मेरे घर आना ज़िंदगी - 26 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 26



(26)

अमृता के मन में डर आ गया था इसलिए वह काम में मन नहीं लगा पा रही थी। उसका मन कर रहा था कि एकबार समीर से बात कर ले। जिससे उसके मन को तसल्ली हो जाए। लेकिन कुछ समय पहले ही उसे देर से आने के लिए डांट पड़ी थी। अब अगर वह काम के बीच में फोन करती तो सबकी निगाह‌ में आ जाती। अजीब स्थिति थी। ना वह काम में मन लगा पा रही थी और ना ही फोन कर पा रही थी।
कुछ देर तक वह काम में मन लगाने की कोशिश करती रही। पर मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसने इधर उधर देखा। सब काम में लगे हुए थे। उसने धीरे से अपना फोन बैग से निकाला। अपनी सीट से उठकर वॉशरूम में चली गई। वहाँ जाकर उसने समीर को फोन किया। तीन बार पूरी घंटी बजी पर फोन नहीं उठा। उसके लिए अब और अधिक वॉशरूम में रहना संभव नहीं था। वह वापस अपनी सीट पर आ गई। अब तो बेचैनी पहले से कई गुना बढ़ गई थी। उसकी रुलाई छूटने वाली थी। तभी समीर का मैसेज आया,
"मैं ठीक हूँ....डोंट वरी...आई विल नॉट क्विट....'
मैसेज पढ़कर उसे तसल्ली हुई। वह अपने काम में जुट गई।

अपनी मम्मी को मैसेज करने के बाद समीर ने अपना फोन रख दिया। लैपटॉप के स्क्रीन पर शोभा मंडल के ईमेल को चौथी बार फिर से पढ़ने लगा।
'डियर समीर,
पहले तो मैं देर से जवाब देने के लिए माफी चाहती हूँ। मैं एक सेमिनार के लिए बाहर गई थी। तुम्हारा मेल एनजीओ की आइडी पर था। मेरे स्टाफ ने मुझे देर से फॉरवर्ड किया। तब मैंने उसे पढ़ा और अब अपनी ईमेल आईडी से जवाब दे रही हूँ।
तुम्हारी समस्या को पढ़ा और उसे महसूस भी किया। मैं खुद इस सबसे गुज़र चुकी हूँ। तुमने आत्महत्या के प्रयास का जो कदम उठाया था वह ठीक नहीं था। पर उसके बाद तुमने जिस तरह से खुद को संभाला वह तारीफ के लायक है।
मैंने तुम्हारी मदद की बात पर विचार किया है। अगले महीने की शुरुआत में मैं तुम्हारे शहर आ रही हूँ। अपने रहने की जगह के बारे में बताऊँगी। तुम अपनी मम्मी के साथ आकर मिलना।'
अपनी मम्मी के ऑफिस जाने के बाद समीर बहुत देर तक निराश होकर रोता रहा था। उसे लग रहा था कि उसके लिए इस ज़िंदगी में कुछ नहीं बचा है। समाज उसका इसी तरह उपहास करता रहेगा। कोई उसकी मदद नहीं करेगा। उसकी मम्मी भी नहीं। उसके पास एक ही रास्ता है। जिस प्रयास में वह पिछली बार असफल रहा था उसके लिए फिर से कोशिश करे। इस बार उसने तय किया था कि वह बिल्डिंग की टैरेस से कूद जाएगा। जिससे बचने की कोई उम्मीद ना रहे। अपना मन पक्का करके वह दरवाज़े की तरफ बढ़ा। दरवाज़ा खोल रहा था तभी मन में आया कि एकबार फिर ईमेल चेक करे। अगर कोई जवाब नहीं आया होगा तो वह टेरेस पर जाकर नीचे कूद जाएगा।
अपने कमरे में आकर उसने लैपटॉप ऑन किया। अपने ईमेल में लॉगइन किया। स्क्रॉल करके थोड़ा नीचे आया तो अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। शोभा मंडल ने ईमेल भेजा था। उसने खोलकर ईमेल पढ़ा। तीन बार पढ़ने के बाद उसे यकीन हुआ। इसी बीच उसने अपनी मम्मी की कॉल को आंसर नहीं किया था। उसे ईमेल पढ़कर तसल्ली मिली थी। उसने अपनी मम्मी को मैसेज किया और चौथी बार ईमेल को फिर से पढ़ा।
समीर ने अब टेरेस से कूदने का इरादा छोड़ दिया था। वह‌ सोच रहा था कि जब शोभा मंडल उसके शहर में आएंगी तो वह उनसे मुलाकात अवश्य करेगा। उसे याद आया कि कल उसने अपने दोस्त अजित को बड़ा निराशा से भरा मैसेज भेजा था। उसने अपने सोशल अकाउंट में लॉगइन किया। अजित का उत्तर आया था। उसने लिखा था कि तुम इतने निराश मत हो। सब ठीक हो जाएगा। जब मौका मिले तो मुझसे बात करना। समीर ने देखा कि अजित ऑनलाइन है। उसने अजित को कॉल किया। बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे। समीर ने जो कुछ हुआ सब कुछ अजित को बता दिया।

नंदिता और मकरंद ने अपना सारा सामान नए घर में पहुँचा दिया था। आज दोनों सिर्फ लोगों से मिलकर विदाई लेने आए थे। सबसे मिलने के बाद नंदिता और मकरंद योगेश और उर्मिला से मिलने के लिए गए थे। इधर अपने में व्यस्त नंदिता ने योगेश का हालचाल भी नहीं लिया था। जब वह उनसे मिलने पहुँची तो उनकी हालत देखकर परेशान हो गई। योगेश बहुत कमज़ोर हो गए थे। वह अगले दिन अस्पताल में भर्ती होने जा रहे थे। उर्मिला की देखभाल के लिए उन्हें वापस संस्था में भेज दिया था। उनकी हालत देखकर नंदिता ने कहा,
"अंकल आप इतनी तकलीफ़ में थे। मैं अपने में उलझी रही। सुदर्शन से एक फोन करवा देते।"
योगेश ने मायूस होकर कहा,
"बेटा अब इस ज़िंदगी में कुछ रह नहीं गया है। लगता है कि बस मुक्ति मिले। पहले उर्मिला की चिंता होती थी। अब शरीर इतना टूट गया है कि वह चिंता भी नहीं रही। लगता है कि जो भगवान चाहेंगे वही होगा।"
"अंकल इस तरह निराश मत होइए। सब ठीक होगा।"
योगेश ने दुखी होकर कहा,
"बेटा कभी जीवन में निराश नहीं हुआ था। जवान बेटा चला गया था तब भी खुद को संभाल लिया। उर्मिला की बीमारी से भी निराश नहीं हुआ। पिछली बार भी जब अस्पताल गया था तो उम्मीद थी कि लौटकर आऊँगा और उर्मिला के साथ चैन से रहूँगा। पर अब नहीं। अब बस लगता है कि सब छोड़कर भगवान के पास चला जाऊँ।"
योगेश की यह हालत देखकर नंदिता दुखी हो रही थी। योगेश ने समझाया,
"हमारी चिंता छोड़ो। मैंने और उर्मिला ने अपनी ज़िंदगी जी ली है। अब तुम अपनी ज़िंदगी जिओ। तुमने बच्चे के बारे में बताया था। भगवान करे वह स्वस्थ रहे। तुम्हें और मकरंद को जीवन की सारी खुशियां मिलें।"
नंदिता ने उठकर उनके पैर छुए। उसे देखकर मकरंद ने भी पैर छुए। नंदिता ने कहा,
"अब मैं आपके हालचाल लेती रहूँगी।"
"परेशान मत होना। अपने नए घर में नई शुरुआत करना। मैं तो यही सोचकर खुश रहूँगा कि तुम मेरे बारे में सोचती हो। कल मैं अस्पताल में भर्ती होने जा रहा हूँ। देखो क्या होता है।"
इस बार मकरंद ने कहा,
"नंदिता ठीक कह रही है। हम दोनों आपका हालचाल लेते रहेंगे। चिंता मत करिए आप ठीक हो जाएंगे।"
नंदिता और मकरंद कुछ देर उनसे बात करके चले गए। योगेश को उनका आना अच्छा लगा था। सुदर्शन उनके पास ही ठहरा हुआ था। उसे ही उन्हें अस्पताल ले जाना था। योगेश ने उससे कहा,
"सोच रहा था कि कल अस्पताल जाने से पहले उर्मिला से मिल लूँ। फिर पता नहीं मिलना हो या ना हो।"
सुदर्शन ने कहा,
"कल अस्पताल चलने से पहले आंटी से मिल लीजिएगा‌। उसके बाद अस्पताल चले जाइएगा।"
योगेश ने एक आह भरी। उसके बाद सुदर्शन की मदद से बेडरूम में चले गए।

