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मेल - भाग 3

बच्चों के लिए खाना बनाने, खिलाने, और होमवर्क कराकर उन्हें सुलाने में करीब दस बज गए। इन सबके बाद जब वो अपने कमरे में आयी तो उसका लैपटॉप पर एक मेल आया हुआ था। जो महेश का था।

महेश के मेल को पढ़ने के लिए कृति वहीं टेबल के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। और मेल पढ़ने के बाद एक बार फिर कृति पुरानी ख़ुशी और टीस भरी यादों के भंवर में गोते लगाने लगी।

कितने प्यारे दिन थे। शुरुआत के वो, जब हमने एक साथ लिव इन में रहना शुरू किया था। महेश सुबह-सुबह बड़े प्यार से किस करकर मुझे मेरी नींद से जगाता था। और मेरे जागने के बाद वापस मुझे अपनी बाहों में भरकर मेरे ऊपर लेट जाता था। फिर मैं जबरदस्ती उसे धकेल कर उसके लिए ब्रेकफास्ट बनाती थी। और वो किचन में आकर मुझे प्यार भरे गीत सुनाता था। और रात, वो तो हम दोनों कि एक ऐसी सहेली हो चुकी थी। जिसका काम केवल हम दोनों को मिलाना था। मेरे लिए तो उस वक़्त में जैसे हर पल ठहर गया था, मैं तो बस उनमें उमर भर के लिए कैद हो जाना चाहती थी। कितना अच्छा लगता था। उस वक़्त उसके लिए कुछ भी करना मुझे…. ऐसा नहीं था। कि पहले नहीं लगता था। बस फर्क सिर्फ इतना था। कि पहले 'कुछ भी करना' हमारे प्यार को मजबूती देने का एक जरिया हुआ करता था। लेकिन अब, अब उसके लिए 'कुछ भी करना' मुझे उसके पहले से ज्यादा करीब लाकर उसकी बाहों में थोड़ा पहले से ज्यादा वक़्त बिताने का मौका दे देता था। या प्यार की भाषा में कहूं तो अब 'कुछ भी करने' का मतलब पहले से ज्यादा हसीन और रोमांटिक हो चला था।

मैंने केवल उसके साथ रहने ले लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया था। अपनी जॉब, अपने पुराने दोस्त, या कहे मैं पुरी तरह से उसकी होकर रह गई थी। पर मुझे उस वक़्त ये सब करना अच्छा लग रहा था। क्योंकि मैं ये सब उस इंसान लिए कर रही थी। जिससे मैं बेहद प्यार करती थी। और उसकी ख़ुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकती थी।

पर वो कहते है। ना, हर चीज़ की एक हद होती है। एक समय पर या सीमा पर आकर हर एक चीज़ रुक जाती हैं। ये लाइन बचपन से लेकर अब तक मुझे फ़िज़ूल लगी थी। मेरे दूर-दूर तक इस बात से कोई वास्ता नहीं था। पर लिव इन में रहने के एक साल बाद लगने लगा था। जैसे मेरी ज़िंदगी इस बात की बनाई हुई पगडंडी पर ही चल रही हैं।

साथ रहते हुए हमें एक साल होते ही, हमारे रिश्ते में धीरे-धीरे सब कुछ कम होने लगा था। हमारे प्यार के बीच की हर चीज़ पुरानी होकर सड़ती चली जा रही थी। जिसमें प्यार की बुनियाद पर टिका हुआ हमारा रिश्ता भी था। अब ना महेश कि आँखों में पहले वाली रूमानियत बची थी। और ना ही उसकी छुअन में पहले वाले अपनापन बचा था।, किस करते वक़्त अब वो आई लव यू कहना तो, पुरी तरह से जैसे भूल ही गया था। बल्कि अब तो सेक्स करते वक़्त भी उसे अपनी हवस की ही नुमाइश करनी होती थी। मुझे ऐसा लगने लगा था। जैसे वो एक मर्द बनता जा रहा है। वो भी उस तरह का जिन्हें, मैं हमेशा अपने आसपास देखती आयी थी।

कुछ वक़्त तक तो मैं अपने रिश्ते को संभालने की कोशिश करती रही। लेकिन थोड़े वक़्त बाद ही महेश ने मेरी भावनाओं को पुरी तरह से अनदेखा करना शुरू कर दिया था। अब मैं अपने सपनों के घर में, केवल उसके लिए, बिस्तर पर बस एक ऐसी जरूरत बनकर रह गई थी। जिसे दर्द देना उसे अच्छा लगता था। प्यार से किस करना, छूना, करीब आना तो जैसे दूसरी दुनिया की बातें हो चली थी। और ख्याल रखना तो बस एक तरफ़ा क्रिया थी। जिसे निभाने की ज़िम्मेदारी मैंने खुद ही जबरदस्ती ली हुई थी। जाने किस उम्मीद के सहारे, और बातचीत तो हम दोनों के बीच जैसे आकस्मिक रूप से घटित होने वाली घटनाएं रह गई थी। ऐसा नहीं था। कि मैं अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानती थी।, जानती थी। लेकिन इतना कुछ ये जो भी हो रहा था। उसके बावजूद मैं प्यार में थी। इसलिए बस रोजाना अपने मिटते अस्तित्व का घूंट पी रही थी।

