जमनादास की बातें सुनकर अमर अभी कुछ जवाब देना ही चाहता था कि तभी पास खड़े चौधरी रामलाल जमनादास का अभिवादन करते हुए बोले, "आप जानते हैं अमर को ?"
"हाँ चौधरी साहब ! अमर को पहले से ही जानता हूँ लेकिन अब पहचान भी गया हूँ इसकी असलियत। सच.. इतने दिनों से मुझे इसके बारे में कुछ भी तो पता नहीं था। खैर ! वो बात फिर कभी आपसे करूँगा, लेकिन अभी तो मेरे मन में जो सवाल उमड़ घुमड़ रहे हैं मुझे उनके जवाब तलाशने हैं। जानता हूँ अमर के पास कोई जवाब नहीं होगा इसलिए मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि ये जो आपके पड़ोस में मास्टर रामकिशुन रहते थे, वो कहाँ गए ?" जमनादास ने याचना भरे स्वर में चौधरी रामलाल से पूछा।
चौधरी रामललाल ने नजदीक पड़ी हुई खटिया जमनादास जी के नजदीक खींचकर उस पर बैठते हुए ध्यान से उनको ऊपर से लेकर नीचे तक देखा। ऐसा लग रहा था जैसे वह उनको पहचानने का प्रयास कर रहे हों और फिर अगले ही पल जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो, बडी ही रहस्यभरी आवाज में बोले, "आप शायद गोपाल बाबू के दोस्त हैं। गोपाल बाबू को तो नहीं भूले होंगे आप ?"
"हाँ, सही पहचाना आपने ! मैं ही हूँ गोपाल का दोस्त जमनादास !" आश्चर्यचकित स्वर में जमनादास ने रामलाल का समर्थन करते हुए उसे जवाब दिया।
मंद मंद मुस्कान चेहरे पर लिए हुए रामलाल बोले, "रावण हजारों साल पहले हुआ था। किसी ने उसे नहीं देखा लेकिन सब उसे जानते हैं। इतना तो आप जानते ही होंगे और शायद मानते भी होंगे कि रावण को चेहरे से नहीं उसके कर्मों की वजह से याद किया जाता है। उससे नफरत की जाती है, उसका पुतला दहन किया जाता है जबकि वह एक महान विद्वान पंडित था। उसका एक बुरा कर्म उसकी सभी अच्छाइयों को लील गई और उसे बना दिया मानव सभ्यता का सबसे बड़ा खलनायक ! कहने की जरूरत नहीं कि इस गाँव और इसके आसपास के इलाकों में आपकी ख्याति भी कुछ इसी तरह फैली हुई है सेठजी !" बात खत्म करते हुए चौधरी रामलाल के चेहरे पर आश्चर्यजनक परिवर्तन नजर आने लगा था। मंद मुस्कान की जगह अब गुस्से और गम की परछाईं साफ झलक रही थी उनके चेहरे पर।
इतना सब कुछ सुनने के बाद भी जमनादास बेहद शांत नजर आ रहे थे और अमर यह सब देखकर हतप्रभ था। उसे अच्छी तरह पता था कि सेठ जमनादास के सामने कोई ऊँची आवाज में बात भी नहीं कर सकता था, बेअदबी और लापरवाही तो उन्हें किसी की पसंद नहीं थी। उनके नाम से ही उनके कर्मचारियों में घिग्घी बँध जाती थी। उनके सभी कार्य पूरे अनुशासन में होते थे और शायद यही उनकी कारोबारी सफलता का राज रहा हो, लेकिन आज अमर उनके दूसरे ही रूप का दीदार कर रहा था।
अपनों का स्नेह जहाँ एक संबल प्रदान करता है वहीं वह कई जगहों पर मनुष्य की कमजोरी भी साबित होता है। जमनादास भी इस समय अपनों के स्नेह की वजह से ही कमजोर दिखाई पड़ रहे थे और शांत चित्त होकर एक साधारण से किसान की झिड़कियाँ सुनकर भी तनिक भी क्रोधित नहीं थे, उल्टे सहज बने हुए थे। ये वही जमनादास थे जिनके कदमों में छुटभैये नेता और अफसर हमेशा बिछे रहते थे।