योगेश तैयार बैठे थे। सुदर्शन ने बताया कि कैब कुछ ही देर में आने वाली है। योगेश ने लिविंग रूम में चारों तरफ निगाह डालते हुए कहा,
"एकबार पूरा घर दिखा दो।"
सुदर्शन ने उन्हें सहारा दिया और फ्लैट के हर हिस्से में ले जाने लगा। योगेश की आँखें नम थीं। पूरा फ्लैट देखने के बाद बोले,
"तुम्हें चाभी दे जा रहा हूंँ। आकर देखते रहना।"
सुदर्शन ने कहा,
"आप निश्चिंत रहिए। अब नीचे चलिए। कैब बस आने वाली होगी।"
सुदर्शन ने उन्हें लेकर नीचे चला गया।

नंदिता और मकरंद को शिफ्ट हुए पंद्रह दिन हो गए थे। मकरंद अब कुछ कुछ एडजस्ट होने लगा था। वैसे तो उनके पोर्शन में किचन था। मकरंद ने सारा सामान भी लाकर रखा था। लेकिन उन दोनों का खाना नीचे ही होता था। इस समय भी उन्हें खाने के लिए नीचे जाना था। मकरंद को यह कुछ ठीक नहीं लग रहा था। उसने नंदिता से कहा,
"खाना खाने नीचे जाना ठीक नहीं है। हम लोग यहीं बना लिया करेंगे।"
नंदिता को उसकी बात अच्छी नहीं लगी। उसने कहा,
"इसमें गलत क्या है ? हम लोग पड़ोसी के घर खाना खाने थोड़ी ना जाते हैं। अपने मम्मी पापा के साथ खाने में क्या परेशानी है।"
"तो फिर कभी तुम भी उन्हें खाने के लिए बुलाओ।"

नंदिता ने चिढ़कर कहा,
"मकरंद प्लीज़....तुम इस सबमें मत पड़ो। मम्मी ने खुद मुझसे कहा है कि इस हालत में नौकरी कर रही हो पर बाकी के काम करने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए तुम परेशान मत हो।"
मकरंद को उसकी बात बुरी लगी। उसने कहा,
"बात सिर्फ खाने की ही नहीं है। इस पोर्शन की साफ सफाई के लिए मेड को पैसे देने की बात कही तब भी तुमने यही कहा था कि तुम इसमें मत पड़ो।"
"इसलिए क्योंकी हमारे आने से पहले भी मेड यहाँ साफ सफाई करती थी।"
"तब बात अलग थी। पर अब हम रहते हैं। हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम यहाँ की साफ सफाई के लिए मेड को पैसे दें।"
नंदिता ने कमर मे हाथ रखकर गुस्से में कहा,
"मुझे तो तुम्हारी बातें ही समझ नहीं आ रही हैं। पहले खर्चों को लेकर परेशान रहते थे। अब पैसे बच रहे हैं तब भी परेशान हो।"
मकरंद कुछ देर उसे देखता रहा। उसके बाद बोला,
"तुम मुझे समझ ही नहीं पाई हो। मैं पैसे बचाना चाहता हूंँ। पर किसी और की जेब से अपने खर्चे नहीं चलाना चाहता हूंँ।"
नंदिता कुछ कहती तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। नंदिता ने जाकर दरवाज़ा खोला। उसके पापा खड़े थे।