ममता की परीक्षा - 85 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 85



सेठ जमनादास को अपनी तरफ बढ़ते देखकर अमर अपने होठों पर उँगली रखकर बिरजू को खामोश रहने का इशारा करते हुए एक ही पल में दालान में पहुँच गया। दरअसल वह अभी जमनादास की नजरों के सामने नहीं पड़ना चाहता था।
दालान में दरवाजे के पीछे से झाँककर वह बाहर खड़े बिरजू को देख रहा था जो अभी भी वहीं खड़ा था।

उसने देखा अब जमनादास बिरजू के एक दम करीब आ गए थे। उनकी चाल से निराशा झलक रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे बहुत परेशान हों। नजदीक आकर उन्होंने बिरजू से प्यार से पूछा, "बेटा, तुम तो इसी गाँव के लगते हो। जरा मेरी मदद करो। यहीं कहीं मास्टर रामकिशन रहा करते थे। क्या तुम उनको जानते हो ?"

"कौन मास्टर ? वही न जो गाँव के स्कूल में पढ़ाते थे ?" बिरजू ने और स्पष्ट करने की नीयत से पूछा।

"हाँ बेटा, वही ! उनकी एक बेटी भी थी।" जमनादास ने उम्मीदभरे स्वर में बताया।
बिरजू ने बगल में अधपक्के मकान की तरफ इशारा करते हुए बताया ,"वो देखिए ! वो रहा मास्टर रामकिशन का घर.. लेकिन अब तो वहाँ आपको कोई नहीं मिलेगा। किससे मिलना था आपको ?"

जमनादास ने उसकी उँगली के इशारे की तरफ देखा और कुछ पहचानने का प्रयास करने लगा। उस आधे ध्वस्त मकान की तरफ देखकर कुछ देर तक वह अपने दिमाग पर जोर डाल कर कुछ याद करने का प्रयास करते रहे। कुछ ही देर में उन्हें मकान का आगे का हिस्सा कुछ जाना पहचाना सा लगने लगा।

वह उसकी तरफ बढ़ ही रहे थे कि बिरजू ने उन्हें आवाज लगाई, "अंकल, लगता है आप सीधे शहर से ही आ रहे हैं। इस यात्रा में आप काफी थक गए होंगे। आइये, यहाँ आइये।"

फिर नजदीक ही पड़ी खाट बिछाते हुए बोला, "कुछ देर बैठिए, आराम कीजिये। पानी वानी पीजिए। उनके बारे में आपको पूरी जानकारी मिल जाएगी। मैं आपको पूरा सही सही नहीं बता पाऊँगा क्योंकि मेरे पैदा होने के पहले से ही यह घर वीरान पड़ा है। पापा आते ही होंगे खेत से। वह आपको सारी जानकारी दे देंगे उनके बारे में।"

उसका आग्रह मानकर जमनादास जी खटिये पर बैठ गए। बिरजू पानी लाने के लिए घर में घुस ही रहा था कि दालान में दरवाजे के पीछे छिपा अमर उसके नजदीक आकर फुसफुसाया, "अरे तू ये क्या कर रहा है बिरजू ? जल्दी से बात करके हटा उसको ! अनजान आदमी है, घर पे अधिक देर तक बिठाना ठीक नहीं।'

बिरजू धीमे पर स्पष्ट स्वर में बोला, " मैं तो घर आये मेहमान का स्वागत कर अपनी संस्कृति और धर्म का पालन कर रहा हूँ, लेकिन मेरी ये समझ में नहीं आ रहा कि आप उससे छिप क्यों रहे हो ? कोई गड़बड़ तो नहीं ?"

" बिरजू...!" अमर ने बहुत ही धीमे स्वर में अपना प्रतिरोध दर्ज कराया जिसे महसूस करके बिरजू एकदम से सकपका गया।
तुरंत ही हाथ जोड़ते हुए आँगन की तरफ भाग गया और बोरिंग से ताजा जल लोटे में भरकर वह पुनः बाहर सेठ जमनादास के पास आ गया।

उसकी माँ ने एक प्लेट में गुड़ की एक डली उसे दे दी थी जो बिरजू ने जमनादास की बगल में खटिये पर रख दिया।

जमनादास ने लोटे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक बिरजू उन्हें टोक पड़ा, "अंकल ! गुड खा लीजिये न ! हमारे यहाँ गाँव में रिवाज है बिना मीठा खाये पानी नहीं पीते।"

"ओके बेटा !" कहने के साथ ही जमनादास जी ने प्लेट में रखे गुड़ के टुकड़े को तोड़कर उसमें से एक छोटा टुकड़ा उठा लिया । गुड़ खाते हुए भी उनकी नजर सामने ही थी। तभी खेतों के बीच बने मेड़ों पर से सँभल कर आ रहे चौधरी रामलाल जी उन्हें नजर आ गए।
उनकी तरफ देखते हुए बिरजू बोला, "लो, पापा भी आ गए।"

सेठ जमनादास को देखकर रामलाल ने हाथ उठाकर उनका अभिवादन किया और फिर अपने कंधे पर रखे अँगोछे को उठाकर जमीन पर रखते हुए बिरजू की माँ को आवाज लगाई, "बिरजू की माँ ! देखो मैं खेतों में से थोड़ी सी मटर की फलियाँ ले आया हूँ। इसकी अच्छी सी सब्जी बनाकर अमर को खिलाना। शहर में ताजी सब्जी के लिए तरस गया होगा बेचारा।"

फिर इधर उधर देखते हुए बोले, "अरे, अमर कहीं नजर नहीं आ रहा। कहाँ गया ?"