उसी तरह शांत और संयत होकर जमनादास जी बोले, "मैं आपकी पीड़ा को समझ सकता हूँ। गाँव में लोग कैसे एक दूसरे से दिल से जुड़े हुए होते हैं यह मैंने गोपाल के साथ शहर के लिए रवाना होते हुए प्रत्यक्ष अनुभव किया है। सैकड़ों ग्रामवासियों की भीड़ हमें विदा करने के लिए गाँव के चौराहे तक आई थी जहाँ हमारी कार खड़ी थी। उस समय उन गाँववालों की निगाहों में गोपाल के लिए जो प्रेम नजर आ रहा था वह देखकर एक बार तो मैंने भी यह मान लिया था कि ऐसे में गोपाल को यहाँ से ले जाना कत्तई उचित नहीं है लेकिन मैं भी क्या करता ? उस समय तक मुझे गोपाल की माताजी के बारे में सही जानकारी नहीं थी। मैं यही समझ रहा था कि एक बीमार माँ से उसके जिगर के टुकड़े को मिलवाने का बड़ा ही पुण्य कार्य मैं कर रहा हूँ, लेकिन जब तक उनकी असलियत मेरे सामने आती बड़ी देर हो चुकी थी। एक तूफान गुजर चुका था जिसने लील लिया था गोपाल और साधना की हँसती खेलती जिंदगी। उस डायन की जिसे माँ कहना भी माँ शब्द की पवित्रता को कलंकित करने जैसा होगा, उस पिशाचिनी की सच्चाई जानकर और स्वयं को विवश मानकर मैंने उनसे संपर्क ही खत्म कर लिया और अपनी जिंदगी में रम गया था। मुझे यह याद ही नहीं रहा कि मेरे हाथों जाने अंजाने गोपाल और साधना के जीवन में जो दखलंदाजी हुई उसका नतीजा क्या रहा ? जानता भी कैसे ? मेरा जिगरी दोस्त गोपाल उसके बाद इलाज के लिए अमेरिका रवाना हो गया था। उससे संपर्क का कोई जरिया ही नहीं बचा था।
पाँच साल बाद जब वह वापस लौटा तो उसकी शादी हो चुकी थी सुशीलादेवी से और एक प्यारा सा बच्चा भी उसकी गोद में था। मुझे वह खुश नजर आ रहा था इसलिए मैंने उससे साधना के बारे में कुछ नहीं पूछा। हमारी जिंदगी यूँ ही चलती रही। हम अपने अपने कारोबार में व्यस्त और अपने परिवार में मस्त हो गए थे। हालाँकि कई मौकों पर गोपाल का अजीब सा व्यवहार मुझे यह सोचने पर मजबूर करता कि शायद वह खुश नहीं है लेकिन अपनी मर्यादा समझकर मैंने कभी उसके निजी जीवन में झाँकने का प्रयास नहीं किया।
हम भले कुछ भूल जाएं लेकिन कुदरत कुछ नहीं भूलती। देर से ही सही लेकिन इंसाफ सबके साथ करती है। दोषियों को सजा भी देती है और पीड़ितों के जख्मों पर मलहम भी वह अपने तरीक़े से ही लगाती है। भले देर से ही सही लेकिन कुदरत ने वह परिस्थितियाँ बना दी हैं जिससे अब साधना को इंसाफ मिलने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। आपको पूरा हक है मुझसे नफरत करने का लेकिन मैं आपको यकीन दिलाना चाहता हूँ कि साधना को इंसाफ दिलाने के जंग में मैं आपके साथ हूँ। शायद यही जाने अंजाने मेरे हाथों होनेवाले पापों का प्रायश्चित हो।"
कहने के बाद जमनादास कुछ पल के लिए खामोश हो गए। यह सब कहते हुए वह बेहद भावुक नजर आ रहे थे। उनकी आवाज भी भर्रा गई थी।
अपने आपको संयत करते हुए उन्होंने आगे कहा, " साधना को इंसाफ दिलाने की जंग में मुझे आपके मदद की जरूरत है भाईसाहब ! क्या आप मेरी मदद नहीं करना चाहेंगे ? यदि हाँ, आप मेरी मदद करना ही चाहते हैं तो कृपया मुझे मेरे कुछ सवालों का जवाब देने का कष्ट करें।" कहते हुए जमनादास के दोनों हाथ स्वतः ही रामलाल के सामने जुड़ते चले गए।
उनकी बात सुनकर चौधरी रामलाल भी भावुक हो उठे थे। प्यार से जमनादास का दोनों हाथ थामते हुए बोले, "सेठ जी ...!"
अभी वह और कुछ कहना ही चाहते थे कि जमनादास ने शीघ्रता से उनकी बात काटते हुए कहा, "भाईसाहब, हाथ जोड़कर निवेदन है अब सेठजी कहकर मुझे और शर्मिंदा न करें। मैं तो यहाँ याचक बनकर आया हूँ।"
क्रमशः