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पुनीत बड़ा होने लगा था, तोतली बोली में कुछ बोलने भी लगा। जब कभी काम के अलावा भानुमति रिचार्ड के साथ थोड़ी बहुत देर के लिए बाहर चले जाते तो उसे थोड़ा चेंज मिल जाता। माँ का फोन आया था सक्सेना को 2 वर्ष का कारावास तो हो ही गया था। बाबा और दीवान अंकल मिलकर फैक्ट्री को फिर उसी रफ्तार पर ले आए थे।
लाखी का पढ़ने में खूब मन लगता। घर पर ही रहने लगी थी और माँ उसे अच्छी तरह पढ़ा रही थीं। एक बात विशेष थी, सदाचारी का पता ही नहीं चला था। न जाने उसको ज़मीन खा गई थी या आसमान निगल गया था। उसके घरवालों ने भी जैसे मौन व्रत धारण कर लिया था। पता नहीं बेचारे एम.एल.ए साहब के सिर पर ऎसी कौन सी मुसीबत आ गई थी जो वह एकदम से अदृश्य हो गए थे। जाने कहाँ ढूंढे उन्हें आकाश में कि पाताल में ? भानुमति को फिर से यहाँ आए लगभग अब 2 वर्ष हो चुके थे ।उसको तसल्ली थी बस दो बातों की । एक तो यह कि बाबा का स्वास्थ्य ठीक रहने लगा था, माँ काफी सहज हो गई थीं। दूसरी यह लाखी उन सब पारिवारिक पशुओं से बचकर उसके घर आकर रहने लगी थी। कम से कम वह उस जहालत से निकलकर कुछ बन तो जाएगी ।
भानु की नौकरी भी अच्छी चल रही थी। इन वर्षों में न जाने कितनी बार भानुमति के मुँह पर राजेश का नाम आया पर वह रिचार्ड से कुछ पूछ नहीं सकती थी। सच तो यह था कि रिचार्ड भी उसकी कमजोरी पर मन ही मन हँस देता था। एक दिन रिचार्ड बहुत घूमने के मूड में था। उसने कहा चलो :
"भानुमति! आज कहीं चलते हैं?"
"कहाँ?"
"कहीं भी घूमने..."
"तुम जा सकते हो तो प्लीज़ चले जाओ।"उसका मुँह लटक गया, वह बहुत मूड में था।
" अकेले?" उसका मुँह लटक गया।
" सॉरी रिचर्ड, पता नहीं क्या हो रहा है? बिल्कुल आज मन नहीं है। पता नहीं क्या हो रहा है? कुछ अजीब सा.. "
उसको वाकई मन से अफसोस था कि वह रिचार्ड की बात नहीं मान पा रही थी।आख़िर उसने ऐसा तो काया माँग लिया था | सच,कभी-कभी वह ऐसे आदमी के लिए भी इतनी रूड हो जाती है जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी ही जैसे उसके नाम लिख दी थी | सो--अनकंडीशनल लव !
"न,न ..डज़ नाॅट मैटर.." रिचार्ड ने कहा। भानुमति को अच्छा नहीं लगा, क्यों रिचार्ड से इतनी रूड हो जाती है?
कभी-कभी तो बेचारा रिचार्ड कुछ कहता है, वह उसे भी मना कर देती है। आखिर उससे यह बात क्यों समझ में नहीं आती कि रिचार्ड ने उसकी कंपनी के लिए सब दोस्तों, ड्रिंक और रोजाना की पार्टियों को छोड़ दिया था।
"सॉरी रिचार्ड, माफ करना कुछ मन नहीं था..." फिर बोली
"अच्छा, चलो चलते हैं।"
"नहीं, अब रहने दो.."
"नाराज हो गए..? "
"नहीं, नहीं.."
"फिर..?"
"अब मूड नहीं है, फिर चलेंगे।"
"ठीक है, फिर क्या किया जाए?"
"अब घर पर ही हैं तो तुम्हारी कविता सुनते हैं, बहुत दिन हो गए। सुनाओगी ना अपनी कोई नई लिखी हुई कविता?"
"अच्छा.. "भानुमति डायरी उठा लाई। उसने कविता पढ़ना शुरू किया।
त्रासदी समेटे
बेहूदे मनगढ़ंत किस्से
आँखों की कोरों से
बहते पानी में
सिमटे रहते हैं
दूर के ढोल सुहावने
दादा कहते हैं
बादलों की छाँव से
कभी गिरता है पानी
वहीं से धड़कता सूरज
कहती हैं नानी
छोटी सी उम्र के
उस छोटे से हिस्से को
जानने के लिए
कितने बड़े मजबूर कदम
उठाने पड़ते हैं
चलने होते हैं...
भानुमति चुप हो गई।कई बार वह सोचती थी कि यह बंदा इतनी गूढ़ भावों की पोटली को कैसे खोलके उसमें से भावों को चुनकर,उन्हें गन लेता है ?लेकिन वह करता था,उसकी हर रचना को एन्जॉय करता था |
"अच्छा एक बात बताओ.."
