गाँव में नर्मदा के परिवार को अछूत समझते थे, ऐसा सुनते ही अरुणा ने दंग होते हुए कहा, “यह क्या कह रही हो नर्मदा?”
“हाँ मैडम जी इसी छुआ छूत की शिकार मेरी बड़ी बेटी हुई है।”
“क्या हुआ था उसे?”
नर्मदा भूतकाल की उन यादों में खो गई जिन्हें वह कभी नहीं भूल सकती थी। वह अरुणा को भी अपने साथ वीरपुर की उन्हीं गलियों में लेकर चली गई। वह बोलती जा रही थी एक के बाद एक वैसे ही जैसे सब कुछ घटा था और अरुणा की भी आँखों में शायद वैसे ही दृश्य दिखाई दे रहे थे। अरुणा सुनती जा रही थी, एक फ़िल्म की तरह मानो दोनों ही उसे देख रही थीं।
नर्मदा ने कहा, “मैडम जी यमुना बहुत भावुक थी, समझदार थी। उससे गाँव की महिलाओं की तकलीफ़ देखी नहीं जाती थी। वह गंगा-अमृत से पानी लाने की बार-बार ज़िद करती थी। हम उसे बहुत समझाते थे पर वह तो शायद छुआ छूत के भेद भाव को समाप्त करने की ठान चुकी थी। वह बदलाव लाना चाहती थी। आखिरकार एक दिन मौका मिलते ही वह गंगा-अमृत की तरफ़ दौड़ गई और वहाँ जाकर उसने कहा सरपंच जी हमें भी इस कुएँ का पानी लेने दीजिए। सरपंच ने उसकी बात नहीं मानी। हम उसे वापस बुलाते रहे। वह ज़ोर से चिल्लाई, नहीं अम्मा बाबूजी गंगा-अमृत सबके लिए है। मैं आज उसमें अपनी साँसें मिला दूंगी। फिर गंगा-अमृत सबका हो जाएगा, कहते हुए उसने पानी में छलांग लगा दी मैडम जी।”
नर्मदा तो माँ थी उसकी आँखें तो बरस ही रही थीं लेकिन यह दर्दनाक घटना का आँखों देखा हाल सुनकर अरुणा की आँखें भी रो रही थीं।
नर्मदा कहती जा रही थी, “कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक १४ साल की बच्ची ऐसी हिम्मत कर सकती है। एक सन्नाटा छा गया था वहाँ पर, पानी के अंदर बुलबुलों की आवाज़, कुछ पल तक आई और फिर…,” नर्मदा रोते हुए कुछ कह ना पाई।
नर्मदा के आँसू पोंछते हुए अरुणा ने कहा, “यह सब तो बहुत ही दुःखदायी है। आगे क्या हुआ नर्मदा?”
“उसे बाहर निकाला गया मैडम जी लेकिन ज़िंदा नहीं निकाल पाए; उसी कुएँ में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी।”
“गंगा ने वह सब अपनी आँखों से देखा था मैडम जी इसीलिए उसे तब से कई बार इसी तरह बुखार आ जाता है। शायद वह डर उसके दिलो-दिमाग में छा गया है।”
“नर्मदा तुमने पुलिस…?”
“नहीं मैडम हम लोगों की इतनी औकात कहाँ थी। हमने तो फिर वह गाँव ही छोड़ दिया।”
“परंतु नर्मदा उसके बाद क्या हुआ? क्या तुम सब लोगों को वह पानी मिला?”
“नहीं मैडम जी मेरी यमुना का बलिदान तो यूं ही चला गया। सरपंच ने गंगा-अमृत के शुद्धिकरण के लिए हवन, पूजा, अर्चना तीन दिन का महायज्ञ बिठा दिया था। मानो गंगा-अमृत धुल कर साफ़ हो जाएगा।”
“उसके बाद…?”
“पता नहीं मैडम जी, उसके बाद हम यहाँ आ गए और फिर आप मिल गईं। भगवान को हम पर दया आ गई।”
सौरभ ने भी नर्मदा की सारी बातें सुन ली थीं। उसने फ्रिज में से पानी निकाल कर नर्मदा को देते हुए कहा, “अपने आप को संभालो नर्मदा। जो बीत गया वह वापस तो नहीं आ सकता लेकिन तुम्हारे आने वाले कल अब ऐसे बिल्कुल नहीं होंगे।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः