ममता की परीक्षा - 64 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 64



साधना को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुए लगभग एक महीने का समय बीत चला था। जीता जागता खिलौना पाकर साधना बेहद खुश थी और इस उम्मीद में थी कि अब अचानक किसी दिन गोपाल को लेकर जमनादास उनके सामने आ खड़ा होगा। वो दिन उसके लिए कितनी खुशी का होगा ? इतनी खुशियाँ समेटने के लिए कहीं उसका दामन छोटा न पड़ जाय।
लेकिन पति विहीन पत्नी चाहे जो सोचे, समाज इस घटना को लेकर भी अपने ही नजरिये से सोचने की आदत से मजबूर था। लोगों में साधना को लेकर कानाफूसी शुरू हो गई थी। कोई दबी जुबान में कहता 'सुना है साधना को उसका पति छोड़ गया है लेकिन लोकलाज की खातिर ये बाप बेटी सबसे इस बात को छिपा रहे हैं' तो कोई कहता ' ये लड़की भी अमीरों की अय्याशी की शिकार हो गई। जब तक मन किया अय्याशी की और जब मन भर गया छोड़कर भाग गया वह शहरी बाबू अपनी निशानी साधना के पेट में छोड़कर ' ..जितने मुँह उतनी बातें।

आज तो हद हो गई। उस वाकये से मास्टर जी का व्यथित होना स्वाभाविक ही था। सुबह साईकल से स्कूल के लिए जाते हुए मास्टर एक घर के सामने नाली को पार करने के लिए साईकल से उतरे। साईकल को धकेलकर नाली पार करके मास्टर जी साईकल का हैंडल पकड़े कुछ कदम चले ही होंगे कि उन दो व्यक्तियों की बातचीत उनके कानों में पड़ी।

"यार ! मास्टरजी तो काफी बदले से लग रहे हैं। तबियत ठीक नहीं लग रही इनकी।" एक लड़के ने अपने साथी से पूछा था।
"तू सही कह रहा है यार ! तबियत सही रहेगी भी कैसे इनकी ?जवान बेटी घर में अकेली पड़ी है। भगवान ने नवासा तो दे दिया लेकिन दामाद का आज तक पता नहीं चल पाया है कि वह कहाँ है ?"
उन युवकों की यह बातचीत बड़ी देर तक उनके कानों में गूँजती रही। स्कूल में पढ़ाने का भी मन नहीं किया। प्रबंधकों में से एक को बुलाकर दो दिनों की छुट्टी का दरख्वास्त दे दिया।
शाम को घर आकर भी अनमने से रहे। थोड़ी देर नन्हें अमर को गोद में लिए पुचकारते रहे और फिर उसके सोते ही उसे खटिये पर बिछे हुए बिछौने पर डालकर उसके नजदीक ही बैठ गए। साधना दीया बाती के बाद भोजन के जुगाड़ में लग गई।
अचानक मास्टर जी उठे और आँगन में पहुँच गए जहाँ साधना चुल्हे पर सब्जी पकाकर रोटी के लिए आटा गूँथने की तैयारी कर रही थी।
" बेटा, दो रोटियाँ ज्यादा सेंक देना। सोच रहा हूँ सुबह वाली बस से शहर हो आऊँ।" मास्टर बुदबुदाए थे ,"बहुत दिन हो गए, जँवाई बाबू का हालचाल नहीं मिला। जमना भी नहीं आया। इतने दिन तो नहीं लगते किसी भी इलाज के लिए। लगता है विदेश में हैं। यहॉं होते तो यहाँ अवश्य आते या संपर्क करने की कोशिश करते लेकिन सात समंदर पार से वो भी क्या कर सकते हैं ? हमारे गाँव में किसी के पास फोन भी तो नहीं जिसके ऊपर संपर्क करें।" शीघ्र ही मास्टर बाहर आकर नन्हें अमर के पास आकर बैठ गए।

