बेमेल - 3 Shwet Kumar Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बेमेल - 3

…“आइए दीदी, बिटिया को सुला रही थी!अच्छा लगा आप सबको एक साथ यहाँ देखकर। समझ में नहीं आ रहा आप सबको कहाँ बिठाऊं! देख ही रही हैं....यहाँ एक कुर्सी भी नहीं है!” – कमरे में चारो तरफ इशारा करते हुए श्यामा ने कहा फिर अपने पलंग पर जगह बनाते हुए बोली- “आपलोग यहाँ बैठिए! देखिए, आपकी भतीजी भी अपनी बुआ के आने के एहसास से कुलबुलाने लगी है।”
नंदा, सुगंधा और अमृता आंखे गुरेड़कर श्यामा की बातें सुनती रही फिर कमरे में मौजुद अपने पगले भाई मनोहर की तरफ एक नज़र फेरा जो फर्श पर बैठा ढेर सारे खिलौने बिखेरे उनके साथ खेलने में व्यस्त था।
“देखो दीदी, मैने कितना अच्छा घर बनाया न....? इसमें मेरी रानी बिटिया रहेगी!! मैं न....उसे किसी को भी हाथ नहीं लगाने दुंगा! तुम सबको भी नहीं! नहीं तो उसके बदन मैले हो जाएंगे न!!” – अपना मुंह हिला-डुलाकर मनोहर ने कहा और हंस-हंसकर तालियां बजाने लगा, जिसे सुनकर कमरे में मौजुद तीनों बहनों के छाती पर मानो सांप लोटने लगे थें।
श्यामा पर नज़रें गडाए तीनों बहनें फिर उसकी तरफ बढ़ी और उसके बिस्तर तक आकर रुक गई। दीवार के सहारे पीठ टिकाकर श्यामा ने खुद को आराम दिया और बिस्तर की तरफ इशारा कर बोली- “बैठिए न दीदी, खड़ी क्यूं है?”
“बस्स....ज्यादा ढोंग दिखाने की कोई जरुरत नहीं!! तुम जो इतना बनने की कोशिश करती रहती हो न, सब पता है हमें कि तुम्हारे दिमाग में मन ही मन क्या चलता रहता है हमलोगों के लिए! और ये तुम्हारा पागल पति! इसके मन में भी तुमने हम बहनों के लिए ज़हर घोलकर रखा है!! खैर.....हमें क्या! तुम्हारा पति, तुम चाहे जो करो! पर.....इस घर में नहीं!” –घृणित भाव से अपने दांत पीसते हुए नंदा ने कहा।
“क्या हुआ दीदी? मुझसे या इनसे कोई गलती हो गई क्या? अंजाने में कुछ किया हो तो अपना बच्चा समझकर माफ कर दिजिए! वैसे भी छोटे भाई-बहन बच्चे समान ही होते हैं न!” – स्तनपान कराती श्यामा ने अपने हाथ जोड़कर विनती की।
“एक तो तूने इस मनहूस को पैदा किया! धरती पर पैर पड़ते ही जिसने हमारे माँ-बाप को निगल लिया। ऊपर से हम तुझे फल-फुल देते रहे! हुह.....डॉक्टरों का क्या है!! मुंह उठाकर कुछ भी कह दिया! एक बात कान खोलकर सुन ले श्यामा। इस गलतफहमी में जरा भी न रहना कि हम तेरी इस मनहूस औलाद के जन्म देने पर तेरी सेवा और दवा-दारू करेंगे! हुह....बड़ा न तो, फल-फुल देते रहें!! मेरा बस चले तो इस कलमुंही के पैर घर की चौखट पर कभी नहीं पड़ने दे!”- वितृष्णा भाव से नंदा ने बिस्तर पर बैठ स्तनपान कराती श्यामा पर अपने मन की सारी भडास निकाली। पास ही खड़ी संझली बहन अमृता भी उसकी दही में सही मिलाती रही।
श्यामा के लिए खुद पर तो हर चोट गंवारा था। पर गोद में पलते इस अनबोलते बच्ची का क्या कसूर? उसने उन सबका क्या बिगाड़ा था? सास-ससूर ने तो अपना पूरा जीवन जीकर इस संसार से रुख्सत लिया, वो भी इस घर से सैंकड़ों मीलों दूर! फिर इसमें इस बच्ची का क्या कसूर? श्यामा का जी तो चाह रहा था कि सामने खड़ी तीनों ननदों का मुंह नोच ले। पर वह उसके स्वभाव के प्रतिकुल था। खून का घूंट पीकर उसने बड़ी शालीनता से जवाब दिया – “दीदी, ये बच्ची तो अभी-अभी दुनिया में आयी है। संसार में जो कुछ भी घट रहा है उसमें इसका क्या दोष? आप तो पढ़ी-लिखी और समझदार हैं। क्यूं इस बच्ची पर मनहूस होने का कलंक लगाती हो?”
