैकेट बाँटते हुए मैं आगे बढ़ रही थी कि तभी भिखारियों की लंबी कतार में आगे बैठी हुई एक भिखारिन कतार से उठकर हम लोगों की विपरीत दिशा में जाने लगी। उसकी यह हरकत हमें चौंकानेवाली लगी, क्योंकि जहाँ दूसरे भिखारी भोजन के लिए टूट पड़ रहे थे, कुछ तो दूसरा पैकेट भी माँग रहे थे, उस भिखारिन का उठकर जाना चौंकानेवाली हरकत ही मुझे लगी।
गौरवर्णीय दुबले पतले जिस्म वाली उस भिखारिन के जिस्म से कपड़े के नाम पर फटे हुए चिथड़े झूल रहे थे जिन्हें अपने हाथों से सहेजते हुए वह अपना तन ढँकने का निष्फल प्रयास कर रही थी। उसके कृशकाय जिस्म में पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति पैदा हो गई थी कि वह तेजी से सीढियाँ चढ़कर ऊपर मंदिर के प्राँगण में लोगों की भीड़ में खो गई। उसका पीछा करते हुए मैं भी उसके पीछे भागी थी लेकिन मैं उतना तेज नहीं दौड़ पाई जितनी तेजी से वह सीढियाँ चढ़ी थी। अब तुम सोच रही होगी कि अच्छा भला गरीबों को भोजन कराते हुए मैं उस भिखारिन के पीछे क्यों दौड़ पड़ी थी ? तो सुनो ! पहली नजर में ही मैंने उसे पहचान लिया था। भला एक माँ अपनी बेटी को पहचानने में गलती कैसे कर सकती थी ? हाँ, वह मेरी बेटी जूही ही थी। प्राणों से प्रिय मेरी इकलौती बेटी जूही ! शायद उसने भी मुझे पहचान लिया था,इसीलिए वह दौड़ पड़ी थी मेरी पकड़ से आजाद होने के लिए और देखो ...एक बार फिर मैं हार गई थी उससे। उसे पकड़ नहीं सकी और वह जीत कर आजाद हो गई ।
... हाँ ! आजाद सारी जिम्मेदारियों से, चुनौतियों से, संभावनाओं के बोझ से, समाज में उसकी तरफ उठनेवाली हर उस सवालिया निगाहों का सामना करने से ......अब वो हर सवाल जो उससे पूछे जाने थे, उनसे आजाद हो गई थी और मैं ? मैं उसके इतना करीब होकर भी उसके पास जा नहीं सकी थी और एक बार फिर दूर हो गई अपनी बच्ची से। सोचो मेरे दिल पर क्या बीती होगी जूही को उस हाल में देखकर ? जिसके एक इशारे पर उसकी मनपसंद चीज उसके कदमों में हाजिर हो जाती थी, जिसे घंटों लगते थे अपने पसंद की ड्रेस का चुनाव करने में वह आज चिथड़े झुलाते हुए भिखारियों की कतार में महज अपना पेट भरने के लिए बैठी थी। विक्षिप्तों जैसी हालत नजर आ रही थी उसकी। मुझसे ज्यादा देर वहाँ नहीं रहा गया। मंदिर और उसके प्रांगण में आसपास खोजकर अपनी पूरी तसल्ली हो जाने के बाद मैं थकी हारी अपने घर पहुँची।

सहयोगियों को अन्नदान का कार्यक्रम जारी रखने की हिदायत मैं दे आई थी। इस बीच घर पहुँचकर जूही एक पल के लिए भी मेरे जेहन से नहीं निकली थी।
अभी एक साल और कुछ ही दिन हुए थे जब उसने बड़े अरमान से अपनी मर्जी से अपनी दुनिया बसाई थी। मोहन की मर्जी के खिलाफ मैं भी नहीं जा सकती थी सो उस दिन बिलाल और जूही के अपने घर से जाने के बाद मैंने भी उनकी कोई खोजखबर लेना मुनासिब नहीं समझा था। दिल को समझा लिया था कि अपनी कोई औलाद थी ही नहीं और यही सच भी लग रहा था उन दिनों, क्योंकि वह जब मोहन जी के देहांत के बाद भी मुझसे मिलने नहीं आई तो उसके लिए मन में क्रोध उपजना स्वाभाविक ही था।
पर यह भी एक सच्चाई है कि एक माँ का मन चाहे जितना कठोर हो जाय लेकिन सच कहती हूँ अपनी औलाद के लिए वह हमेशा ममता से ही भरा रहेगा। मोहन जी के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक मुझे जूही का इंतजार रहा। मेरा दिल कह रहा था कि शायद उसे खबर नहीं हुई होगी, नहीं तो वह अवश्य भागती हुई आती और मुझसे लिपटकर अपने पापा को याद करती। लेकिन अफसोस... मेरा इंतजार इंतजार ही रह गया। उसको नहीं आना था सो वो नहीं आई। मैंने भी अपना दिल कड़ा कर लिया था कि जब ऐसी संतान हो जिसको अपने माँ बाप की कोई फिक्र नहीं तो हम क्यों उसकी फिक्र करने लगे ? ऐसी संतान का होने से उसका न होना कहीं अधिक अच्छा है।

