Ashok vaatika ki Sita - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

अशोक वाटिका की सीता - 2

रावण के सीता हरण के निर्मम कृत्य के साक्षी जटायु से सीता की व्यथा सुनकर राम अत्यंत पीड़ित आभास कर रहे थे। दूसरी ओर सीता जो इस अन्याय की भोगी रही थी,
उसका मन भी हृदय भेदी पीढ़ा से भरा था और उसके हांथो को जबरन पकड़ने वाले रावण का हृदय अथाह अहंकार से.....! जिसके मद में आकर सीता से वह बोला:- दिव्य चमकती मेरी सोने की लंका को देख रही हो सीता। तुम्हारा भविष्य ही तुम्हे उस कुटिया से यहां लाया है।

सीता:- हां रावण। तुम सत्य कह रहे हो।। मेरा भविष्य ही मुझे यहां लेकर आया है। तुम्हारे विध्वंस की रचना मेरे यहां आने की नियति में ही सन्निहित है। नहीं तो मेरे राम तुम जैसे अमर्यादित पुरुष से संसार को मुक्त कैसे करा पाते?? मै पूरी निश्चिंतता के साथ कह सकती हूं कि ये तुम्हारा अयोध्या के प्रति किया पहला पाप है और अंतिम भी यही होगा.....! और तुम्हारी लंका मुझे सोने की नहीं अग्नि की प्रतीत होती है। तुम्हारी तरह तुम्हारी लंका भी पतन पाएगी। मुझे इसका विश्वास है।

इतने में प्रकृति भी मेघो की गर्जनाद करते हुए धूल भरी आंधी उड़ाती लाई।

रावण:- मौन सीता!! अपनी जिह्वा को विश्राम दो। मेरे राज्य में मुझसे कटु वचन कहने का सामर्थ्य तुम ना ही करो तो तुम्हारे लिए हितकर होगा। स्मरण रखो तुम नारी हो???

तभी मेघ और गरजने लगे।

सीता:- मुझे मौन करने की प्रवंचना मत करो रावण। मै मर्यादा से भली भांति परिचित हूं क्योंकि मैं एक नारी हूं।
पर नारी होने का अर्थ कोमलता ही नहीं है। उसका एक रूप शिला भी है। जहां वो अपने साथ अमर्यादित आचरण करने वाले के प्रति पाषाण भी हो उठती है जैसे मा काली।

रावण:- मा काली भी मेरा अंत नहीं कर सकती सीता। मै अमर हूं।

सीता:- तुमने अपने नेत्रों पर पट्टी बांध रखी है रावण। इसी कारण अपने पतन को देख नहीं पा रहे हो।

रावण:- सीता उस राम के मोह को छोड़ दो। मुझे स्वीकार करो।

सीता:- मुझे राम से मोह नहीं है वरन वो तो मेरे प्राण है, जिनके बिना मै श्वास भी नहीं ले सकती। तो उन्हें भूलने
का सिर्फ एक ही अर्थ है मृत्यु। पर मै कायर नहीं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि राम मेरे रक्षण को अवश्य आएंगे। पर तब तक मेरा जीवन अर्ध मृत की भांति ही है रावण जिसके दोषी तुम हो।

रावण:- कायरो के शाप शूरवीरों को लगते नहीं है सीता।
दीनो की वाणी रावण का सत्य नहीं क्योंकि रावण अपने भविष्य की आकाशवाणी स्वयं करता है जिस पर देवता भी स्वर्ग से पुष्प बरसाते है। इसीलिए चलो सीता मेरे भवन में। उसकी शोभा को बड़ाओ।

सीता:- रावण तुम्हारी लंका की शोभा में मेरे चरणों का कोई स्थान नहीं। भवन संबंध का प्रतीक है। पिता से पुत्री का पति से पत्नी का बहन से भाई का। और मेरी स्मृति में मेरे भाग्य में और मेरी मर्यादा में कहीं भी इस लंका नगरी के राजभवन की नीव और उसके कक्ष नहीं...........

रावण:- तो फिर क्या ये मुख्य द्वार है।

सीता:- नहीं। मुख्य द्वार पर अधिकार गृह की स्वामिनी का होता है। इसी कारण इस पर भी मेरा वास नहीं होगा।

रावण:- तो कहां है???

सीता मौन हो जाती है और नेत्र बंद कर श्री राम बोलती है कि तभी उसे एक प्रसंग याद आता है।

तब का जब भरत राम को वापिस अयोध्या लेे जाने के लिए उनकी कुटिया के समीप श्री राम से मिलते है और वापिस उन्हें आने का अनुनय करते हुए कहते है:-

भईया राम।
आपके बिना है अयोध्या जड़ समान
लौट आइए फिर अयोध्या
बनकर राजा महान।

राम:-

भ्राता तुम हो अनुज मेरे
मानो फिर एक बात
पिता की इच्छा मानकर
चलाओ वहां का राजकाज।

भरत:-

मै तो आपकी छाया में
चलने वाला अनुगामी हूं
फिर राजा मै बनूं कैसे
मै अति दुर्भाग्यशाली हूं।

राम:-

मा को मैंने आश्वासन दे
कहा था तुम राजा होगे
क्या तुम मान नहीं करोगे
मेरे कहे वचनों के।

भरत:-

मान करूंगा अवश्य ही
पर...
अपमान नहीं कर सकता हूं
ज्येष्ठ के होते हुए मै
राजा कैसे बन सकता हूं???

राम:-

मेरे अनुज
मान कर मेरी बात अयोध्या को चल दो
मेरे मन को द्रवित मत करो
निर्णय को स्थिर रहने दो।
उत्तरदायित्व मातृ का रहने दो।

भरत

ठीक है भ्राता
आपकी आज्ञा को मैंने शिरोधार्य माना
पर आपकी अनुपस्थिति में
मुझे दे दीजिए अपनी उपस्थिति का चिन्ह
मै हूं अभागा
मांगता हूं आपकी
चरण पादुका

राम:-

ले जाओ ये पादुका
मेरी
अब ना करो राजकाज में
देरी।

भरत चले जाते है पर सीता फिर राम से पूछती है कि:-

हे राम दृश्य ये अति भावुक
वियोग में आहत भरत को देख मन मेरा भी होता व्याकुल।
सोच कर कि ऐसे वियोग का
कभी हमारे जीवन में संयोग हुआ
तो मुझ सी अर्द्ध मृत और दरिद्र कौन होगी???

राम मुस्काते हुए

क्षण जीवन में ऐसे आते ही है सीते
पर मर्यादित मृत नहीं होते बल्कि है जीते
हो अगर कभी तुम्हे वियोग आभास
तो स्मरण करना ये प्रकृति अगाध
इसमें ही तुमको मेरे दर्शन होंगे!!
और इसमें मुझको भी तुम्हारे दर्शन होंगे।।

सीता इसी क्षण अपनी स्मृति से बाहर अा जाती है। पर अब उसे ज्ञात है कि उसे कहां रहना है। प्रकृति में। जिसे वो अपने आसपास ढूंढती है तो उसकी दृष्टि वाटिका पर जाती है और वो मुस्कुरा उठती है।

सीता रावण से:- मै इस वाटिका में रहूंगी रावण।

रावण:- वाटिका?? क्या तुम अशोक वाटिका में रहोगी सीता?? इस वैभव को छोड़!!!

सीता:- हां रावण। मै इसी अशोक वाटिका में रहूंगी।

अशोक वाटिका की सीता पहुंची अपने प्रारब्ध की ओर
तो कहीं राम झेल रहे है दुख झकझोर।

आगे जारी...........!!!!!!!

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