कोयला भई ना राख--(अन्तिम भाग) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोयला भई ना राख--(अन्तिम भाग)

स्त्री का घर नहीं होता, वो तो शरणार्थी है. ये सब बचपन से सुनते आ रही थी कि बेटी पराया धन है, बेटे वंशधर होते है,स्त्री के पास अपना कुछ नहीं होता-ना घर ना सरनेम ना परिवार ना इज़्ज़त ना जाति ना धर्म, सब कुछ पुरुष का दिया हुआ, बहुत घबराहट-सी थी मन में पर मैं तो एक मिशन पर निकली थी इससे मन के सारे दूराग्रहों को निकाल फेंक लम्बी सांस ले तन कर बैठ गई, एयरकंडिशन क्लास में बैठने का ये पहला मौक़ा था, रास्ते भर बचपन हिलोरे लेता रहा, कब मुंबई सेंट्रल स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला,मुझसे फ़ोन पर ही हिदायत दी गई थी की ये इस ट्रेन का आख़िरी पड़ाव है, इससे मैं अपनी सीट पर ही बैठी रहूंँ वो मुझे आ कर ले जाएंगे, मैं अपनी सीट पर बैठी ही थी और वे लोग आ कर मुझे अपने घर ले गए,


रास्तेभर कार में वे दोनों बातें करते रहे कि मैं उनके साथ रहूंगी इसकी भनक भी पड़ोसी को नहीं होनी चाहिए, वे लोग पूरी प्रक्रिया को गोपनीय रखना चाहते थे,शायद बाद में बाहर ये बताना चाहते हो कि बच्चा मैडम की कोख से ही बाहर निकला है,फिर साथ में रहने से पता चला कि वे मुंबई से भी नहीं है, किसी बाहर गांव से आए हैं,अगले दिन श्रीमान ही अकेले मुझे उस सेंटर लेकर गए,डाँक्टर ने मेरी माहवारी के बारे में पूछा और सारे ब्लड टेस्ट कराए,घर आ कर दीदी यानी श्रीमती ने मुझे समझाया कि मैं किसी से कोई बात ना करूं, मुझे तुरंत दो लाख रुपए घर भिजवाने के लिए दे दिए, मुझे बड़ी राहत मिली और अच्छा भी लगा,दीदी बड़ी भली थीं और मेरा बड़ा ख़याल रखती थी, मैं तो उन्हें दीदी-भैया कह पुकारती थी,दीदी और भैय्या का प्यार देख मुझे दुःख भी होता था कि क्यों ईश्वर ने उन्हें ये मजबूरी दी,


भइया दीदी को डार्लिंग और दीदी उन्हें कभी जानू तो कभी जान कह के पुकारती थीं, एक बार मैंने उनसे बात करने की कोशिश की तो दीदी ने बड़े प्यार से समझाया कि इसमें मेरी ही भलाई है कि मैं कुछ ना जानू सिर्फ़ पैसे से ही मतलब रखूं,मैंने भी सोचा कि सचमुच इसमें ही मेरी भलाई है,वे लोग अच्छे लोग थे, वो मेरी पहचान को भी छुपाए रखना चाहते थे, पैसे वाले लोग थे इससे बम्बई शहर में रहने में भी कोई दिक़्क़त नहीं थी, आख़िर वो दिन आ ही गया जिस दिन का उन्हें बेसब्री से इंतज़ार था,मुझे फ़र्टिलिटी सेंटर जाना था वहां मुझे उन महाशय के शुक्राणु इंजेक्ट करवाए जाने थे,


मैं दीदी और भैय्या के साथ बॉम्बे के उस पॉश इन्फ़र्टिलिटी सेंटर पहुंची, वहां इतने सारे लोगों को देखकर मैं कुछ सोचने लगी,तभी अचानक ज़ोर की अवाज़ सुनाई दी,“क्या हुआ क्या सोच रही हो रही हो? अपने आप को संभाल कर मैंने जवाब दिया.....


“डर लग रहा है दीदी!


यहां मेरी पहचान किसी और नाम से थी,’मेरा ख़ून लेकर फिर मुझे वहां बेंच पर बैठ प्रतीक्षा करने को कहा, इस बीच दोनों पति-पत्नी वहां से उठकर बाहर चले गए, मन ने कहा शायद अपनी पहचान छुपाने के लिए ऐसा कर रहे थे, तभी किसी जूनियर डॉक्टर की ज़ोर की आवाज़ आई,


‘‘पेशेंट नम्बर फोर्टी टू ऑल रिपोर्ट्स नॉर्मल, ब्लड ग्रुप बी पॉज़िटिव, वी केन टेक हर,


” बड़ी डॉक्टर ने उसी जूनियर डॉक्टर को ऑर्डर दिया,“अरे हसबेंड को बुलाओ स्पर्म कलेक्ट करना है, और पेशेंट को प्रोसिजर रूम में ले लो, ओव्युलेशन चेक करना है.”मुझे तो काटो तो ख़ून नहीं, इन लोगों का तो रोज़ का काम है,मेरी तो जान सूखे जा रही थी, तभी किसी ने आकर मेरा हाथ दबा कर ढाढ़स दिया, सिर उठाकर देखा तो दीदी थीं, लगातार मेरे बालों को सहलाने लगी, तभी वही जूनियर डॉक्टर ज़ोर से चिल्लाई,“


परफ़ेक्ट ओव्युलेशन बस कभी भी हो सकता है....