धीरे धीरे जूही की यादों को अपने दिमाग से निकाल पाने में सफल हो गई थी मैं। अच्छी भली जिंदगी चल रही थी मेरी और उस दिन जूही ने फिर से अपनी झलक दिखलाकर मेरे शांत जीवन में एक बार फिर से हलचल सी पैदा कर दी। कुदरत ने मानो झील के ठहर गए पानी जैसे मेरे जीवन में जूही नामका पत्थर फेंककर पानी की सतह पर हलचल मचा दिया हो। जितना उसके विचारों को झटकने का प्रयास करती वह दिलोदिमाग में छाती गई। मन में कई तरह के सवाल जवाब चल रहे थे उसको लेकर।

तभी मन में उठे एक सवाल ने मेरे सोचने की दिशा ही बदल दी। किसी बिजली की तरह मन में कौंधा था यह सवाल 'यह भी तो हो सकता है कि जूही को सच में नहीं पता चला हो अपने पापा की मृत्यु के बारे में ? और फिर बिलाल के पापा भी तो उनकी शादी के खिलाफ थे। फिर ? कैसे किया होगा सामना उन दोनों ने एडवोकेट कासिम आजमी की मक्कारियों का जिसके लिए वह कुख्यात था। हमने भी तो उसकी कोई खोजखबर नहीं ली। गलती हमारी भी तो है। कोई अपनी औलाद से इस कदर भी नाराज होता है क्या ? यहाँ से जाने के बाद उनपर क्या कुछ बीती होगी ये तो वही जानें, लेकिन क्या बीती थी ? यह तो हमें पता लगाना ही चाहिए था। खैर कोई बात नहीं। तब नहीं तो अब सही।'

यह विचार मन में आते ही मेरा मन अशांत हो गया। दिमाग पर धुन सवार हो गई जूही और बिलाल के बारे में जानकारी हासिल करने की। आखिर क्या हुआ था उनके साथ ? बिलाल कहाँ है ? जूही इस हालत तक कैसे पहुँची ? इन्हीं विचारों के साथ वह पूरी रात बेचैनी में करवटें बदलते बीती।

दूसरे दिन बड़े सबेरे मैं अपने घर से निकल पडी बिलाल और जूही के बारे में पता लगाने के लिए। शहर में मशहूर एडवोकेट कासिम आजमी की कोठी तलाश करना कोई मुश्किल काम नहीं था मेरे लिए। दरबान की इजाजत के बाद मैं एडवोकेट आजमी से मिली। उनसे मिलते ही जो दिल दहला देने वाली खबर मैंने सुनी, मेरे हाथ पाँव फूल जाने के लिए काफी थे। मैं सन्न सा होकर उस इंसान को देख रही थी जो अपनी इकलौती संतान की मौत की खबर होठों पर मुस्कुराहट लाते हुए सुना रहा था। एडवोकेट आजमी के होठों पर फैली मुस्कान ने मेरे दिल में उंसके लिए नफरत का गुबार भर दिया जब उसने हँसते हुए कहा था, "मोहतरमा ! बड़ी देर कर दी आपने आते आते ....! आपकी लड़की मेरे लड़के को भले ही फँसाने में कामयाब हो गई थी लेकिन दोनों ही शायद भूल गए थे कि बाप आखिर बाप होता है।..खैर आपको बता दूँ ..बिलाल को गुजरे हुए ग्यारह महीने हो गए हैं और अब हमारा कोई बेटा नहीं !"
तड़पते हुए तुरंत ही मेरे मुँह से निकला था, "..और जूही ? मेरी बच्ची जूही कहाँ है ?"

एक कुटिल मुस्कान के साथ उसने बताया, "मोहतरमा ! जब हमारा बेटा ही नहीं रहा, हमारा आपकी बेटी से क्या लेना देना ? बिलाल के इंतकाल के दो दिन बाद ही वह हमारे घर से कुछ नकदी लेकर फरार हो गई। आज तक कोई पता नहीं चला।"

बेहद चौंकानेवाली थी ये जानकारी। वह शहर का जानामाना वकील था। मुझे अच्छी तरह पता था कि उससे बहस करके कोई नहीं जीत सकता था।
अब मेरे सामने चुनौती थी जूही के बारे में पता लगाने की, और मैं चुनौतियों से भागने वाली तब भी नहीं थी। कुछ देर बाद मैं कुछ सोचते हुए शहर के थाने में बैठी जूही की गुमशुदगी का रपट लिखा रही थी।

क्रमशः