बेमेल - अंतिम भाग Shwet Kumar Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बेमेल - अंतिम भाग

“सुलोचना, मां के ये जेवर अभी भी जौहरी काका के पास गिरवी पड़े हैं। हम इन्हे वापस नहीं ले सकते! आज अगर मां जीवित होती तो बिना कर्ज चुकाए वह भी इसे स्वीकर नहीं करती। इसलिए अभी इन्हे वापस कर दो। पूरी रक़म अदायगी कर हम इन्हे वापस ले जाएंगे।”- विनयधर ने अपनी पत्नी सुलोचना से कहा।
विनयधर की बातें सुनकर जौहरी की आंखें भर आयी। उसने तो आजतक यही सीखा था कि पैसे और जेवर जहाँ से भी आ रहे हो, बिना कुछ सोचे-विचारे अपने कब्जे में कर लो। पर उसे कहाँ पता था श्यामा के समान उसके बच्चे भी इतने खुद्दार निकलेंगे।
“नहीं बेटा, तुम मेरे बच्चों के समान हो। पूरे गांव की मदद करके श्यामा मां ने सारे कर्ज से छूटकारा पा लिया। ये जेवर अब तुम्हारे जिम्मे सौंप रहा हूँ, इन्हे सम्भाल कर रखना!”- जौहरी ने कहा लेकिन विनयधर ने बिना कर्ज चुकाए उसे स्वीकर करने से साफ इंकार कर दिया।
“श्यामा खुद खुद्दार थी और अपने बच्चों में भी उसने यह गुण कूट-कूट कर भरा है। क्या बेटी और क्या जमाई! विनयधर बाबू सही कह रहे हैं मंगल! अभी ये जेवर तुम अपने पास ही रखो!”- वहां मौजुद मुखिया ने जौहरी से कहा और उसने गहनों की पटली वापस ले ली।
पूरे गांववालों ने फिर श्यामा को भावभीनी विदाई दी। जब श्यामा को मुखाग्नि देने की बात उठी तो मुखिया की आंखें विनयधर पर आकर टिक गई।
“नहीं मुखिया काका! ये हक़ मेरा नहीं किसी और का है और मैं उससे ये कभी छीन नहीं सकता!”- विनयधर ने कहा तो मुखिया सहित वहां मौजुद पूरी भीड़ की कौतुक निगाहें उसपर टिक गयी। श्यामा का न तो कोई बेटा था और न ही उसका पति मनोहर अब इस दुनिया में मौजुद था। अत्येष्ठि तो केवल पुरुष देते हैं फिर विनयधर के अलावा कौन था जो श्यामा की चिता को मुखाग्नि देता?
“बेटा विनयधर, श्यामा मां की अंत्येष्ठि का हक़ सिर्फ तुम्हारा है! चलो उठो, श्यामा मां को इस दुनिया से अंतिम विदाई देने का समय आ गया है!”- मुखियाईन ने कहा तो विनयधर की आंखें अपनी पत्नी सुलोचना पर स्थिर हो गयी। गोद में श्यामा की नवजात को लिए सुलोचना ने अपने पति के मन की बात पढ़ ली थी।
“काकी, मां की अंत्येष्ठि मैं नहीं बल्कि सुलोचना करेगी।” – विनयधर ने कहा तो गांववालों के बीच कानाफुसी होनी शुरू हो गई।
“सुलोचना ही अपनी मां को मुखाग्नि देगी! आखिर वही तो अपनी मां की सबसे बड़ी संतान है। उसके रहते मैं मां की अंत्येष्ठि कैसे कर सकता हूँ!”
