अनूठी पहल - 13 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • नज़रिया

    “माँ किधर जा रही हो” 38 साल के युवा ने अपनी 60 वर्षीय वृद्ध...

  • मनस्वी - भाग 1

    पुरोवाक्'मनस्वी' एक शोकगाथा है एक करुण उपन्यासिका (E...

  • गोमती, तुम बहती रहना - 6

                     ज़िंदगी क्या है ? पानी का बुलबुला ?लेखक द्वा...

  • खुशी का सिर्फ अहसास

    1. लालची कुत्ताएक गाँव में एक कुत्ता था । वह बहुत लालची था ।...

  • सनातन - 1

    (1)हम लोग एक व्हाट्सएप समूह के मार्फत आभासी मित्र थे। वह लगभ...

श्रेणी
शेयर करे

अनूठी पहल - 13

- 13 -

प्रतिदिन की भाँति प्रभुदास काउंटर के पीछे गद्दी पर बैठा ग्राहकों को निपटा रहा था कि डाकिए ने मैं. प्रभुदास एण्ड सन्स के नाम से आई डाक काउंटर पर रखी। कम्पनियों की डाक के साथ एक अन्तर्देशीय पत्र भी था। पहले उसने वही पत्र उठाया। पत्र भेजने वाली उसकी बहन दमयंती थी। पत्र पढ़कर उसे झटका तो लगा, लेकिन इस पर फ़ुर्सत में विचार करने के लिए पत्र बन्द करके उसने जेब में रख लिया और बाक़ी डाक पर सरसरी नज़र डालकर फिर से ग्राहकों की ओर रुख़ किया।

दोपहर के खाने के समय उसने दमयंती के पत्र सम्बन्धी कोई बात सुशीला या पार्वती से नहीं की। उसने सोचा, इस विषय पर रात को इत्मीनान से विचार-विमर्श करना बेहतर होगा।

पवन ने जब से दुकान की ज़िम्मेदारी सँभाली थी, प्रभुदास शाम को जल्दी ही दुकान छोड़ देता था। दुकान से उठकर अधिकतर रामरतन के पास जा बैठता था। वहीं जगन्नाथ तथा एक-दो अन्य साथियों से मुलाक़ात हो ज़ाया करती थी। यहाँ उनमें मंडी के हालात, देश की राजनीतिक स्थिति तथा बदलते सामाजिक परिवेश पर चर्चा से लेकर गपशप तक सब कुछ चलता था। आज प्रभुदास रामरतन की ओर न जाकर सीधा घर आ गया।

‘आज इतनी जल्दी कैसे घर आ गया है तू? तेरी तबियत तो ठीक है,’ पार्वती ने उसके चेहरे पर उदासी की झलक को लक्ष्य करते हुए पूछा।

‘माँ, तबियत तो ठीक है। बस यूँ ही सोचा, कुछ देर तेरे साथ बैठकर घर-बार की बातचीत कर लूँ, सो रामरतन की ओर न जाकर घर ही चला आया।’

‘कोई ख़ास बात है क्या?’

‘आज दमयंती का पत्र आया है…..।’

‘क्या लिखा है उसने?’

दमयंती के पत्र की बात सुशीला के कानों में पड़ी तो वह भी वहीं आ गई।

‘अपनी बात हुई थी ना कि अब दीपक को ज़मीन की देखभाल के लिए गंगानगर भेज देना चाहिए,  वहीं उसके लिए कोई काम-धंधा भी देख लेंगे। यही बात सुशीला ने दमयंती को लिखे पत्र में लिखी थी, जिसका जवाब आज आया है। दमयंती ने लिखा है कि जब उसने यह बात विजय जी को बताई तो उन्होंने कहा कि ज़मीन तो मेरी है, उसके लिए दीपक को यहाँ भेजने की ज़रूरत नहीं, वैसे दीपक को कोई काम-धंधा करवाने की प्रभुदास सोच रहा है तो उसमें मदद कर दूँगा। दमयंती ने जब उससे कहा कि ज़मीन तो वीर जी ने ख़रीदी थी तो कहने लगा, दस साल से ज़मीन की देखभाल में खून-पसीना तो मैंने बहाया है, ज़मीन की गिरदावरी भी मेरे नाम है, प्रभुदास का इसपर कोई हक़ नहीं बनता। दमयंती के समझाने पर भी अपनी बात पर अड़ा रहा। आख़िर वह ज़मीन की मूल क़ीमत ब्याज सहित देने को तैयार हुआ….. दमयंती बेचारी भी बहुत दुखी लग रही है। ….’