दूसरे दिन सुबह मास्टर सवेरे शहर जानेवाली बस से सुबह सुबह गोपाल की कोठी पर पहुँच गए। अभी सुबह के नौ बज रहे थे। सड़कों पर लोगों की गजब की भीड़भाड़ थी। हर कोई जल्दी में नजर आ रहा था। अपने घरों से कार्यालयों या काम के जगह की दिशा में एक जन सैलाब जैसा जाते हुए नजर आ रहा था। गोपाल की कोठी पर भी कुछ ऐसा ही नजारा दिख रहा था। कोठी के गेट पर एक छोटा टेम्पो खड़ा था। गेट के बाहर सड़क पर सामान्य व कुछ मजदूर से दिखाई देने वाले लोगों की भीड़ एक कतार में खड़ी थी। गेट के समीप खड़े टेम्पो में से एक नौकर पास ही खड़े एक सेठ के हाथों में छोटे छोटे पैकेट एक एक कर पकड़ा रहा था और वह सेठ कतार में आनेवालों को वह पैकेट देते जा रहा था।

मास्टर जी ने भीड़ में किसी से पूछा, " ये क्या माजरा है ? सेठ जी कौन हैं और क्या बाँट रहे हैं ? "

कतार में खड़े उस व्यक्ति ने जवाब दिया, " सेठ शोभालाल के बेटे गोपाल को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है और उसी की खुशी में सेठ जी गरीबों को मिठाई व कुछ नकदी दान कर रहे हैं। सेठ जी बड़े दयालु हैं। ईश्वर उनको खुश रखें, नहीं तो गरीबों को कौन अपनी खुशी में शामिल करता है ?" कहते हुए वह व्यक्ति कतार में आगे बढ़ गया।

तभी पीछे कतार में खड़ा कोई व्यक्ति चिल्लाया, "अरे चाचा, कहाँ बीच में घुसे जा रहे हो ? पीछे आ जाओ कतार में।"

मास्टर जी कतार के नजदीक से हट गए। यह सेठ कौन है जो लोगों को मिठाईयां बाँट रहा है ? और क्यों ? उनका मस्तिष्क इस प्रश्न का जवाब ढूँढने का प्रयास कर रहा था लेकिन असफल था अब तक। उनकी समझ में नहीं आ रहा था किससे पूछे ? क्या करे ? कोठी के अंदर की साजसज्जा देखकर रात किसी बड़े जश्न के संपन्न होने के संकेत मिल रहे थे। मजदूर कोठी से कुछ साजसज्जा के सामान व बर्तन वगैरह समेट कर कोठी की गेट के बगल में खड़े ट्रक में लाद रहे थे। यह सब सोचते हुए मास्टर के दिमाग में उस व्यक्ति की आवाज भी लगातार गूँज रही थी जिसने बताया था 'सेठ शोभालाल के बेटे गोपाल को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है ' तो क्या सेठ जी को साधना के पुत्र होने की खबर पता चल गई है ? अगर नहीं तो फिर ये कौन से पुत्ररत्न के प्राप्ति की बात की जा रही है ?'

उन्होंने कतार में फिर किसी से सही स्थिति पता करने के बारे में कुछ पूछना चाहा लेकिन सभी अपनी बारी आने में ही दिलचस्पी दिखा रहे थे। एक गरीब से दिखनेवाले बुजुर्ग ने कहा, "भाईसाहब, आप भी कतार में लग जाओ। कम से कम आज की दिहाड़ी तो छूट ही जाएगी। मिठाई मिलेगी सो अलग! सुना है ये सारा खर्च सेठ अम्बादास जी कर रहे हैं।"

उसकी बात सुनकर मास्टर जी को कुछ उम्मीद बँधी। वह बोले, "लेकिन ये सेठ अम्बादास कौन हैं ? और वो क्यों खर्च कर रहे हैं ?"

उस आदमी ने कतार में आगे बढ़ते हुए कहा, " ये जो अपने हाथों से मिठाई बाँट रहे हैं न वही हैं सेठ अम्बादास ! बहुत बड़े उद्योगपति ! और सेठ अम्बादास के बेटी की शादी सेठ शोभालाल के बेटे गोपाल से हुई है। अब सेठ शोभालाल का पोता सेठ अम्बादास का नवासा भी हुआ न ? इसी खुशी में सेठ अम्बादास सारा खर्च कर रहे हैं।" कहकर वह व्यक्ति आगे खिसक गया।

मास्टर जी की टाँगें मानो जवाब दे चुकी हों। इससे पहले कि बेजान टाँगें जिस्म का बोझ संभालने से इंकार कर दें मास्टर रामकिशुन कतार से परे हटकर वहीं फुटपाथ पर बैठ गए।

क्रमशः