When and why did Rajputs start writing Singh in their name? books and stories free download online pdf in Hindi

राजपूतों में अपने नाम में सिंह लिखना कब से और क्यु शुरू हुआ?


संस्कृत श्लोक
नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः |विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ||

हिंदी अनुवाद:
जंगल में पशु शेर का संस्कार करके या उसपर पवित्र जल का छिडकाव करके उसे राजा घोषित नहीं करते बल्कि शेर अपनी क्षमताओं और योग्यता के बल पर खुद ही राजत्व स्वीकार करता है ।
सिंहान्त नाम :
सिंह शब्द संस्कृत भाषा के सिन्हा शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ शेर है।जिस प्रकार सिंह को बलवान से बलवान पशुओं में धाक बैठाने के कारण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ,उसी प्रकार क्षत्रियों को भी चार वर्णों में कर्म के हिस्से में राज्यों का संरक्षण और प्रजा का पालन करने का कर्तव्य सौपा था । इसीलिए क्षत्रिय श्रेष्ठता सूचक 'सिंह ' अपने नामों में लगाते है।
इतिहास प्रथम सिहांत,सबसे पहले सिंह शब्द नाम ,'शाक्यसिंह ' बतलाता है । जिस तरह प्राणियों में शेर शक्तिशाली और सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही इन्सानों में राजपूत -क्षत्रिय सर्वश्रेष्ठ है,इस अर्थ में राजपूतो के नाम के पीछे सिंह लगता है। मूल रूप से, सिंह के लिए संस्कृत शब्द, जिसे सिंह या सिंह के रूप में विभिन्न रूप से लिप्यंतरित किया गया था । सिंह शब्द उपनाम और मध्य नाम दोनों के रूप में प्रयोग किया जाता है।सिंह एक शीर्षक,मध्य नाम या उपनाम है जिसका अर्थ विभिन्न दक्षिण एशियाई और दक्षिण पूर्व एशियाई समुदायों में " शेर "(lion) है।पारंपरिक रूप से हिंदू क्षत्रिय समुदाय द्वारा उपयोग किया जाता है, यह अंततः राजपूतों और सिखों सहित विभिन्न भारतीय समुदायों द्वारा अपनाया जाने वाला एक सामान्य उपनाम बन गया है। इसे कई जातियों और समुदायों ने भी अपनाया है। एक उपनाम या मध्य नाम के रूप में, यह अब दुनिया भर में समुदायों और धार्मिक समूहों में पाया जाता है, जो उपनाम से अधिक एक शीर्षक बन जाता है। भारत के उत्तरी भागों में क्षत्रिय योद्धाओं द्वारा एक शीर्षक के रूप में इस्तेमाल किया गया था।

सोशियल साइट्स पर कई बार क्षत्रिय युवकों द्वारा जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि क्षत्रियों के नामांत में सिंह पद का प्रयोग कब शुरू हुआ? इन जिज्ञासाओं के उत्तर में ज्यादातर युवाओं के उत्तर में पढ़ने से ज्ञात होता है कि ज्यादातर युवा, सिंह पद का प्रचार-प्रसार मुसलमानों के आने बाद मानते है| युवाओं में धारणा बैठी हुई है कि “सिंह” पद मुगलों आदि मुस्लिम शासकों ने राजपूत राजाओं को दिया और इसका प्रचलन बढ़ गया । लेकिन यह सच नहीं है।
"सिंह "पद का प्रयोग क्षत्रिय विक्रम की तीसरी सदी से कर रहे है| इस सम्बन्ध में राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार महामोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्त" उदयपुर राज्य का इतिहास "में विस्तार से शोधपूर्वक प्रकाश डाला है। ओझा जी के अनुसार-“यह जानना आवश्यक है कि राजपूतों के नामों के अंत में “सिंह” पद कब से लगने लगा, क्योंकि पिछली कुछ शताब्दियों से राजपूतों में इसका प्रचार विशेष रूप से होने लगा है।

पुराणों और महाभारत में जहाँ सूर्यचंद्रवंशी आदि क्षत्रिय राजाओं की वंशावलियां दी है, उनमें तो किसी राजा के नाम के अंत में सिंह पद ना होने से निश्चित है कि प्राचीन काल में सिंहान्त नाम नहीं होते थे। महाभारत अथवा पुराणकालीन युग में ऐसा कोई नाम नहीं मिलता जिसके अंत में 'सिंह' शब्द लगाया गया हो। यह स्पष्ट है कि महाभारत और रामायण,वेदों और पुराणों के प्राचीन काल में क्षत्रियो के नाम के पीछे सिंह नहीं लगता था। जैसे कि महाराजा रघु जिनके रघुकुल में से श्री रामचन्द्रजी ने जन्म लिया था,दशरथ,राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न,लव, कुश, श्री कृष्ण,भीष्म पितामह,युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, सहदेव,नकुल,अभिमन्यु,प्रघुमन,
धृतराष्ट्र ,दुर्योधन, ययाति इत्यादि।