“पर बेटा, कोई स्त्री किसी शव को मुखाग्नि कैसे दे सकती है?? स्त्रियों को तो श्मशान भूमि पर जाने की भी मनाही है!”- मुखिया ने कहा और उसकी सवालिया निगाहें विनयधर पर टिकी रही। आजतक गांव में किसी भी शव को न तो किसी स्त्री ने मुखाग्नि दी थी और न ही उसकी अंत्येष्ठि में शामिल हुई थीं। गांववालो के लिए यह पहला मौका था जब वे किसी स्त्री को अंतिम संस्कार में शामिल होते देखने वाले थे।
इससे पहले कि कोई कुछ बोलता, भीड़ में खड़ी सभी स्त्रियां आगे बढ़ने लगी जिनमें मुखिया की पत्नी भी शामिल थी।
“आज जमाना बदल रहा है। अब औरतें भी पुरुषों के समान कदम से कदम मिलाकर चलने लगी है। खुद श्यामा मां इस बात की जीती-जागती गवाह हैं! फिर माता पिता के मुखाग्नि के अधिकार तो उसके बड़े बच्चे का ही तो होता है। अगर सुलोचना अपनी मां को मुखाग्नि देगी तो हमें इसमें कोई बुराई नहीं दिखती!”- मुखिया की पत्नी ने दृढ़ता से कहा तो गांव की सभी स्त्रियों ने भी अपनी सहमति जतायी।
“मुखिया काका, उम्र में तो मैं आप सबसे छोटा हूँ! मुझे नहीं पता, मैने जो बातें कहीं वो सही है या गलत! पर यह जरुर जानता हूँ कि सुलोचना के हाथों मुखाग्नि पाकर मां की आत्मा को शांति मिलेगी!”- विनयधर ने कहा और उसकी आंखें भर आयी।
मुखिया ने भी विनयधर की बातों पर सहमति जतायी। फिर सुलोचना के हाथों श्यामा के मृत शरीर का शवदाह हुआ। यही नहीं यह पहला मौका था जब गांव की स्त्रियां भी शवदाह कार्यक्रम में शामिल हो रही थीं। भींगी पलकों से सबने श्यामा को अंतिम विदाई दी।
गांववालों के अनुरोध पर मुखिया ने गांव के बीच चौपाल पर श्यामा की प्रतिमा स्थापित करवायी जिसपर मोटे-मोटे अक्षरों में श्यामा मां उंकेरा था।
श्यामा की नवजात बेटी को सुलोचना एक पल के लिए भी अपने से अलग न करती। मां के अंतिम क्रियाक्रम से निपटकर जब सुलोचना और विनयधर के घर लौटने की बारी आयी तो मुखिया ने हवेली की चाभी सुलोचना के हाथो में सौंप दिये।
“काका, ये गांव मेरा मायका है। मेरा असली घर तो मेरे पिया का घर है जो दूसरे गांव में है। फिर मैं इस हवेली की हक़दार कैसे हो सकती हूँ!! इस हवेली के असली मालिक तो इस गांव के लोग हैं! इसलिए सही तो यही होगा कि आप हवेली को अपने जिम्मे रखें और पंच के कामकाज उसी हवेली से चलाएं। अगर कोई समस्या आन खड़ी हो तो मुझे खबर करें- जितना बन पड़ेगा मैं अपने तरफ से उसका निदान करने की कोशिश करुंगी!”- कहकर सुलोचना ने अपने पति की तरफ देखा तो उसने भी सहमति में अपना सिर हिला दिया।
पूरा गांव आज सुलोचना को उसके मायके से विदा करने आया था। ये वही गांववाले थे जिन्होने कभी इसी सुलोचना को मनहूस होने का तम्मगा पहनाया था। पर अपने व्यवहार से सुलोचना ने न केवल पूरे गांववालों का दिल जीत लिया बल्कि उनके दिलो-दिमाग में जा बैठी थी। पर इस वक़्त सुलोचना को किसी बात की चिंता सता रही थी तो वह थी श्यामा के नौनिहाल के पालन-पोषण की चिंता।
“क्या मैं इस बच्ची को अपनी बच्ची बनाकर पाल सकती हूँ?”- अपने पति विनयधर पर नज़रें टिकाए सुलोचना ने पुछा।
“ऐसे सवाल करके मुझे मेरी नज़रों से मत गिराओ! बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं और भगवान का अनादर नहीं किया जाता। आज से ये हमारे घर की ही एक सदस्य होगी।”- विनयधर ने कहा और हाथ जोड़कर गांववालों से जाने की अनुमति मांगी तो गांववाले के हाथ भी जुड़ गये।
सुलोचना के सीने से लगी श्यामा की नौनिहाल उसके चेहरे पर नज़रे टिकाए अपना अंगुठा चूस रही थी। अपने और उस नवजात संग रिश्ते की परिभाषा तलाशती सुलोचना के क़दम पति संग गांव की सीमा पर बढ़ने लगे थे। अपने ससुराल की ओर बढ़ती सुलोचना ने आखिरकार उस नवजात संग रिश्ते की परिभाषा पा ही ली और यह रिश्ता था, हर सम्बंध से ऊपर उठकर ‘मानवता का रिश्ता’

॥ इतिश्री ॥