पार्वती ने सारी बातें सुनकर कहा - ‘प्रभु बेटे, मैंने तो तुझे ज़मीन ख़रीदते समय भी रोका था। कहावत यूँ ही नहीं बनी - ज़र, जोरू और ज़मीन में साँझ नहीं होनी चाहिए, निभती नहीं, लड़ाई-झगड़े और होते हैं। …. तूने क्या सोचा है?’

‘मैं सोच रहा हूँ कि दो-चार दिन में मैं ख़ुद जाकर विजय जी से बात करूँ।’

‘प्रभु, वहाँ जाने से पहले, अगर तू ठीक समझे तो राम की राय भी ले ले, वह समझदार तो है ही, परिवार के सदस्य जैसा ही है।’

‘माँ, रामरतन से तो कल सुबह बात कर लूँगा। वैसे यह मसला सुलझेगा वहाँ जाकर ही।’

सुबह सैर से लौटते समय प्रभुदास रामरतन के घर पहुँच गया। रामरतन ख़ुरपी से क्यारियों में उगी खरपतवार और घास निकाल रहा था। प्रभुदास ने ‘राम-राम भाई’ कहा, रामरतन ने भी उसी तरह जवाब दिया। रामरतन ने खुरपी वहीं छोड़ी और प्रभुदास को अन्दर लाकर बैठक में बिठाया। वहीं से ऊँची आवाज़ में सूचना दी - ‘जमना, प्रभु भाई साहब आए हैं।’

कुछ ही पलों में जमना ने बैठक में प्रवेश करते हुए प्रभुदास को नमस्ते की और उलाहना देते हुए कहा - ‘भाई साहब, अपने भाई को तो आप लगभग रोज़ ही दुकान पर मिल लेते हो, लेकिन भाभी और भतीजे को तो भूल ही गए लगते हो!’

‘नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं। काम की व्यस्तता के कारण ही नहीं आ पाया। भाई से जो रोज़ मिलने की बात आपने की है तो वह तो कारोबार सम्बन्धी विचार आदि करने के लिए हो जाता है। ….. कान्हा अभी सो रहा है क्या?’

‘उसी को उठा रही थी, स्कूल के लिए भी तैयार करना है।’

‘जमना, अगर कान्हा उठा ना हो तो हमारे लिए दो कप चाय ही बना दे,’ रामरतन ने कहा।

जमना ने रसोई की ओर जाते हुए कहा - ‘उठ भी गया होगा तो क्या, चाय तो भाई साहब को पिलानी ही है।’

जब जमना रसोई की ओर चली गई तो प्रभुदास ने रामरतन को ज़मीन वाला सारा क़िस्सा सुनाया और उसकी राय जाननी चाही। रामरतन को यह तो पता था कि प्रभुदास ने राजस्थान में ज़मीन ली हुई है, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि प्रभुदास शीघ्र ही दीपक को ज़मीन की देखरेख के लिए वहाँ भेजने वाला है। यह सुनकर कि विजय जी ज़मीन पर अपना हक़ जता रहे हैं और दीपक या प्रभुदास की दख़लंदाज़ी उन्हें बर्दाश्त नहीं होगी, रामरतन को बहुत अचम्भा हुआ। उसने कहा - ‘भाई, यह मसला थोड़ा टेढ़ा है। रिश्तेदारी भी ऐसी है कि मामूली-सी चूक से न केवल सम्बन्धों में दरार पड़ जाएगी, बल्कि बहन दमयंती को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए मेरी राय तो यह है कि या तो विजय जी को यहाँ बुला लो या तुम वहाँ जाओ। बैठकर ठंडे दिमाग़ से बात करो और समस्या का हल निकालो। …. भाई, एक बात याद रखना, पैसे की अहमियत रिश्तों से बढ़कर नहीं होती। पैसा तो आज है, कल पता नहीं, होगा कि नहीं। रिश्ते तो हमारी साँसों तक ही नहीं, उसके बाद भी बने रहते हैं। मुझे ही देख लो, कुछ साल पहले मुझे घर-परिवार, जायदाद से मरहूम होकर ख़ाली हाथ आना पड़ा था। यह तो तुमने मेरा हाथ थाम लिया तो आज फिर परमात्मा की कृपा बरस रही है। …. तुम तो वैसे भी दान-पुण्य करने में सदा आगे रहते हो, इसलिए सोच-समझकर ही मसले को सुलझाने की कोशिश करना।’

