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रसोईघर से आज स्वादिष्ट मिष्ठानों की खुशबू आ रही थी। बड़े चाव से अभिलाषा ने खुद अपने हाथों से भांति- भांति के पकवान बनाए थे।
मनोहर और विजेंद्र खाने के लिए बैठा तो थाली में परोसे स्वादिष्ट पकवान देख मुंह में पानी भर आया। उन्होने फिर छककर सारे व्यंजनों के लुत्फ उठाए।
“मां, आपके हाथो में तो जादू है! वाह....कितने स्वादिष्ट पकवान बने हैं!! जी तो कर रहा है आपके हाथ चुम लूं! अर्र...म मेरा मतलब है जवाब नहीं आपके हाथो का!!”- श्यामा के तारीफ के पुल बांधता विजेंद्र बोला। जबकि वहीं पास ही बैठी अभिलाषा उसे आंखें दिखाती रही पर उस तरफ उसका ध्यान न गया।
“जमाईबाबू, ये सारे पकवान अभिलाषा ने बनाए हैं!”- मुस्कुराते हुए श्यामा ने बताया तो विजेंद्र से कुछ बोलते न बना।
“बोलो...बोलो! अब क्या हुआ? मेरी तारीफ करते जिव्हा कांपती है तुम्हारी!!”- शिकायत भरे लहजे में अभिलाषा ने कहा और बच्चों के भांति रुठते हुए अपना मुंह बना लिया।
“तुम्हारे बिना तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं! भला जिव्हा क्यूं कांपेगी मेरी! तुम्हारी तारीफ मतलब मेरी तारीफ! तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया? आं?”- बड़ी चपलता से बातों को सम्भालते हुए विजेंद्र ने सामने बैठी अपनी पत्नी से कहा। पति के मुंह से खुद के लिए ऐसी बातें सुन अभिलाषा का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। पर विजेंद्र की चोर निगाहें श्यामा के योवन में सेंध रही थी जिसके मुख पर बिखरे केश उसके यौवन के उपवन की रखवाली करते प्रतीत हो रहे थे।
घर के मर्दों के बाद खाने की बारी अब अभिलाषा और श्यामा की थी।
“तू बैठ! मैं खाना लेकर आती हूँ।”- अभिलाषा ने अपनी मां से कहा तो अपने कमरे से निकलकर विजेंद्र बाहर आया और जिद्द करके दोनों मां-बेटी को बिठाकर खुद ही रसोई से खाना परोसकर उन्हे खिलाने लगा।
“मुझे बहुत लज्जा आ रही है, जमाई बाबू! हम औरतों के रहते आप खाना परोस रहे हैं! ये ठीक नहीं!”- अपनी शर्मिंदगी जाहिर करते हुए श्यामा ने कहा।
“इसमें शर्मिंदा होने वाली कौन सी बात है, मां! घर पर भी कई दफा ये ही मुझे परोसकर खिलाया करते थे! अच्छा लगता है न जब कोई अपना आपको इतना स्नेह करे तो!”- अपनी ही धून में अभिलाषा तो बोल गई। पर उसकी बातों ने श्यामा को असहज कर दिया।
श्यामा के सम्मुख ही विजेंद्र ने अभिलाषा की थाली से खाने का एक कोर निकालकर उसके मुंह में डाल दिया। अभिलाषा ने भी बड़ी ही सहजता से अपने पति के हाथो से खाने का निवाला अपने मुंह में ले लिया। पर निर्लज्जता की सीमा पार करने पर तुला विजेंद्र यहीं न रुका। पास ही बैठकर भोजन कर रही श्यामा की थाली से एक निवाला निकालकर अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ाया। भौचक्क होकर श्यामा उसे निहारती रही। उससे कुछ बोलते न बना। न तो विजेंद्र के हाथो से निवाला उसने स्वीकार किया और न ही फिर थाली को हाथ लगायी।
“मेरा अब खाने को जी नहीं कर रहा! शायद तबीयत ठीक नहीं!”- बोलकर श्यामा थाली छोड़कर उठने लगी। पर तभी उसके पैर लड़खड़ाए और वह गिर पड़ी। पास खड़े विजेंद्र ने लपककर उसे सम्भाला।
