बेमेल - 13 Shwet Kumar Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बेमेल - 13

थोड़ी ही देर में किबाड़ खुली और अपना सिर नीचे किए सुलोचना शरमाती हुई खड़ी थी जो विनयधर की लायी साड़ी में बला की खुबसुरत लग रही थी। उसे देख विनयधर की आंखें भी चमक उठी। सुलोचना पर नज़रें टिकाए वह उसकी तरफ बढ़ने लगा। उसे यूं अपनी तरफ बढ़ते देख सुलोचना का दिल जोरों से धड़कने लगा था।...

...“ऐसे मत देखिए मुझे! कुछ-कुछ होता है!”- शर्म से लाल होकर अपनी आंखें मुंदती सुलोचना ने कहा।
“क्या होता है? जरा मैं भी तो सुनूं!”- कहकर विनयधर ने सुलोचना को अपनी बाहों में भरा और उसके माथे को चूम लिया।
तभी कमरे के बाहर से किसी के खांसने की आवाज आयी। यह सुलोचना की सास आभा थी।
“घोर कलयूग है!! मालूम पड़ता है आजकल सबने शरम-हया को धोकर पी लिया है! पता नहीं....अपने घर से क्या सीख कर आयी है!! सरेआम रासलीला करते जरा भी लज्जा नहीं आती! जरा भी फिक्र नहीं कि घर में बुढ़ी सास भूखी पड़ी है और उसे खाना पुछने के बजाय पति संग सरेआम गुलछर्रे उड़ाया जा रहा है....छी छी छी!! हे ईश्वर....ये सब देखने से पहले तू मुझे उठा क्यूं नहीं लेता!”- कमरे के बाहर खड़ी बुढ़ी सास बड़बड़ाए जा रही थी।
“देखिए! देख लिया न मां जी ने! क्या सोच रही मेरे बारे में!”- सुलोचना ने धीरे से कहा और विनयधर कमरे से बाहर चला गया। कुछ ही देर बाद साड़ी बदलकर सुलोचना बाहर आयी और रसोईघर में दाखिल हो गई।
विनयधर की मां ने सुलोचना को नई साड़ी में देख लिया था जिसे देखकर उसके कलेजे पर सांप लोट रहे थे।
“मैं तो जैसे इस घर में हूँ ही नहीं! मुझे तो आजतक कभी किसी ने कुछ लाकर नहीं दिया! और गलती से कभी कुछ देने की बारी आ भी जाए तो घर में पैसे जरुर कम पड़ जाते हैं! मुर्ख नहीं हूँ मैं!! सब समझ में आता है मुझे! घर पर बोझ हूँ न...! जबतक ये ज़िंदा थे तबतक कपड़े-लत्तो की कभी कोई कमी नहीं होने दी! पर उन्होने आंखें क्या मूंदी, मेरा तो पूरी दुनिया ही उजड़ गई! अब इस कलयूग में कौन बेटा-बहू इतना करता है जो ये सब करेंगे!”- बिना रुके बुढ़ी आभा बड़बड़ाती रही।
तभी हाथो में साड़ी लिए सुलोचना अपनी सास के पास आयी। वितृष्णा भाव से सास ने उसपर नज़रें फेरी और हूँकार भरते हुए पुछा - “क्या है ये??”
“मां जी, ये साड़ी आपको पसंद है न!इसे आप रख लिजिए! मैं बाद में फिर कभी ले लुंगी!”- अपने चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरते हुए सुलोचना ने कहा।
“हे ईश्वर.....मेरे इतने बुरे दिन आ गए कि अब बहू के उतरन पहनना पड़े! देखा था मैने तूने ये साड़ी पहन रखी थी। अपने शरीर से उतारी हुई साड़ी मुझे देते तुझे जरा भी लज्जा नहीं आयी! कैसी मां है रे तेरी!! तुझे जरा भी संस्कार नहीं दिए!! छी...छी...छी!! तेरे जैसी बहू लाके मेरे तो करम फूट गए!”- कलपते हुए आभा ने कहा और अपनी छाती पीटने लगी।