अनेकों कोशिश और पुरी जद्दोजहद से अपने रिश्ते को संभालते हुए। मेरा वक़्त बड़ी तेज़ी से भाग रहा था। लेकिन इसी भागते वक़्त के बीच मैं प्रेगनेंट हो गई थी। मुझे लगा जब मैं, महेश को इस बारे में बताऊंगी तो वो खुश होगा और मुझे अपनी गोद में उठा लेगा। लेकिन जब मैंने उसे अपने प्रेगनेंट होने की बात बताई। उस वक़्त वो गुस्से में कितना चिलाया था। मुझ पर, और फिर एक ही झटके में चिल्लाते हुए और साथ में चीजों को इधर उधर फेंकते हुए अपना फैसला सुनाने लगा था। “मुझे नहीं चाहिए बच्चा……अपनी पुरी ज़िंदगी में, क्योंकि मैं बंधना नहीं चाहता इन बेकार सी ज़िम्मेदारियों में--- इसलिए मैं चाहता हूं, कि तुम अबॉर्शन करा लो___ हां मैं मानता हूं हमारे बीच सब कुछ सही नहीं चल रहा हैं। छोटी-छोटी परेशानियां है। पर मुझे उम्मीद है। वो सब धीरे-धीरे भर जाएंगी। ये कोई जरूरी तो नहीं कि, एक रिश्ते में पैदा हुई समस्याओं का हल हमेशा बच्चा पैदा करना हो___ और वैसे भी सच कहूं तो मैं…. एम सॉरी कुछ नहीं कहना तुमसे, बस इतना समझलो ये मेरा आखिरी फैसला है। इसलिए अबकी बार जब मेरे सामने आना तो अबॉर्शन कराकर ही आना, वरना तुम हो कौन इसे जानने में भी मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है।“

कितनी बेरहमी से वो उस दिन एक लंबा सा भाषण देकर कमरे से चला गया था। उसने मेरी एक बात भी सुननी जरूरी नहीं समझी थी। उसके जाने के बाद मैं, वहीं बेड के सहारे लगकर घंटों तक रोती रही थी। मुझे लगा था। मेरी सिसकियों की आवाज़ सुनकर वो मेरे पास वापस आएगा। मेरे आंसू पोछेगा। और मुझे संभालने के लिए अपना कंधा देगा। पर वो नहीं आया। यहां तक कि वो सारी रात घर पर भी नहीं था।

सारी रात खुद ही अपने आसूं पोंछती रही, और बार-बार रोती रही थी। लेकिन जैसे ही सुबह हुई। तो मैंने गुस्से में एक नोट लिखा और अपने पापा के घर के लिए निकल गई थी।

घर पहुंचने से पहले, रास्ते में ही पापा को फोन करकर थोड़ा झुट और थोड़ा सच मिलाकर सब कुछ बता दिया था। पहले तो पापा ने गुस्सा किया था। कि एक बार पूछ नहीं सकती थी। इतना सब कुछ करने से पहले, लेकिन फिर फोन पर मेरी रुआसी आवाज़ को सुनकर उन्होंने सिर्फ एक छोटी सी बात कही थी। जिसे एक आश्वासन भी कह सकते है। “चिंता मत करो सब कुछ ठीक हो जाएगा।“

पापा के घर पहुंचने पर, उन्होंने सब कुछ मेरी पसंद का करने की कोशिश की थी। पर मुझे कुछ भी पसंद नहीं आया था। क्योंकि जो पसंद था। उसे मैं छोड़ आयी थी।

यूं तो प्रेग्नेंसी के नौ महीनों के समय में अगर वो साथ हो जिसका वो बच्चा है। तुम्हारा ख्याल रखने के लिए तो वो वक़्त बहुत छोटा लगता है। पर अगर वो साथ ना हो तो ऐसा लगता है। जैसे समय ने अनंत का रूप ले लिया हो, और जिसका कोई अंत है। ही नहीं,

मेरे लिए भी प्रेग्नेंसी का वो वक़्त बड़ा मुश्किल बीता था। नौ महीनों के भीतर मैंने महेश से जाने कितनी बार बात करने की कोशिश की थी। पर उसने एक भी बार मुझसे बात नहीं की थी। बड़ा बुरा लगता था। इस वक़्त उसकी इस बेरुखी से, पर खुद को हर बार तसल्ली दे लेती थी। कि एक दिन शायद महेश वापस आ जाए। पर उसने एक भी दिन आना जरूरी नहीं समझा।

