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मेल - भाग 1

आज एक बार फिर उसका मेल आया है। मरहम का रूप धरकर, पर जिस घाव के लिए आया है।, कृति उस घाव के दर्द से कब का निजात पा चुकी है।… पिछले तीन महीनों में ये उसका बारहवाँ मेल आया है।

कृति मेल पढ़कर गुस्से में खुद से ही बात करती है। 'आखिर वो मेल भेजता ही क्यों है? जब उसका हमसे अब कोई सम्बन्ध, हैं ही नहीं है। क्या जताना चाहता है। वो कि, उसको हमारी फिक्र है पर दस साल पहले जब वो हमें छोड़ कर गया था। तब क्यों नहीं दिखाई ये फिक्र… जो आज दिखा रहा है। अब वो अपने हर मेल में माफ़ी मांगता है। उन दिनों के लिए, जो उसके बिना हमने बिताए हैं पर वो तब, कैसे मुझे और दोनों बच्चों को छोड़ कर चला गया था? क्या जब नहीं लगा था? उसे, कि मैं गलती कर रहा हूं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन आज अपने मेल में लिख कर भेजता है।

“गलती हो गई मुझसे माफ़ करदो ! तुम नहीं जानती, मेरे लिए भी आसान नहीं था तुम लोगों को छोड़ कर जाना, लेकिन उस वक़्त मुझे ऐसा लगता था। जैसे मेरा कुछ खो गया है। और तुम लोगों के पास रुका तो मैं सब कुछ खो दूंगा। इसलिए मैं उस सब कुछ की तलाश में चला गया था।“

पूरा पढ़कर कृति ने उसी तरह मेल को डिलीट कर दिया जिस तरह से उसने, उसके पिछले आए हुए ग्यारह मेल डिलीट किए थे। और बैठकर सोचने लगी कि आखिर वो ऐसा कर क्यों रहा है? वो मुझे क्यों बार-बार मेल भेजकर परेशान कर रहा है? ऐसा तो नहीं कि अगर मैंने जवाब नहीं दिया। तो वो यहाँ पर जबरदस्ती आ जाएगा। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो मैं बच्चों से क्या कहूँगी, “बच्चों ये तुम्हारे पापा हैं। जो तुम्हें दस साल पहले छोड़ कर चले गए थे। लेकिन अब वापस आ चुके हैं। और अब आप दोनों को इनके साथ प्यार से रहना है।“ और जब वे मुझसे इस सवाल के जवाब में पूछेंगे, ”मम्मी आपने तो कहा था। हमारे पापा नहीं हैं। और हम दोनों को आपने एडॉप्ट किया है।“

तब मैं क्या कहूँगी? “नहीं बच्चों आपके पापा हैं। और अब वो वापस आ रहे हैं। बल्कि मैंने ही आप दोनों से झूठ बोला था।“

क्या असर होगा उन पर इस बात का, क्या बर्दाश्त कर पाएँगे बच्चें मेरे इस झूठ को, आखिर कितना यकीन करते हैं। वो मुझ पर, और इस यकीन के बदले मैं उन्हें क्या दूंगी, एक ऐसा झूठ जो उनकी ज़िंदगी में दुनिया भर की परेशानी पैदा कर देगा।

दरवाज़े की तरफ़ से घंटी की आवाज़ आ रही हैं। जिस वजह से कृति का ध्यान टूट गया है। ध्यान टूटते ही उसने घड़ी कि तरफ़ देखा है। घड़ी की सुइयां दो बजा रहीं हैं। जो उसके बच्चों के आने का वक़्त हैं। इस कारण वो तेज़ कदम रखती हुई दरवाज़े की तरफ चली जाती है। पर आज उसके मन में एक डर भी हैं। घंटी की आवाज़ आज उसे हर दिन सी नहीं लग रही। घंटी की आवाज़ में उसे एक रहस्य प्रतीत हो रहा है। क्योंकि वो आज पहली बार लगातार बजे चली जा रहीं हैं। दरवाज़े की तरफ बढ़ते कदम उसे रुकने के लिए कह रहे हैं। पर वो अपने डर को दरकिनार करकर दरवाज़ा खोलना चाहती हैं।

दरवाज़ा खुलते ही बच्चें मम्मी-मम्मी कर-कर उसके गले से लिपट जाते हैं। उनके लिपटते ही वो एक दम से सब कुछ भुला जाती हैं। उसके अंदर एक गहरा आत्मसंतोष जाग उठता है। थोड़ी देर तक सब कुछ भूलकर वो उन्हें ऐसे ही लिपटा कर रखती हैं। और आने वाले कुछ घंटों के लिए उनमें ही घुल मिल जाती हैं। रोजाना की तरह, जिसमें वो होती हैं और उसके बच्चें

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