इतिहास प्रथम सिंहात नाम शाक्यसिंह'बतलाता है।यह महाराजा शाक्य के नाम से ही गौतम बुद्ध का नाम पड़ा था।यह बाद में भगवान बुद्ध कहलाये थे। प्रसिद्ध शाक्यवंशी राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ -भगवान बुद्ध ( ईस्वी पूर्व २५०० ) के नाम के अनेक पर्यायों में एक “शाक्यसिंह” भी मिलता है, परन्तु वह वास्तविक नाम नहीं है| उसका अर्थ यही है कि शाक्य जाति के क्षत्रियों (शाक्यों) में सर्वश्रेष्ठ (सिंह के समान)। प्राचीन काल में “सिंह”, “शार्दुल”, “पुंगव” आदि शब्द श्रेष्ठत्व प्रदर्शित करने के लिये शब्दों के अंत में जोड़े जाते थे।जैसे “क्षत्रियपुंगव” (क्षत्रियों में श्रेष्ठ), “राजशार्दुल” (राजाओं में श्रेष्ठ), “नरसिंह” (पुरुषों में सिंह के सदृश) आदि। ऐसा ही शाक्यसिंह शब्द भी है, न कि मूल नाम।

"सिंह" उपनाम के साथ समाप्त होने वाले नामों के सबसे पहले दर्ज उदाहरण अमरसिंह का मिलता है जो अमरकोश के रचयिता थे। अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। इस में १००० शब्द है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोशकहा जाता है। (thesaurus
थ़िˈसॉरस्‌ Thesaurus is a book that contains lists of words and phrases with similar meanings.समानार्थी शब्‍दों और वाक्‍यांशों का कोश;पर्याय-शब्‍दकोश) इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शताब्दी) के दरबार में नवरत्नों में से एक थे। जिनके नाम के पीछे "सिंह " उपनाम लगाया गया था। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।डाॅ. राजबली पाण्डेय और अन्य कई इतिहासविद अमरकोश और उसके रचयिता अमरसिंह को प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व वर्ष ५७ में संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के काल का मानते हैं।

"सिंह" के साथ समाप्त होने वाले नामों के सबसे दूसरा दर्ज उदाहरण ईस्वी दूसरी शताब्दी में शक शासक रुद्रदामा या रुद्रसिंह (प्रथम)का है।गुजरात, काठियावाड़, राजपुताना, मालवा, दक्षिण आदि प्रदेशों पर राज्य करने वाले शक जाति के क्षत्रप वंशी महाप्रतापी राजा रुद्रदामा अथवा
रुद्रसिंह प्रथम (ईस्वी १८१) क्षत्रप वंशीय राजा थे। इसका मतलब सिंह उपनाम का प्रयोग दूसरी शताब्दी से ही किया जाता है।रुद्रसिंह (प्रथम) के सिक्के शक संवत १०३-११८ (वि.सं.२३८-२५३, ई.स.१८२-१९६) तक के मिले है।" सिंह" पद नाम के अंत में पहले पहल रुद्रदामा के दोनों पुत्रों के नाम में मिलता है। रुद्रदामा के पीछे उसका ज्येष्ठ पुत्र दामजदसिंह और उसके बाद रुद्रदामा का छोटा पुत्र रुद्रसिंह(द्वितीय) क्षत्रप राज्य का स्वामी हुआ था।यही सिंहान्त नाम का दुसरा उदाहरण है। उसी वंश में रुद्रसिंह ( द्वितीय) राजा भी हुआ, जिसके शक संवत १७८-१९६ (वि.सं.३१३-३३२, ई.स.२५६-२७४) तक के सिक्के मिले है। रुद्रसिंह (द्वितीय) के दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र का नाम विश्वसिंह( सं ३३५ ईस्वी २७९) था। यह उक्त शैली के नाम का तीसरा उदाहरण है। फिर उसी वंश में रूद्रसिंह तृतीय और सत्यसिंह( वि सं ४४५ ईस्वी ३८९) के नाम मिलते है। जिनमें से अंतिम रुद्रसिंह (तृतीय )शक संवत ३१० (वि.सं.४४५, ई.स.३८९) तक जीवित था, जैसा कि उसके सिक्कों में पाया जाता है| इस प्रकार उक्त वंश में सिंहान्त पद वाले ५ नाम है। तत्पश्चात इस प्रकार के नाम रखने की शैली अन्य राजघरानों में भी प्रचलित हुई।

