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इत्र वाली किशोरी

इत्र वाली किशोरी


चार्वी कबीलाई युवती थी , उम्र लगभग पंद्रह या सोलह वर्ष रही होगी। रंग , रूप से ज्यादा आकर्षक नहीं थी.. लेकिन उसकी आंखों में देखकर , उसके मन में क्या चल रहा है , सरलता से ज्ञात हो जाता था।


मेरा नाम रवि प्रकाश है , उम्र 25 वर्ष और मैं इत्र का व्यवसाय करता हूँ। मैं देश विदेश घुमता रहता हूँ , खुशबूओं की तलाश में। चार्वी से मेरी मुलाकात एक दुर्घटना के कारण हुई थी। बात उन दिनों की है , जब मैंने इत्र के व्यवसायी के रूप में अपने कारोबार का प्रारंभ किया था। उस वक्त मेरे पास इत्रों के भंडारण के लिए अच्छे भंडार गृह की कमी थी , जिसके कारण एक दिन काफी बड़ी मात्रा में इत्रों का एक विशेष प्रकार का भंडार , जो मुझे एक निश्चित वक्त पर पूर्ण कर के वितरित करना था , क्षतिग्रस्त हो गया और मेरे पास बहुत कम वक्त था , दुवारा से उस वितरण सामग्री को पुनः तैयार करने के लिए। मैं बहुत परेशान हो गया और इसी कारण बेहद तनावग्रस्त भी रहने लगा।


मुझे एकांत में रहना पसंद आने लगा था , घर से बाहर निकलना , घुमना फिरना , मित्रों से बातें करना , यहां तक कि स्वंय का ध्यान रखना भी छोड़ दिया था , जिस कारण मुझे स्वास्थ्य सम्बंधित कुछ समस्याओं को भी झेलना पड़ रहा था।


एक दिन स्वास्थ्य ज्यादा खराब होने पर मेरी माँ को मुझे चिकित्सालय में भर्ती करवाना पड़ा। चिकित्सक ने जब मेरा परीक्षण किया तो कहा,,, हर वक्त तनावग्रस्त रहने के कारण रक्तचाप असामान्य हो गया है , जिस कारण हदय पर भार बढ़ गया है और हदय गति कभी तीव्र तो कभी धीमी चल रही है। सामान्य अवस्था में आने के लिए सारी परेशानियों से दूर किसी शांत स्थान पर कुछ वक्त गुजारे , तभी कुछ सुधार हो सकता है , नहीं तो गतिप्रेरक उपकरण शल्यक्रिया ही एक मात्र रास्ता बचेगा।


चिकित्सक की बातों ने माँ को बेहद भयग्रस्त दिया था.. क्योंकि माँ ने सुना था , गतिप्रेरक उपकरण शल्यक्रिया तो उम्रदराज लोग ही करवाते है.. लेकिन चिकित्सक ने मेरे बेटे को इसके लिए कहा है तो समस्या ज्यादा गंभीर है।


बस फिर क्या था माँ तो माँ होती है , उन्होंने दुरंत एक गांव की जमीन देखी और ऋण पर उसे खरीद भी लिया। धन संपदा के नाम पर हमारे पास ज्यादा कुछ नहीं था , सिवाय शहर में बने घर , इत्र का एक छोटा सा कारखाना , दो टूटे फुटे भंडार गृह और माँ के पास रखे स्त्रीधन यानी उनके आभूषणों के।


माँ उस जमीन पर बड़ा घर बनवाना चाहती थी.. लेकिन धन की तंगी थी.. इसलिए बस आधारभूत आवश्कयताओं की वस्तुएं ही बनवाई जा सकती थी जैसे नलकूप , शोचालय , रसोई घर और दो शयनकक्ष।


हम माँ बेटे का जीवन इन सीमित संसाधनों से चलने लगा था। वक्त बीतने लगा था और धीरे धीरे मेरे स्वास्थ्य में भी सुधार होने लगा था।


गांव में एक वार्षिक मेले का आयोजन हुआ था , जहां अलग अलग गांवों , कस्बों , शहरों से व्यवसायी आए थे और अपने अपने उत्पादों की दुकानें लगाई थी।