जब रामरतन अपनी बात कह रहा था तो जमना चाय रखकर कान्हा को स्कूल के लिए तैयार करने के लिए तुरन्त लौट गई थी। अपनी बात ख़त्म करके रामरतन ने चाय का एक कप प्रभुदास को पकड़ाया और वे चाय पीने लगे। चाय पीने के बाद प्रभुदास ने कहा - ‘भाई साहब, आपने बहुत अच्छी बात कही है। मैं जाकर ही मसला सुलझा कर आता हूँ। …. अब मैं चलता हूँ।’

……..

जब मन में खोट होता है तो व्यक्ति अन्दर-ही-अन्दर स्वयं को कमजोर महसूस करता है, लेकिन प्रकटत: ऐसा दिखावा करता है जैसे कि उसे कोई चिंता नहीं है, किसी की परवाह नहीं है। प्रभुदास के आने पर विजय भी ऐसा ही महसूस कर रहा था। चाय-नाश्ते के उपरान्त उसने स्वयं ही ज़मीन का मसला उठाते हुए कहा - ‘प्रभु, तुमने तो ज़मीन कौड़ियों के भाव ली थी। दस साल से उसको बनाने-संवारने में हाड़-तोड़ मेहनत तो मैंने की है। …. ज़मीन की लागत ब्याज सहित ले लो। क़ानूनी कार्रवाई की तो सोचना भी मत। यदि क़ानूनी पचड़ों में पड़े तो ना ज़मीन की क़ीमत मय ब्याज वसूल कर पाओगे और ना ही अपनी रिश्तेदारी रहेगी …..। वैसे भी तुम तो बड़े दानवीर हो, समझ लेना, ज़मीन बहन को दान कर दी।’

प्रभुदास को विजय की इतनी तल्ख़ बातें सुनकर ग़ुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह ग़ुस्से को पी गया। संयत रहते हुए उसने कहा - ‘विजय जी, मैंने तो ज़मीन आपके कहने पर ही ली थी। आपने खुद ही ज़मीन सँभालने की बात कही थी। यह तो नहीं कहा था कि ज़मीन पर आख़िर में आप क़ब्ज़ा कर लेंगे। रिश्तेदारी के साथ विश्वास भी होता है। मैं आपकी बातों पर विश्वास न करता तो क्या आपको अच्छा लगता! ….. रही बात बहन को ज़मीन दान करने की तो इतना तो आप समझते ही हैं कि स्वेच्छा से दान करने और धोखे से किसी द्वारा क़ब्ज़े किए जाने को स्वीकार करने में बहुत अन्तर होता है।’

विजय ने उत्तेजित होते हुए कहा - ‘प्रभु, तुम कहना क्या चाहते हो, मैंने धोखे से क़ब्ज़ा किया है?’

‘मैं नहीं, आप खुद अपने मन से पूछो कि जो आप कर रहे हो, क्या वह न्यायसंगत है?’

विजय ने तुरन्त प्रतिवाद नहीं किया। प्रभुदास को लगा कि बात बनने के आसार हैं। रामरतन की बात को स्मरण करते हुए उसने प्रस्ताव रखा - ‘विजय जी, आपकी बात को मानते हुए मैं आधी जमीन बहन के नाम करने को तैयार हूँ….।’

विजय ने सपने में भी नहीं सोचा था कि लाखों की ज़मीन पर बिना मुक़दमेबाजी के इस प्रकार उसका अधिकार हो जाएगा। फिर भी उसने ऊपरी मन से प्रस्ताव को नकारते हुए कहा - ‘तुम्हारा  दरियादिली दिखाना शोभा नहीं देता। तुम्हें पता है कि मुकदमेबाजी में सिवा परेशानी के तुम्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं। दरियादिली तो तुम्हारी तब मानता यदि तुम ज़मीन पर अपना अधिकार जताना छोड़ देते। आधी जमीन …. हूँह!’