अपने ऊपर एक मक्खी भी न बैठने देने वाली नंदा को श्यामा की बातें चुभ गई और वह तिलमिला उठी।
“क्या कहा तूने!! हम तेरी बेटी पर कलंक लगा रहे हैं! हे प्रभू, ये दिन देखने से पहले हमें उठा क्यूं नहीं लिया!!! आज आखिर तूने एहसास करा ही दिया कि पराये आखिर पराये ही होते हैं! वो मैं ही थी,जो तुझे लेकर अस्पताल गई थी जिससे तेरी जान बच पायी! और इतनी बड़ी बात कहने से पहले तूने एक बार भी न सोचा कि क्या बीतेगी हम बहनों पर! बस...बहुत हो गया!! आज फैसला होकर ही रहेगा! इस घर में हम बहनें रहेंगी या तू!!!”–छाती पीटते हुए नंदा ने कहा। उसे तो जैसे आज सुनहरा मौका मिल गया था,जिसे पूरी तरह भुनाने के फिराक में थी।
“पर दीदी, अगर आप चली गई तो पिताजी ने जो इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है, कौन करेगा उन सबकी देखभाल?” – छोटी बहन अमृता ने कातर भाव से कहा, जिसपर नंदा ने उसे कनखी मारी।
“किसी को अगर इस घर से जाना भी है तो क्यूं न श्यामा और उसका परिवार ही जाए। बगल वाला मकान खाली ही पड़ा है फिर पिताजी ने भी केवल वही मकान इसके पति के नाम किया है!” – नंदा ने घृणित भाव से कहा फिर नौकर को बुलाकर आदेश किया – “आज के आज बगल वाला मकान साफ हो जाना चाहिए! मनोहर बाबू और उनका परिवार अब से वहीं रहेगा! उनका सारा सामान भी वहां पहुंचवा दो!”
उनकी बातें श्यामा चुपचाप सुनती रही। अपनी ननदों के स्वभाव से वह भलिभांति परिचित थी। उसे पता था कि रोने-गिड़गिड़ाने से उनपर कोई असर नहीं पड़ने वाला। इसे ही अपनी नियती मान उसने पति और दुधमुंही बेटी संग अपने हिस्से आए जर्जर मकान में जीवन बसर करना ही बेहतर समझा। कम से कम वहां दिनरात उसे और उसके पति को खरी खोटी सुनाने वाला तो कोई न होगा! पर उसे इसी बात की चिंता खाए जा रही थी कि हवेली से चले जाने के पश्चात अपना और अपने पति का पेट कैसे पालेगी?
“दीदी, मुझे अलग होने में तो कोई परेशानी नहीं! पर हमारा गुजर-बसर कैसे होगा? मुझे खुद की तो कोई परवाह नहीं! पर आपकी भतीजी और भाई का पेट कैसे पलेगा?”
नंदा बडी चपल थी। वह यही तो चाहती थी। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सामने खड़ी बहनों की तरफ देख उसने चेहरे पर कुटिल मुस्कान भरी फिर धूर्तता से कहा- “तु अपनी ननदों को इतना निर्दयी भी मत समझ! हममें प्राण बाकी है अभी! आखिर मनोहर और हमसब ने एक ही मां के कोख से जन्म लिया है। ऐसे ही थोड़े न छोडेंगे तुझे भूखे मरने को! एक काम करना, हमारे यहाँ आकर घर का काम कर जाना! मिलना-जुलना भी लगा रहेगा और चार पैसे भी मिल जाएंगे! फिर तू भी सिर उठाकर जी सकेगी कि मुफ्त की रोटियां नहीं तोड़ती, खटती है तब खाती है! मुझे पता है तू बहुत खुद्दार है! है न? बोल? बोल कि मैंने कुछ गलत कहा?”