सातवीं शताब्दी से लेकर दसवी शताब्दी तक सिंह शब्द लुप्त हो गया था। अर्थात् भारत के इतिहास में ज्यादा प्रमाण नहीं मिले।
विक्रम संवत की ११वीं, १२वीं सदी के क्षत्रिय इतिहास में नाम के अंत में सिंह शब्द का प्रयोग बहुत कम मिलता है| ज्यादातर राजाओं के नाम के अंत में दास, मल ,पाल,राज,देव, प्रसाद,बर्मन आदि जैसे कि राजा भगवानदास, सूरजमल, कुमारपाल, अजयपाल, महिपाल, सिद्धराज, वनराज, अक्षय राज ,मूलराज,अभयराज ,भीमदेव,
विरमदेव, लवणप्रसाद आदि या बिना पद नाम शब्द के जैसे पृथ्वीराज, जोधा, शेखा, कुम्भा, विक्रमादित्य, हर्षवर्धन आदि नाम मिलते है।
वि.सं. १०वीं शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी तक इस शब्द का प्रयोग वीरता और शौर्यता के रूप में होता रहा हैं। अर्थात् जो राजा तेज, वीर और युद्ध कला में निपुण थे उनके नाम के पीछे सिंह शब्द लगाया जाता रहा हैं।
लेकिन ईस्वी १० वीं, ११ वीं सदी के बाद के क्षत्रिय राजाओं के नाम के आगे सिंह पद शब्द का प्रयोग बहुतायत से देखा जा सकता है।धीरे धीरे सिंह शब्द को क्षत्रिय राजपूत वंशों ने अपनाना शुरू कर दिया।
इस प्रकार शिलालेखाआदि से पता लगता है कि इस तरह के नाम सबसे पहले क्षत्रपवंशी राजाओं, दक्षिण के सोलंकियों, मालवे के परमारों, मेवाड़ के गुहिलवंशियों, नरवर के कछवाहों, जालौर के चौहानों आदि में रखे जाने लगे, फिर तो इस शैली के नामों का राजपूतों में विशेष रूप से प्रचार हुआ।

वि सं दसवीं शताब्दी से राजपूतों ने अन्य शास्त्रीय विशेषण के बजाय "सिंह" का उपयोग करना शुरू कर दिया । राजपूतों के बीच मालवे के परमारों में वि.सं.की दसवीं शताब्दी के आसपास वैरिसिंह नाम का प्रयोग हुआ। वि सं १२वीं सदी नरवर के गुहिलों और कछवाहों में पहले पहल इस शैली को अपनाया और वि.सं.११७७ के शिलालेख में गगन सिंह, शरदसिंह और वीरसिंह के नाम मिलते है।
वि सं ११वी शताब्दी में इसका प्रसार मेवाड़ में भी बहुत तेजी के साथ बढ़ा। मेवाड़ का गुहिल वंश जो कि बाद में सिसोदिया वंश के नाम से जाना जाने लगा ने भी अपने नाम के पीछे सिंह शब्द को जोड़ना शुरू कर दिया।मेवाड़ के गुहिल वंशियों में ऐसे नाम का प्रसार वि.सं. की बारहवीं शताब्दी में हुआ। तब से वैरिसिंह, विजय सिंह, अरिसिंह आदि नाम रखे जाने लगे और अब तक बहुधा उसी शैली से नाम रखे जाते है।

चौहानों में सबसे पहले जालोर के राजा समरसिंह का नाम वि.सं. की तेरहवीं शताब्दी में मिलता है, जिसके पीछे उदयसिंह, सामंतसिंह आदि हुऐं।
१५ वीं शताब्दी के बाद सिंह शब्द पर क्षत्रिय राजपूत समाज ने एकाधिकार कर लिया और सिंह शब्द को नाम के पीछे उपयोग करने वाले को ही राजपूत समझा जाने लगा। इस तरह धीरे-धीरे एक उपाधि से शुरू हुआ यह शब्द जातिसूचक बनकर रह गया। वि.सं सोलहवीं शताब्दी तक, "सिंह" राजपूतों के बीच एक लोकप्रिय उपनाम बन गया था। वि.सं.१७वीं सदी के बाद मारवाड़ के राठौड़ों के बीच सिंह शब्द का प्रयोग प्रचलन में आया । मारवाड़ के राठौड़ों में, विशेषकर वि.सं. की १७ वीं शताब्दी में, रायसिंह से इस शैली के नामों का प्रचार हुआ। तब से अबतक वही शैली प्रचलित है।
गुजरात के चालुक्य वंश के शासक जयसिंह ने सिद्धराज की उपाधि धारण की थी ।
जयसिंह (शासनकाल ईस्वी १०९२-११४२ ) , जिन्होंने सिद्धराज की उपाधि धारण की, वे एक भारतीय राजा थे जिन्होंने भारत के पश्चिमी भागों पर शासन किया। वह चालुक्य (जिसे सोलंकी भी कहा जाता है) वंश के राजवी थे।
चालुक्यों की वाघेला शाखा ग्यारहवीं शताब्दी (शासनकाल ईस्वी १२४४-१३०४) तक सिंह को अंतिम नाम के रूप में इस्तेमाल करती रही।
यही नहीं वर्तमान में सभी क्षत्रिय अपने नाम के अंत में सिंह पद लगाते है|

माहिती संकलन : डॉ भैरवसिंह राओल

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