“न...नहीं मां जी!! ऐसी बात नहीं है! मैं तो बस देख रही थी कि यह मुझपर कैसा लगता है! आप मुझे गलत न समझें, मां जी! अब भला मुझसे कैसे बर्दाश्त होगा कि जो आपको पसंद हो वो मैं अपने पास रख लूं! आप एकबार पहनकर तो देखिए....आप पर बहुत अच्छा लगेगा!”
“हाँ....ताकि दुनिया समाज ये कहे कि पति के मरने के बाद बुढ़िया इतनी चमक- दमक वाले कपड़े पहन मटकती फिरती है! है न?? मैं सब समझती हूँ तेरी चालबाजी!! तू मुझे समाज में बदनाम करवाना चाहती है! देख ले...विनयधर! तेरी बीवी के कारनामें!”- शिकायत भरे लहजे में अपने बेटे को आवाज लगाते हुए बुढ़ी आभा ने कहा।
“तुझे दूसरी साड़ी चाहिए न! तू चल मेरे कमरे में! सुलोचना, मां को लेकर कमरे में चलो! इसे जो साड़ी पसंद हो, गट्ठर में से निकाल ले!”- अपनी मां के कमरे के दरवाजे पर खड़े विनयधर ने कहा। सास का हाथ पकड़कर सुलोचना उसे अपने कमरे की तरफ ले जाने लगी।
“देख ले मां....तुझे जो भी साड़ी पसंद हो, वो निकाल ले!”- विनयधर ने कहा और ललचाई नज़रों से आभा गट्ठर में रखी साड़ियों की तरफ निहारने लगी। कुछ देर देखने के पश्चात उसे एक साड़ी पसंद आयी और अंगुली से उसकी तरफ इशारा किया। आगे बढ़कर सुलोचना से वह साड़ी निकालकर सास के हाथ में रख दिया।
अपनी पसंद की साड़ी हाथ में आ जाने के पश्चात भी आभा का जी न भरा। भला उसे कैसे मंजूर होता कि सुलोचना खुद इतनी महंगी और उम्दा दर्जे की साड़ी पहने और उसे इस मामूली साड़ी से काम चलाना पड़े।
“ह्म्म....जैसे मुझे पता ही नहीं! गट्ठर में रखी सारी साड़ियां किस किस्म की है! जो अच्छी और महंगी साड़ी थी, उसे तो पहले ही अपनी बीवी के हवाले कर दिया ताकि कहीं कोई मांग न ले और अब मां के सामने खुद को बड़ा आदर्शवादी दिखाने का ढोंग किया जा रहा है! खैर....उपरवाला सब देख रहा है! जाही विधि राखै राम,ताहि विधि रहिए!”- खुद से ही बड़बड़ाती हुई आभा सुलोचना के कमरे से निकल अपने कमरे की तरफ जाने लगी।
अपनी मां के स्वभाव से विनयधर भलिभांति परीचित था। आंखो से इशारे कर उसने पत्नी को अपना मन स्थिर बनाए रखने को कहा। सुलोचना, जिसे अपने पति के प्रेम से अधिक किसी दूसरी चीज से वास्ता नहीं था, उसपर अपनी सास की बातों का जरा भी प्रभाव न पड़ा। बल्कि वह दुखी तो इस बात को लेकर थी कि लाख प्रयासों के बावजूद भी वह अपनी सास की इच्छापूर्ति न कर पायी।
“मुझे भूख लगी है!! खाने को कुछ देगी या भूखा मारने का इरादा है!!!”- अपने कमरे से सुलोचना को उंची आवाज लगाते हुए उसकी सास ने कहा।
“जी,मां जी! अभी लेकर आयी।”- कहकर सुलोचना तेज कदमों से रसोई की तरफ बढ़ गयी।...

क्रमशः...