मैं बहुत उत्सुक और उत्साहित था , इस मेले को देखने के लिए.. क्योंकि मैं खुद भी एक व्यवसायी रह चुका था। ये मेला बहुत प्रसिद्ध और चर्चित था , तभी तो इसे देखने के लिए देश विदेश से लोग आए थे।


मैं माँ के साथ मेले का आनंद उठा रहा था , तभी एक मोहक खूश्बू ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। मैं इधर उधर उस खुश्बू की तलाश करने लगा.. लेकिन वो खुश्बू कहां से आ रही थी , इसका पता नहीं लगा सका।


मेले से लौटने के बाद रात्रि को सोते वक्त भी मेरा मन उसी मोहक खुश्बू में अटका हुआ था , जो मुझे बेचैन कर के , मेरी नींदे उड़ा रहा था , बस फिर क्या था अपनी बेचैनी को शांत करने के लिए , मैं रात्रिकाल ही उस मेले वाले स्थान पर निकल पड़ा।


रात्रि में भी वह स्थान प्रकाश से जगमगा रहा था.. लेकिन सभी की दुकानें बंद थी और वस्त्रों से झपी पुती थी। दुकानों के मालिक तंबूओं में सो रहे थे , कुछ खुले आसमान के नीचे खाटो पर भी सो रहे थे।


मैं आगे बढ़ता जा रहा था , कुछ दूर जाने के बाद एक स्थान पर धुएं के साथ थोड़ा अंधेरा अंधेरा सा दिखा और फिर से उसी मद्धम मद्धम सी मोहक खुश्बू ने मुझे आत्मविभोर कर दिया था।


खुश्बू लेते हुए मेरी आँखें बंद हो गई थी.. लेकिन कदम चलते जा रहे थे , तभी एक आवाज ने मुझे मतिभ्रम से बहार निकाल फेंका था।


अरे..! अरे..! बाबू! रूक जाओ...।


आंखे खोली तो सामने स्वेत वस्त्रों में बेहद लंबे बालों वाली सांवली सूरत की किशोरी खड़ी थी।


किशोरी (चेतावनी भरे आवाज में) - वहीं रूक जाओ.. बाबू! तुम मेरा इत्र का मटका गिरा दोगे..।


मैंने हैरानी में कहा,,, नहीं! नहीं! मैं ऐसा नहीं करूंगा..!


उत्तर में उसने कहा,,, बाबू! जरा संभल कर नीचे तो देखो!!


मैंने नीचे अपने कदमों की तरफ देखा तो कुछ ही दूरी पर धीमी धीमी सी अंगीठी पर मटका रखा था , जिसमें केसरिया पानी हल्की हल्की उबाल के साथ उसी खुश्बू के साथ पक रहा था। उसी मटके के ठीक ऊपर एक दूसरा मटका भी रस्सियों के सहारे चार लट्ठों से लटका हुआ था , जिसमें नीचे रखे मटके का धुआं अवशोषित हो रहा था।


इस व्यवस्था को देखते ही मैंने घबराहट में अपने कदमों को पीछे कर लिया। हडबडाहट में ऐसा करने से मैंने अपना संतुलन खो दिया और वही जमीन पर नीचे गिर गया।


वो किशोरी मुझे देख कर हंसने लगी , वही मैं पूरी तरह से मिट्टी और कीचड़ से बेहाल हो चुका था। पहले तो मुझे थोड़ा गुस्सा आया.. लेकिन फिर उसका वो हंसता हुआ चेहरा देख कर सारा गुस्सा हवा भरे गुब्बारे की तरह फट गया।


जी भर के हंस लेने के बाद , वो किशोरी मेरे पास आई और मेरी सहायता के उद्देश्य से अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया।


मैंने भी उसके साहायता को स्वीकार करते हुए , अपना हाथ उसके हाथों में दे कर , खड़े होने का प्रयास किया , जिसमें मैं सफल भी हुआ।


किशोरी (थोड़ा चिंतित होते हुए) - बाबू! तुम ठीक तो हो ना? , मुझे माफ करना , मैंने तुम्हें भयभीत कर दिया , जिसके कारण तुम नीचे गिर गए और मलिन भी हो गए। यहां से कुछ दूरी पर एक जलाशय है , तुम चाहो तो वहां जा कर स्नान कर सकते हो..!


मैं - नहीं नहीं.. इसकी कोई आवश्कता नहीं है , मेरा घर निकट में ही है , मैं वही जा कर स्नान कर लूंगा। तुम भी इत्र व्यवसायी हो क्या? , तुम्हारा इत्र बेहद मोहक है।


उत्तर में उसने कहा,,, मैं कोई व्यवसायी नहीं हूँ बाबू! , मैं कबीलाई समूह से हूँ.. लेकिन इस मेले में धन अर्जित करने के उद्देश्य से ही आई हूँ।


मैं - अच्छा ठीक है , मुझे अपने इत्र के विशेष में कुछ बताओ? , इसकी खुश्बू बेहद आकर्षक है।


किशोरी - तुम मेरा इत्र खरीदेगे तो ही कुछ बताउंगी..।


मैं - अगर कीमत ठीक ठाक होगी तो जरूर खरीदूंगा , कृपया अपने इत्र की कीमत बताओ?


किशोरी (बेहद आत्मविश्वास के साथ) - एक शीशी की कीमत पांच सौ रूपये है।


मैं (चौंकते हुए) - ये तो बहुत ऊंची कीमत है!


किशोरी - ऐसा इत्र पूरी दुनिया में नहीं मिलेगा तुम्हें..!


मैं (थोड़ा उदासीनता दिखाते हुए) - वो तो है.. लेकिन फिर भी कीमत बहुत ऊंची है , थोड़ा कम नहीं होगा क्या?


किशोरी - बेहद कम कीमत बताया है बाबू! , हम कबीलाई लोग आवश्कता से अधिक कीमत नहीं बताते है।


मैं - ठीक है मैं तुम्हारा इत्र खरीदूंगा.. लेकिन पहले तुम मुझे इस इत्र को बनाने में कौन से पुष्पों का प्रयोग होता है और इसे कैसे बनाते है , ये बताओ?


चार्वी... ओ चार्वी... इतनी देर से क्या कर रही है? , कुछ दूर लगे एक तंबू से आवाज आई।


अच्छा बाबू! अब मैं चलती हूँ , बाकी की बातें प्रातःकाल में करेंगे.. बोलकर , वो तंबू की ओर चली गई।


मैंने भी अपने घर पहुंचा कर स्नान किया , फिर खाट पर लेट गया और बड़ी उत्सुकता से प्रातःकाल होने की प्रतीक्षा करने लगा।


वो मेला एक माह चलने वाला था। मैं रोज उस मेले में पहुंच जाता था.. लेकिन दिन में काफी भीड़ होने के कारण मैं चार्वी से बात ही नहीं कर पाता था.. इसलिए रात्रिकाल में उसके तंबू के आस पास भटकता रहता था और अवसर मिलते ही उससे बातें करने लगता था।


चार्वी ने मुझे इत्र के प्रकार और निर्माण के विषय में बहुत अनोखी बातें बताई थी , उसने अपने कबीलाई सभ्यता के विषय में जो बताया उसे सुनकर मैं बड़ी हैरत में पड़ गया था। उसने बताया,,, हमारे कबीले के लोग इत्र का निर्माण तभी करते है , जब उन्हें वास्तविकता में धन की आवश्यकता होती है। हम लोग कभी लालच , लोभ , विलासिता आदि के लिए धन अर्जित नहीं करते है , यही कारण है कि इत्र निर्माण के लिए , जिन पुष्पों का प्रयोग किया जाता है , वो केवल सच्ची प्रार्थना और कुछ दुर्लभ मंत्रों के उच्चारण करने पर ही खिलते है , जिनके मन में सच्ची श्रद्धा नहीं होती है या जो किसी लालच या मोह में आकर इन मंत्रों का उच्चारण करते है , उनके लिए ये पुष्प नहीं खिलते है और उन्हें संपूर्ण कबीले के समक्ष मृत्यु दंड की सजा दी जाती है।