आखिरकार वो दिन भी आ गया। जिस दिन मुझे अपने बच्चों को जन्म देना था। ऑपरेशन रूम में जाने से पहले, मैं लगातार महेश को फोन करती रही थी। साथ में मैसेज तक भेजे थे। पर उसने किसी भी चीज का कोई रिप्लाई नहीं किया था। 'ये बड़ा बुरा एहसास होता है। जिस पर तुम भरोसा करते हो, उससे उम्मीद लगाते हो, तुम्हें लगता है। कि वो तुम्हारा साथ ज़रूर देगा। पर वक़्त आने पर वो तुम्हें इस तरह से अनदेखा कर देता है। जैसे तुम उससे कभी मिले ही ना हो' मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था

ऑपरेशन रूम की पुरी प्रक्रिया में मुझे तीन घंटे का वक़्त लगा था। और तीन घंटे बाद, जब मुझे रेस्ट रूम में शिफ्ट किया गया। तो महेश वो पहला शख्स था। जो मुझसे मिलने आया था। कितना ज्यादा खुश हो गई थी मैं, महेश को देखकर, कि भले ही महेश ने पिछले नौ महीनों से मुझसे बात नहीं की है। पर वो आज मेरे सामने खड़ा है। मेरा हाथ दोबारा थामने के लिए, मेरा ख्याल रखने के लिए, मेरे अब तक गिरे आशुओं को पोछने के लिए, और मुझे प्यार से अपनी बाहों में भरने के लिए, पर जैसे ही उसने अपना मुंह खोला था, में खयालों की दुनिया से ज़मीन पर आ गिरी थी। उसने बिना ये सोचे की मेरी हालत क्या है। वो बस बोलता चला गया था। “ कितना मना किया था। मैंने तुम्हें ऐसा करने के लिए, लेकिन तुमने अपनी ज़िद्द पुरी कर ही ली…… तुम मेरे इतने वक़्त साथ रही, क्या तुम्हें ये भी मालूम नहीं पड़ा कि, मैंने तुमसे प्यार किया था। तुम्हारी इन फालतू ख्वाहिशों से नहीं, तुम जानती हो, मैं हमेशा से सोचता था। कि हम दोनों हमेशा साथ रहेंगे, एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए। कोई हमारे बीच नहीं आएगा। पर तुमने सब कुछ बिगाड़ दिया। एक झटके में, इकोनॉमिक्स से ग्रेजुएट हो ना तुम, तो इतना तो मालूम ही होगा। कि इस दुनिया में हर चीज़ की एक कीमत होती हैं। ऐसे ही हमारे प्यार की भी थी। पर तुमने वो बच्चा पैदा करके खो दी, अब मैं नहीं चाहता। कि तुम कभी भी मेरे पास लौटकर आओ, या अपने इस बेहुदे से चेहरे को मुझे दिखाओ, जिसमें अपनी ज़िद्द पुरी होने की खुशी ज्यादा है। और मेरे प्यार की चमक कम, क्योंकि मैंने जिस, चेहरे से प्यार किया था। वो मासूम सा चेहरा था। जिस पर सदा मेरे इंतज़ार की उम्मीद होती थी। और आज वो उम्मीद, मुझे नजर नहीं आ रही हैं।'

अपनी बात ख़त्म करकर वो उस दिन हमेशा के लिए चला गया। कितनी आवाज़ दी थी। उस वक़्त मैंने उसे, पर वो नहीं रुका। मैं चिल्लाती रही। कि मत जाओ मुझे ऐसे छोड़ कर तुम्हारे बिना, मेरा जिंदा रहना मुश्किल होगा। पर वो नहीं रुका था। यहां तक कि, उसने ये तक नहीं जाना की हमारे जुड़वा बच्चें हुए हैं। वो मुझे छोड़ कर ऐसे चला गया था। जैसे मैं कोई अजनबी मुसाफ़िर थी। जिससे बस वो गलती से रास्ते में टकरा गया था। वो चला गया था। सब कुछ खत्म करके कभी ना वापस लौटने के लिए, मुझे मेरे हालातों, मेरी परेशानियों, और अब मेरे दो जुड़वा बच्चों के साथ छोड़कर

कितनी टीस पैदा होती थी उस वक़्त, मेरे मन में, कई बार तो सोचती थी। आत्महत्या कर लू, सब मुश्किलों से एक साथ छुटकारा मिल जाएगा। फिर ना कोई परेशानी होगी और ना कोई चिंता, पर मेरे बच्चें जिनकी कोई गलती नहीं थी। इन सब में, उनके लिए मुझे ज़ीना पड़ा था। भले ही अंदर से मैं चाहे, रोज हजारों मौत मर रही थी।

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