दीदी के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ने लगी,पहले मुझे ये सब नहीं पता था कि स्त्री के ओवम को गर्भाशय से बाहर निकाल पुरुष के स्पर्म के साथ मिला एक ज़ाइगोट (छोटा शिशु) बना फिर सरोगेट मदर के गर्भाशय में नौ महीने के लिए रखा जाता है, यानी उधार की कोख, यहां तो मेरा ओवम भी शामिल था एक नए जीवन को रचने में मतलब मैं ना केवल सरोगेट बल्कि सचमुच की मांँ बनने वाली थी, ”मैं भूल गई कि मैं कहाँ हूंँ और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी ,दीदी का चेहरा उतर गया और थोड़ा ग़ुस्सा भी उनके चेहरे पर झलकने लगता है,थोड़े प्यार और थोड़े ग़ुस्से से मुझे डांट लगाई,“व्हाट इज़ दिस ? यू नो एवरी थिंग राइट, फिर ये रोना धोना क्यों?फिर मैंने रोते-रोते दीदी से माँफी माँगी, किसी तरह मन को समझाया कि किसी ग़ैर मर्द के स्पर्म से अपने ओवम का मिलन कराना शायद मेरी नियति थी,


चार पांच जूनियर डॉक्टर मुझे घेर कर खड़े हो गए, मुझे दोनों पैरों को दूर-दूर फैलाने कहा गया,एक डॉक्टर के हाथ में सीरिंज थी और उसके अंदर सफ़ेद तरल पदार्थ था मैं समझ गई जिस दिन के लिए हर लड़कियां इतने सपने संजोए रहती हैं, मेरे साथ वो सीरिंज कर रही थी, मैं तो डरी हुई थी, दीदी मेरा हाथ पकड़े बार-बार “रिलैक्स -रिलैक्स” बोलते जा रही थी, दीदी और डॉक्टर दोनों ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे ढाढ़स दिया और मुझसे बातें करते हुए ही सारी प्रक्रिया पूरी हुई, मुझे थोड़े देर वहां लेटे रहने का आदेश मिला हुआ था,मैं लेटे लेटे सोचने लगी कि दुनिया कहांँ से कहांँ पहुंच गई, विज्ञान ने हमारी अनुभूतियों को पूरी तरह ख़त्म कर दिया,कब ओवम और स्पर्म का मिलन हो एक नयी ज़िंदगी का जन्म होता है इसका पता तो मांँ को कभी चलता ही नहीं वो तो जब माहवारी नहीं होती और उल्टियांँ होनी शुरू होती हैं,यूरिन का टेस्ट होने के बाद पता चलता है कि अब गर्भ में एक नई ज़िंदगी पल रही है,


इस काम के लिए जब मेरी अन्तरात्मा मुझे धिक्कारती और फिर दूसरे ही पल मुझसे कहती....


कोई बात नहीं तुम्हारी आत्मा अभी भी पवित्र है,शरीर तो मिट्टी का बना है, तुम महान हो, मांँ के लिए इतना बड़ा बलिदान! सालों से अंदर दबाए अहसासों, अनछुए अनुभवों को यूँ किसी पर क़ुर्बान करना कोई आसान बात तो नहीं,’ ऐसे ही मैनें स्वयं को समझाया और जीवन को हालातों पर छोड़ दिया,मेरी मजबूरी जानकर मेरी कोख के सौदागरों ने मुझे कांट्रैक्ट से कहीं बहुत ज़्यादा पैसा भी दिया था घर भिजवाने के लिए,


समय गुज़रने लगा, ठीक एक महीने बाद मुझे सुबह-सुबह उल्टियां होनी लगीं,दोनों पति-पत्नी बड़े ख़ुश दिखने लगे, मुझे समझ ही नहीं आता था कि इस नए मेहमान के आने की ख़ुशी मनाऊं या ज़िंदगी बर्बाद होने का ग़म,मन में तो वही पुरानी मान्यताएं भरी थीं, कुंवारी मां छी छी ,मेरे अंदर एक युद्ध चल रहा था,जो स्वयं से था,फिर सोचा कि ये तो बस अब नौ महीनों की बात थी, फिर मैं कहां और मेरे पेट में पलने वाली नन्ही जान कहाँ ?फिर सोचा कि ज़िंदगी भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है. ऐसी कल्पना तो मैंने बुरे से बुरे सपने में भी नहीं की थी,धीरे-धीरे दिन बीत रहे थे, उसकी ख़ुशी मुझे बच्चे के मालिकों के चेहरे पर दिख रही थी, मेरे खाने और दवाइयों का बड़ा ध्यान रखा जाता,मेरे चेहरे पर अब नूर भी आ गया था, पेट थोड़ा बाहर भी आने लगा था,दीदी हर पंद्रह दिन में मुझे चेकअप के लिए डॉक्टर के पास ले जाती, अल्ट्रासाउंड मशीन में बच्चे की छोटी-छोटी अंगुलियां मुझे दिखाई जातीं, दिल में एक हूक सी उठती थी,दीदी मशीन के सामने बैठ बच्चे से बड़ी देर तक बात करती,मशीन के अंदर बच्चे की सारी हलचल दिखती, कभी नन्ही सी जान जम्हाई लेती तो कभी नन्हें नन्हें पैरों को मारते दिखती, सचमुच सब कुछ कितना अच्छा लगता था,