देखते देखते उन्तीस दिन निकल गए , मेरा चार्वी के साथ और चार्वी का मेरे साथ लगाव बेहद बढ़ चुका था।


एक दिन बातों ही बातों में , मैंने उसे अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताते हुए कहा,,, चार्वी! तुम मेरे साथ शहर चलो , वहां हम दोनों मिलकर इत्र का व्यवसाय आरंभ करेंगे..।


चार्वी (घबराते हुए) - नहीं.. ऐसा कभी नहीं हो सकता है बाबू!


मैं (जिज्ञासित होते हुए) - क्यों नहीं हो सकता है?


चार्वी - हम कबीलाई युवतियां और युवक बिना विवाह के किसी अंजान पुरूष या स्त्री के साथ कही नहीं जा सकते है। विवाह भी अपने कबीले के पुरूष या स्त्री के साथ ही कर सकते है , जो ऐसा नहीं करता है , उसे संपूर्ण कबीले के समक्ष मृत्यु दंड की सजा दी जाती है , ताकि आने वाले भविष्य में कोई भी युवती या युवक , ऐसा अपराध ना कर सके..!


मैं - ये तो अन्याय है..!


चार्वी - हमारे कबीले में इसे ही न्याय समझा जाता है। मैं जानती हूँ तुम्हारा मेरे साथ लगाव बढ़ गया है.. लेकिन इस लगाव को यही इसी वक्त विराम लगाना होगा.. क्योंकि इसी में सबका हित है। तुम्हारी समस्या के निवारण के लिए मेरे पास एक ऐसी वस्तु है , जिसे प्राप्त कर के तुम अपनी सारी पेरशानियों से मुक्ति पा सकते हो..!


मैं - ऐसा भी क्या है? , मुझे नहीं लगता कि तुमसे बढ़ कर कोई भी वस्तु हो सकती है!!


मेरे प्रश्न करने पर चार्वी अपने तंबू की तरह गई और कुछ ही देर में एक लाल पोटली लेकर मेरे पास आकर बोली,,, इसे अपने साथ ले जाओ बाबू!


मैं - इसमें क्या है?


चार्वी - एक विशेष प्रकार के वृक्ष की छाल है , जिससे इत्र बनाया जाता है। ये कोई मामूली वृक्ष की छाल नहीं है बाबू! इससे बनाया गया इत्र हजारों में बिकता है।


मैं - तब तो मैं इसे नहीं ले सकता हूँ , इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है!!


चार्वी - मैं तुम्हें अधिकार देती हूँ , कृपया इसे अपने साथ ले जाओ..।


मैं उस पोटली को स्वीकार नहीं करना चाहता था.. क्योंकि वो मेरी मेहनत से अर्जित किया हुआ नहीं था.. इसलिए उस पर मेरा कोई अधिकार भी नहीं था , फिर चार्वी ने कहा,,, इसे अपने प्रिय मित्र की साहायता मानकर स्वीकार कर लो.. और मेरे हाथों में वो पोटली रख कर वहां से चली गई।


मैं चार्वी को छोड़ कर नहीं जाना चाहता था.. लेकिन उस रात्रि चार्वी के आंखों में जो चिंता और दुःख के भाव देखे , वो मेरे लिए थे। उसने विश्वास करते हुए , अपनी कीमती वस्तू मुझे दी थी , जिससे मेरा जीवन सुधर सके। उस रात्रि चार्वी को इस बात की भी चिंता नहीं थी , कि जो कार्य वो वर्तमान में कर रही है , हो सकता है आने वाले भविष्य में , उसे इस कार्य के लिए दंड भी मिले। चार्वी का मेरे लिए इतना विश्वास और लगाव , जीवन भर के लिए , मुझे उसके व्यक्तित्व का ऋणी बना गया।


समाप्त.....


Thanks for Reading.....

Written and Copyrighted by @Krishna Singh Kaveri "KK"

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