"पूछो.."
रिचार्ड चुप रहा
"पूछो तो, तभी तो बताऊंगी.."
"क्या बोलूं...? पल भर बाद बोला
" तुम हर कविता में... क्या कहते हैं उसको व्यंग... क्यों ले आती हो? "
" व्यंग नहीं व्यंग्य... नहीं, मैं लाती नहीं हूँ, अपने आप आ जाता है। कुछ चीजें ऐसी होती हैं रिचार्ड जिनको किया नहीं जाता अपने आप हो जाती हैं..."
"तो फिर ट्रेजेडी ही क्यों? जब व्यक्ति किसी चीज़ को करना ना चाहे और करनी पड़े, वह ट्रेजेडी ही तो होती है। कई बार लगता है कि तुम व्यंग्य की दुनिया में जी रही हो... यू आर सराउंडेड बाय सटायर। "
" नहीं, मैं ही नहीं तुम भी सटायर में जी रहे हो.. और हम ही क्यों न जाने कितने लोग इसी भाव में जी रहे हैं... शायद यह पूरी दुनिया ही! परिभाषा और वातावरण भिन्न-भिन्न हैं। "
" अच्छा... वह कैसे..?
"मैं एक विवाहित औरत हूँ, मैरिड वुमेन... मैं इतना साहस नहीं कर सकती कि अपना अधिकार माँग नहीं, छीन सकूँ.. और तुम... तुम मेरे जैसी माँ के बेटे हो जो मुझसे बिना किसी एक्सपेक्टेशन के, इच्छा के प्यार करते हो.. मगर किसी को कुछ भी कह नहीं सकते। यहाँ तक कि मुझसे भी तुम अपने प्यार का इज़हार नहीं कर पाते। "
" कभी-कभी तुम्हारी बातें मेरी समझ में ही नहीं आतीं.. कोई बात नहीं, दरअसल अनुभव से ही सब बातें समझी जा सकती हैं। "
" अच्छा! इतने अनुभव हैं तुम्हारे? "
" हाँ, यस,आई हैव -- हैं। "
" वैसे अनुभव तो मेरे पास भी कम नहीं है। "
भानु ने कहा... वह मुस्कुरा दिया जैसे किसी किरण से कोई संकरी सू मुस्कान फूटी हो ---|
" जानती हूँ, इन्हीं अनुभवों के सहारे ही तुम्हारे अंदर बदलाव आया है। "
" हाँ, देखो ना कभी-कभी बड़ा अजीब लगता है मुझे। कितने दिनों की दोस्ती के बाद मैं तुम्हें अब बता सका कि तुम्हारी ओर आकर्षित होने का आखिर मुख्य कारण क्या था इसके लिए भी कोई अनुभव ही होंगे। ऐसे तो हर दिन ही जाने कितने प्रकार के कड़वे मीठे अनुभव लेते हैं हम लोग...।" वह जैसे कभी भी दार्शनिक बन जाता !
" और क्या और.. जिंदगी किसका नाम है? इन्हीं कड़वे मीठे अनुभवों का नाम ही तो जिंदगी है। "
" तुम्हारी परिभाषा सबसे अलग होती है ---शायद !" उसने एक उत्सुकता से कहा | वह इस चर्चा को आगे बढ़ाना चाहता था |
"एक बात और भी है... मेरी परिभाषा बदलती रहती है और इसीलिए मैं आज तक अभी तक किसी बात की परिभाषा पर जम नहीं पाई.. सदा भटकती रही हूँ।"
"पर यह परिभाषा ढूँढने की ज़रूरत क्या है? लाइफ को इतना मुश्किल क्यों बनाने की जरूरत है? इतना सीरियस क्यों रहना चाहिए जिंदगी में? कुछ जरूरत नहीं है।"रिचार्ड ने कहा।
" हमारा शरीर एक मशीन है ना मेरे दिमाग वाली मशीन को इसी तरह का काम पसंद आता है। यह उसका 'नेचर ऑफ जॉब' है और कुछ नहीं। "
" ठीक है, तुम बिज़ी रहो अपने नेचर में। "
फिर बैठकर बोला :
" एक बात बताने वाला था.. "
" तो बताई क्यों नहीं.. "
" वह राजेश..."
"हाँ, क्या हुआ? "
" नहीं नहीं कुछ नहीं.. कोई खास बात तो नहीं है फिर भी लगा बता दूँ तुमको।"फिर बोला :
" राजेश और रुक में झगड़ा हो गया है। "
" अच्छा! तुमने उन दोनों को डाल भी तो एक ब्रांच में दिया था,वो तो होना ही था कभी न कभी ।जब आदमी के भौतिक भूख के सुख को एक बार चखने में स्वाद बदलने की आदत पड़ जाती है तब वह बार-बार बदलाव मांगता है | "
" व्यंग्य कर रही हो? "
" नहीं रिचार्ड, तुमने जो ठीक समझा था, किया। अब जो हो रहा है भाग्य के कारण हो रहा है।क्या कर सकते हैं? "