अब प्रेग्नेंसी के सात हफ़्ते बीते ही थे कि अल्ट्रा साउंड मशीन में डॉक्टर ने इस नन्ही जान के दिल की धड़कन दिखाई दी, डॉक्टर ने आला मेरे कान में रख मुझे बच्चे के दिल की धड़कन सुनाई, मन तो बल्लियों उछलने लगा लेकिन तभी दीदी ने तुरंत आला मेरे कानों से हटा तुरंत अपने कानों में लगा लिया और डॉक्टर से कहा,


“व्हाट इज़ दिस? डॉक्टर चाइल्ड इज़ माइन, इसे क्यों सुनवा रही है ये बच्चे की धड़कन.’’


मैं बहुत मायूस हो गई, मैं बार-बार पेट पर हाथ रख कोशिश करती कि मुझे भी बच्चे के दिल की धड़कन सुनाई दे पर सब बेकार, फिर भी ऐसा लगता ही था कि एक नन्ही जान अंदर पल रही है, अभी तक सुना ही था कि कोख के बच्चे के साथ मां का भी नया जन्म होता है, ये तो ख़ुद पर चरितार्थ हो रहा था, पता नहीं कैसे मैं ख़ुद का पेट सहला ख़ुद से बातें करती,“ ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था मेरा उस नन्ही सी जान से लगाव भी बढ़ता जा रहा था,मैं हमेशा मन ही मन मुस्कुराती रहती थी और तो और अपने उभरे हुए पेट से चिढ़ने के बजाय मेरे लिए वो गर्व का विषय बन गया था,


नहाते वक़्त मिनटों पेट पर ही साबुन लगाती रहती और ऐसा महसूस करती मानो अपने बच्चे को नहला रही हूं,बीच-बीच में बात भी करते जाती, ठंड तो नहीं लग रही है ना,तुम्हें साफ़ रहना भी तो ज़रूरी है ना! ये सारी बातें बाहर जाती तो मेरी कोख के मालिक घबरा जाते कि ये क्या ड्रामा चल रहा है? दीदी मेरे पास आ मेरे सिर पर हाथ फेर कर पूछती “व्हाट्स हैपनिंग एनी प्रॉब्लम क्या हुआ डियर? इतना समय क्यों लगा नहाने में? तबियत तो ठीक है!”मैं चुप हो छत की तरफ़ एकटक देखने लगती और मन मे कहती कि मेरी कोख में पल रही ये नन्ही जान कभी जान भी नहीं पाएगी कि उसकी असली जननी मैं हूंँ,


रोज़ सपने में कोई मुझे मां कह पुकारता और मैं झट से उठ पुकारने वाले को ढूंढ़ती और फिर निराश हो लेट जाती तो समझ आता कि ये आवाज़ तो मेरे अंदर से ही आ रही है, मुझे तरह तरह के इंजेक्शन और दवाइयां दी जा रही थीं, अल्ट्रासाउंड टेस्ट से ये पता चल गया था कि बच्चे के सभी अंग नॉर्मल हैं,


फिर कुछ दिनों बाद मैनें बच्चे को जन्म दिया,लेकिन उनकी सूरत देखें बिना ही मुझे उससे अलग कर दिया गया,ये कहते कहते अम्बिका रो पड़ी तब रूद्राक्ष उसे चुप कराते हुए बोला.....


तुम चिन्ता मत करो,अब तो मैं तुम्हारे लिए बच्चों की फौज खड़ी कर दूँगा...


ये सुनकर अम्बिका रोते रोते हँस पड़ी और बोली....


सच!तुम सही कहते हो ना!


बिल्कुल सच!अब तुम्हें पल पल पाश्चाताप की आग में नहीं जलना पड़ेगा,तुम सालों से ऐसे बेमतलब से जल रही हो इसके कारण तुम ना कोयला भई ना राख,मैं तुम्हें अब और जलने नहीं दूँगा,


फिर रूद्राक्ष ने अम्बिका से शादी कर ली और कुछ महीनों बाद उसने एक बेटी को जन्म दिया,अब अम्बिका का जीवन खुशहाल था,लेकिन उसने सुना कि उसके माँ बाप अब उसकी सबसे छोटी बहन को इस काम में डाल रहे हैं......🙏🙏😊😊


समाप्त.....


सरोज वर्मा.....