तभी बिरजू की माँ ने दालान में खड़े अमर को देख लिया। रामलाल जी को इसकी जानकारी देने की नीयत से बोली, "अजी, अमर कहीं नहीं गया है। तैयार होकर जा ही रहा था थानेदार से मिलने कि तभी बिरजू आ गया और वह रुक गया।"

उनकी बातें सुनकर जमनादास का माथा ठनका और अभी वो कुछ बोलते या पूछते उससे पहले ही अमर उन्हें दालान में से बाहर निकलते हुए दिख गया।
उनके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित खुशी छलक पड़ी। अमर को देखते ही वह एक झटके से खटिये से ऊठकर खड़े हो गए। ऐसा लग रहा था जैसे उनके शरीर में स्प्रिंग लग गई हो।

अमर ने भी चेहरे पर हैरानी का भाव लाते हुए जमनादास का इशारे से ही अभिवादन किया और फिर नजदीक जाकर बोला, "अरे अरे सेठजी, आप क्यों उठकर खड़े हो गए ? आप आराम से बैठिए.. लेकिन आप यहाँ कैसे ?"
जमनादास ने बड़े प्रेम से अमर का हाथ थाम कर उसे अपने पास बिठाते हुए बोला, "यही सवाल तो तुम्हें यहाँ देखकर मेरे मन में भी उठ रहा है कि तुम यहाँ कैसे ?"

अमर के होठों पर मुस्कान गहरी हो गई।
"सेठजी, आपने मुझसे शहर की सीमा से दूर चले जाने को कहा और मैंने आपसे वादा भी कर लिया था। उसी वादे के मुताबिक कहीं दूर अनजान जगह सबसे दूर चले जाने का मैं मन बना चुका था लेकिन फिर चौधरी काका की याद आ गई और यहाँ आ पहुँचा। यहाँ आने पर मुझे पता चला कि यहाँ तो बसंती मेरी बहन की राखी का कर्ज है मुझ पर, और जब तक मैं यह राखी का कर्ज चुका नहीं लेता मुझे यहीं रहना होगा सेठजी ! लेकिन हाँ, जैसा कि मैं आपसे पहले भी वादा कर चुका हूँ जैसे ही मेरा यह जरूरी काम समाप्त हो जाएगा मैं आपकी नजरों से और आपके शहर से दूर कहीं किसी अनजान दुनिया में चला जाऊँगा ताकि आपको मुझसे कोई शिकायत नहीं रहे।"

अमर बोले जा रहा था और जमनादास लगातार उसकी तरफ ही देखे जा रहे थे। उसकी तरफ देखते हुए उनके मन में तरह तरह के भाव उभर रहे थे जिनसे भरसक उबरने की कोशिश करते हुए अपने मानसिक अंतर्द्वंद के भंवर में फंसे जमनादास यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर वह अमर का सामना कैसे करें ? अब उनके अंदर एक बहुत बड़ा बदलाव आ गया था जिसे वह खुद ही महसूस कर पा रहे थे जबकि उनके मनोभावों से अनजान अमर उनके चेहरे के भावों को पढ़कर कुछ समझने का प्रयास कर रहा था। सेठ जमनादास अब सेठ जमनादास नहीं एक बेटी के पिता की भूमिका में नजर आ रहे थे।

प्यार से नजदीक बैठे अमर के दोनों हाथों को अपने हाथों में थामते हुए बोले, "बेटा...!" और फ़िर कुछ आशंकित होते हुए भावुक स्वर में बोले, "माफ करना अमर, तुमसे पूछे बिना ही मेरे मुँह से तुम्हारे लिए बेटा निकल गया। क्या मैं तुम्हें बेटा कह सकता हूँ ?"

" हाँ..हाँ सेठजी, क्यों नहीं ? आप बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं। आप कुछ भी कह सकते हैं।" अमर ने भी मुस्कुराते हुए ही जवाब दिया।

खुशी के मारे जमनादास की आँखें छलक पड़ने को बेताब हो रही थीं लेकिन उन्होंने बड़ी जतन से अपने मनोभावों पर काबू पाया हुआ था। लाख प्रयास के बावजूद अपने हाथों को कंपकंपाने से नहीं रोक पाए थे सेठ जमनादास।

काँपते हाथों से अमर के कंधे पर हाथ रखते हुए वह बोले, "बेटा ! मैं जानता हूँ कि तुम दिल से मुझे कभी माफ नहीं कर पाओगे, लेकिन फिर भी चाहता हूँ कि तुम मुझे सेठजी नहीं अंकल बोलो। बोलो ! पुकारोगे न मुझे अंकल ?"

क्रमशः