ममता की परीक्षा - 75 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 75



थाने के प्रांगण में आकर खड़ी हुई वह लंबी सी विदेशी गाड़ी सेठ गोपाल अग्रवाल की थी।
गाड़ी रुकते ही ड्राइवर ने फुर्ती से उतरकर कार का पिछला दरवाजा खोला और उतरनेवाले के सम्मान में उसके बगल में हाथ बाँध कर खड़ा हो गया।

इस बीच कार का आगे का दरवाजा खुला और काला कोट और पैंट पहने एक कृषकाय जिस्म का मालिक कार से उतरकर बाहर आकर खड़ा हो गया। उसके गले में बँधा हुआ सफेद कपड़े का वह विशेष टुकड़ा उसे विशेष बना रहा था। एडवोकेट बंसीलाल के नाम से वह मशहूर था। ऐसा कहा जाता है कि फौजदारी के मुकदमों में उसने आज तक एक भी शिकस्त नहीं खाई थी। उसके इसी रिकॉर्ड की वजह से उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी उसकी इज्जत करते थे।

बंसीलाल ने कार से उतरकर सरसरी निगाहों से अपने आसपास का निरीक्षण किया। उसने पाया यह एक तीन कमरों की सामान्य सी पुलिस चौकी थी जिसके सामने काफी खुली हुई जगह थी।

सुशीला देवी !
अग्रवाल इंडस्ट्रीज के मालिक गोपाल अग्रवाल की धर्मपत्नी कार से बाहर निकलीं। माँसल जिस्म पर करीने से लपेटी हुई महँगी साड़ी, स्लीवलेस डिजाइनर ब्लाउज और गले में सुशोभित बेशकीमती हीरों का हार उनकी रईसी को चीख चीख कर बयान कर रहा था जबकि चेहरे पर पुते मेकअप की मोटी तह के साथ ही होठों पर सुर्ख लिपस्टिक का आवरण उन्हें आधुनिक व फैशनपरस्त भी बता रहा था।
थाने के प्रांगण में पसरी गंदगी को देखकर हाथ का रुमाल अपनी नाक पर रखते हुए नाक सिकोड़कर सुशीलादेवी आगे बढ़ीं। एडवोकेट बंसीलाल लपक कर उनके पीछे चल दिये।

सामने ही बड़े कक्ष में एक मेज के पीछे दरोगा विजय फाइलों में उलझा हुआ था कि बंसीलाल ने मेज के सामने की कुर्सी खींचकर सुशीलादेवी को बैठने का इशारा किया और मेज पर हाथ मारकर उसने दरोगा विजय का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया।
फाइलों से सिर उठाकर विजय ने सामने देखा। सामने बैठी हुई सुशीलादेवी को एक नजर देखकर उसने सवालिया निगाह बंसीलाल पर गड़ा दी।
बंसीलाल ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकालकर विजय के सामने रखते हुए रौबदार आवाज में कहा, "मैं बंसीलाल, एडवोकेट हाइकोर्ट !"
मेज के पीछे कुर्सी पर पहलू बदलते हुए दरोगा विजय के होठों पर मुस्कान गहरी हो गई। बोला, "तो हाइकोर्ट जाओ ! यहाँ क्यों आये हो ?"

दुसरी कुर्सी खींचकर उसपर बैठते हुए बंसीलाल मुस्कुराया और बोला, "हाई कोर्ट अवश्य जाते मिस्टर ...., लेकिन बात ये है कि हाइकोर्ट में तुम नहीं मिलोगे न, इसलिए हम यहीं चल आये।"

"ओके..गुड ..तो जनाब को हमसे कुछ काम है ....!" कहते हुए विजय के चेहरे की मुस्कान और गहरी हो गई, "कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?"

"अजी नहीं जनाब, सेवा आप क्या कीजियेगा ? सेवा करने तो हम आये हैं। दरअसल हमें पता चला है कि आपने कल आधी रात बजरंगी गेस्ट हाउस से तीन लड़कों को गिरफ्तार किया है। क्या यह सही है ?" धूर्तता से मुस्कुराते हुए बंसीलाल ने पूछा।
"जी सही सुना है आपने। खबर मिलने के बाद अपराधियों को भागने का मौका इंस्पेक्टर विजय कभी नहीं देता।" अपनी नुकीली मूंछों पर ताव देता विजय ने गर्व से कहा।
"ओके ....! आइ लाइक इट ..! तब तो खूब जमेगी हमारी, तुमसे। वैसे भी सस्ती चीजें न हमें पसंद हैं न हमारी मैडम श्रीमती सुशीलादेवी को। इनसे मिलिए ये हैं मैडम सुशीलादेवी ! अग्रवाल ग्रुप ऑफ कंपनीज की मालकिन। अब ये मत कहना कि अग्रवाल इंडस्ट्रीज को नहीं जानते।" कहते हुए बंसीलाल ने सुशीलादेवी का परिचय कराया।