‘विजय जी, मुझे जल्दी नहीं है। आप ठंडे दिमाग़ से सोच-विचार कर लो। मैंने जो कहा है, मैं उस पर क़ायम रहूँगा।’

तत्काल अपनी बात से पीछे हटने में विजय को हेठी महसूस हो रही थी, प्रभुदास की अंतिम बात से उसने राहत की साँस ली। उसने दमयंती को आवाज़ लगाई। वह तुरन्त उपस्थित हो गई।

‘दमयंती, खाना तैयार हो गया हो तो लगा दे, भूख लग रही है।’

दमयंती तो तुरन्त इसलिए आई थी कि पता लगा कि ज़मीन के बारे में क्या बात हुई है, किन्तु दोनों ही व्यक्तियों ने इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं की उससे। लेकिन दमयंती से यह छिपा नहीं रहा कि विजय काफ़ी निश्चिंत दिखाई दे रहा था और उसका भाई गम्भीर। वह सोचने लगी, क्या वीर जी ने अपना अधिकार छोड़ दिया है या …. ? उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। रसोई में जाकर उसने दो थालियाँ तैयार कीं और बैठक में ही ले आई।

प्रभुदास तो खाना खाकर वापस चला गया। उसके जाने के बाद दमयंती से रहा नहीं गया, उसने विजय से पूछ ही लिया - ‘क्यों जी, वीर जी के साथ ज़मीन के बारे में क्या बात हुई है, कुछ मुझे भी बताओ?’

विजय ने दमयंती को सारी बातें इस लहजे में बताईं जैसे कि जताना चाहता हो कि प्रभुदास ने जो प्रस्ताव रखा है, यदि मैं उसे मानता हूँ तो उसपर बड़ा अहसान करूँगा।

दमयंती - ‘ऐ जी, यह तो मण्डी में सबको पता है कि यह ज़मीन हमारी नहीं, बल्कि वीर जी की है। वीर जी भलमनसाहत में ही आधी जमीन देने को तैयार है। मैं तो कहती हूँ, आप उनकी बात मान लो।’

‘प्रभु भलमनसाहत में नहीं, मजबूरी में ऐसा कह रहा है, क्योंकि उसे अच्छी तरह से पता है कि दफ़्तर-कचहरी के चक्कर में पड़ा तो उसके हाथ कुछ लगने वाला नहीं।’

‘चलो, एक बार आपकी बात मान लेती हूँ। आधी जमीन तो हमें बिना कुछ किए-कराए ही मिल रही  है।’

‘तू तो पागल है। तुझे दिखाई नहीं देता, पिछले दस सालों में मैंने कितनी मेहनत की है ज़मीन पर?’

‘मैं इससे इनकार नहीं करती, किन्तु ज़मीन के रख-रखाव के लिए पैसे तो वीर जी ही भेजते रहे हैं हमेशा। ऐसे में उनकी बात ना मानकर आप बहुत बड़ी गलती करोगे! भगवान् से डरते हुए, मैं तो आपको यही सलाह दूँगी कि वीर जी की बात मान लो, रिश्तेदारी में भी खटास नहीं पड़ेगी। दूध में खटास पड़ने पर वह किसी काम का नहीं रहता। बाक़ी आपकी मर्ज़ी!’

विजय ने सोचा तो था कि दमयंती को विश्वास दिला दूँगा कि मैं प्रभुदास पर अहसान करने जा रहा हूँ, लेकिन दमयंती की बातों से उसे लगा कि आधी जमीन का हक़ मिलने पर भी वह अपने भाई की पक्षधर ही रहेगी। अन्ततः उसने प्रभुदास का प्रस्ताव मानने का मन बना लिया, क्योंकि वह भी जानता था कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में जूते तो उसके भी घिसेंगे।

******