“शायद मेरा हाथो से खिलाना आपको पसंद नहीं आया! गलती हो गई मुझसे, मुझे क्षमा करें!”- हाथ जोड़कर अपनी गलती के लिए माफी मांगते हुए विजेंद्र ने कहा।
“अरे नहीं जमाई बाबू!! ऐसी कोई बात नहीं! आप गलत समझ रहे हैं! सच में मेरा खाने को बिल्कुल जी नहीं कह रहा!”- श्यामा ने विजेंद्र से कहा और अपने चेहरे पर बड़ी मुश्किल से हंसी उंकेरी। पर विजेंद्र का उदास चेहरा देख उसका मन रखने के लिए वह बोली- “अच्छा ठीक है...आप अपना मन छोटा न करें! मैं इसमें से थोड़ा सा खा लेती हूँ!” यह कहकर श्यामा ने थाली से कुछ कोर लेकर अपने मुंह में डाल लिए।
“देख लिया न मां! अब बोल, तुझे कोइ शक है अपनी बेटी की पसंद पर! रुठे को मनाना इन्हे बड़े अच्छे से आता है! मुझे भी ऐसे ही हमेशा अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से मना लिया करते हैं! और मैं भी ठहरी कैसी पगली जो इनकी बातों में आ जाया करती हूँ!”- मुहफट्ट होकर अभिलाषा बोलती रही और उसकी बातों का बिना कोई उत्तर दिए श्यामा अपना खाना खत्म कर उठ गई।
विजेंद्र की आदत थी कि वह चाहे कहीं भी हो, अपने शरीर की देखभाल में कोई कोरकसर नहीं रहने देता था। एकदिन तड़के जब श्यामा की नींद खुली और कमरे से बाहर आयी तो विजेंद्र को वर्जिस करते हुए पाया। लंगोट के अलावा उसने शरीर पर कोई और वस्त्र धारण न किए थे और काफी देर से कसरत करने की वजह से उसका पूरा शरीर पसीने से लथपथ था। उसके बलिष्ट शरीर पर उभरती मांस-पेशियां और उसपर पड़ती सूरज की उदयीमान किरणें उसे और मनमोहक बना रही थी। बड़ी मुश्किल से श्यामा ने अपनी अनियंत्रित होती निगाहों को मर्यादा का एहसास दिलाया और घर के दूसरी तरफ जाकर अपने काम में व्यस्त हो गई।
तभी कमरे में लेटी अभिलाषा ने आवाज लगाया और विजेंद्र उस तरफ बढ़ गया।
“क्या करते हो पतिदेव? बीवी की काया अपने पति के स्पर्श के बिना क्षीण पड़ी है और तुम हो कि अपने शरीर को बलशाली बनाने में लगे हो! मेरी इस काया का तुम्हे जरा भी ख्याल नहीं!”- बिस्तर पर लेटी अभिलाषा ने कामुक होते हुए कहा और विजेंद्र को अपने आगोश में खींच लिया। पर उसे ध्यान ही न रहा कि मां जाग चुकी है। उसकी सारी बातें रसोई में चुल्हे-चौके में व्यस्त श्यामा के कानों में पड़ रहे थे।
“अभिलाषा, भोर हो चुकी है! उठ जा अब! कब तक यूं ही कमरे में पड़ी रहेगी?”- अपनी मौजुदगी का एहसास कराते हुए श्यामा ने आवाज लगाया जिससे पति संग कामक्रीड़ा में लीन अभिलाषा अपने कपड़ों को ठीक करते हुए झट से उठकर कमरे से बाहर चली आयी। चरम को प्राप्त करने में असफल विजेंद्र शरीर की ज्वाला में तड़पता रह गया और कुछ देर वहीं बिस्तर पर निढाल पड़ा रहा।
तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। यह कोई किशोर था जो श्यामा को काम पर बुलाने आया था।
“अभिलाषा, घर के कामकाज तू सम्भाल लेना। मैं जा रही हूँ। शायद कोई जरुरी काम आन पड़ा है इसलिए मुझे बुलावा भेजा है। पिता और पति दोनों को समय पर भोजन करा देना और खुद भी भूखी न रहना!” – काम पर जाने के लिए तैयार होती श्यामा ने अपनी बेटी अभिलाषा को आवाज देते हुए कहा।...
-Shwet Kumar Sinha