"ओके, वेलकम मैडम ! कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।" विजय ने बात आगे बढ़ाई।

सुशीलादेवी ने बताया, " रात वो जो तीनों लड़के पकड़े गए हैं उनमें से एक मेरा बेटा राजीव है और दो उसके फ्रेंड हैं।"
"ओके, लेकिन क्या आपको पता है मैडम कि उन्हें क्यों गिरफ्तार किया गया है ? ......उन तीनों ने गाँव की एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार जैसी घिनौनी वारदात को अंजाम दिया है।" कहते हुए विजय का चेहरा सख्त हो गया था।
"जानती हूँ बरखुरदार ! इसीलिये यहाँ आई हूँ। अभी कोई नहीं है यहाँ आसपास। फटाफट बोल दो उन्हें छोड़ने का क्या लोगे?" कहते हुए सुशीलादेवी ने पर्स में हाथ डाला।
होठों पर रहस्यमयी मुस्कान लाते हुए विजय बोला, "हर चीज बिकाऊ नहीं होती मैडम ! ये बात तो आपको इन काले कोट वालों से पूछनी चाहिए जो जानबूझकर किसी अपराधी को कानून के हाथ से बचाने का प्रयास करते हैं। पैसे के लिए अपनी आत्मा को मारकर ईमान का सौदा करने वाले यही लोग हैं जो अपराधियों, हत्यारों व भ्रष्टाचारियों की असलियत जानते हुए भी उनका मुकदमा लड़ते हैं और उन्हें बचाते हैं। हम और हमारे सिपाही भी जनता से कुछ ले लेते हैं कभी कभी डरा धमकाकर अपनी आवश्यकता अनुसार लेकिन उसकी भी वजह होती है, हमारी मजबूरी ! ...आप गलत जगह आ गई हैं मैडम ! जाइये, अदालत का दरवाजा खटखटाइये। अब आप लोग जा सकते हैं। मुझे बहुत काम है। दोपहर को आरोपियों को अदालत में पेश किया जाएगा। आप वहाँ से इन्हें छुड़ाने का प्रयास कर सकते हैं। धन्यवाद !"

तभी बंसीलाल उसकी तरफ थोड़ा झुकते हुए धीरे से फुसफुसाया, "हाथ आये मौके को गँवाना समझदारी नहीं है मिस्टर दरोगा जी। सोच लीजिये, अपने बच्चों को तो हम किसी न किसी तरह बचा ही लेंगे लेकिन नुकसान आपका होगा। ये मेरा कार्ड है। अच्छी तरह सोच समझ लेना और अगर तुम्हें हमारी बात पसंद आये तो फोन कर लेना। जो भी रकम चाहोगे, तुम्हें मिल जाएगी और...।"
तभी उसकी बात बीच में ही काटते हुए सुशीलादेवी बोलीं, "अरे बंसीलाल जी ! इनसे कहो हमें अपने बच्चों से मिलवाएं। न जाने किस हाल में होंगे तीनों।"

"अब आप लोग यहाँ से चले जाइये और हमें हमारा काम करने दीजिए। अपने बच्चों से अदालत में मिल लेना।" कहकर विजय अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

तभी उसकी मेज पर हल्के से घूँसा जमाते हुए बंसीलाल ने थोड़े रौबदार स्वर में कहा, "बरखुरदार ! माना कि तुम यहाँ अपने थाने के शहंशाह हो लेकिन अपनी मर्जी के मालिक नहीं हो सकते। अपने मुवक्किल से एक वकील को मिलने से तुम भी नहीं रोक सकते, समझे ?"

बेबसी के भाव लिए विजय ने एक सिपाही को आवाज लगाई ,"यादव जी, ले जाइए इन्हें। हवालात में इनके मेहमानों से इनकी मुलाकात करवा दीजिये। समय देख लेना, सिर्फ दस मिनट ! समझ गए ?"

"यस सर !" कहते हुए सिपाही यादव हवालात की तरफ बढ़ गया। बंसीलाल और मैडम सुशीलादेवी उसके पीछे पीछे चल पड़ीं।
बगलवाले कमरे को ही आगे सींखचों का प्रयोग कर के हवालात की शक्ल दे दी गई थी। अन्य आरोपियों के साथ ही रॉकी व उसके दोस्त भी नीचे फर्श पर ही लुढके पड़े हुए थे। शायद रात भर जागने की वजह से उन्हें नींद ने घेर लिया था। सिपाही यादव ने सींखचों पर हाथ मारकर उन्हें आवाज लगाई। आवाज सुनकर राजू अपनी आँखें मलते हुए उठ बैठा और सामने सुशीलादेवी को देखकर रॉकी को झिंझोड़कर जगाने लगा।

क्रमशः