“नहीं दीदी! आप गलत कैसे कह सकती है! बिल्कुल सही कर रही है आप!”- श्यामा के मुंह से मायूसी भरे शब्द फूटे और अपने पति पर नज़रें टिकाकर गोद में लेटी बेटी के सिर पर हाथ फेरकर गहरी सांस भरी।
अगले कुछ ही दिनों में सारा सामान बगल वाले मकान में रखवा दिया गया। सामान क्या, सामान के नाम पर श्यामा के पास कुछ जोड़े कपड़े, बिछावन और मनोहर के टोकरी भरके खिलौने से ज्यादा कुछ न था। हवेली के नौकर-चाकर मनोहर और उसके परिवार के साथ हो रहे इस अन्याय के जीते-जाते गवाह थे। पर तीनों बहनों और उनके दबंग पतियों के भय से किसी में कुछ कहने की जुर्रत न थी।
“छोटी मालकिन, मैने पूरे घर की साफ-सफाई करके इसे रहने लायक बना दिया है। कोई भी जरुरत पड़े तो बेझिझक होकर कहना।” – जर्जर मकान को झाड़-पोछकर रहने लायक बना हवेली के सबसे पूराने नौकर बंशी ने कहा। उसने अपनी आधी से भी ज्यादा ज़िंदगी हवेली की सेवा करते बीता दी थी। मनोहर को भी बंशी ने अपने गोद में खिलाया था और उससे उसकी बडी आत्मियतता थी। इतना दान-पूण्य करने वाले राजवीर सिंह के हाथो अपने बच्चों में भेदभाव देखकर वह कुंठित था। पर जानता था कि कैसे तीनों बहनों की ओछी मानसिकता ने मनोहर की सुरक्षा के नाम पर उसे तथा उसके परिवार को लूटा था। आज अगर राजवीर सिंह यहाँ होते तो देखते कि जिस सम्पत्ति और बेटे की रखवाली का ज़िम्मा उन्होने अपनी लाडलियों पर सौंपा था, उन्होने उसका क्या हश्र कर डाला। पर वे तो अपनी अर्धांगिनी संग सांसारिक जीवन त्यागकर ईश्वर की अराधना में निकले तो बैकुंठलोक पहुँचकर ही दम लिये।
“मनोहर बाबू बड़े भोले हैं। इनका ख्याल रखना छोटी मालकिन! आपके सिवा इनका इस संसार में अब कोई नहीं। जरुर उन्होने पिछले जन्म में कोई अच्छे कर्म किए होंगे, जो उन्हे आपके जैसी पतिव्रता स्त्री मिली।”– श्यामा का मान बढ़ाते और उसे हिम्मत देते हुए बंशी ने कहा।
“वैसे बेटा, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ?” – बंशी ने झिझकते हुए कहा।
“काका, मुझे बेटा कहते हो फिर इतनी व्याकुलता क्यूँ? कहो, जो भी कहना है बेझिझक होकर कहो!”
“बेटा, तुम्हारे साथ सबने मिलकर इतना अन्याय किया! फिर भी हर बेज्जती चुपचाप सिर झुंकाकर सह लेती हो। कभी जी नहीं करता तुम्हारा, इन सबके खिलाफ विद्रोह करने का? तुम्हारी ननद-ननदोइयों का बुरा व्यवहार देखकर हम नौकरों का खून खौलता है! कैसे सह लेती हो ये सबकुछ?” – बंशी ने बडी मायूसी से कहा। मन ही मन उसे इस बात का भय भी था कि कहीं श्यामा उसकी बातों का अनर्गल मतलब न निकाल ले कि वह उसके परिवारजनों के खिलाफ कान भर रहा है। पर श्यामा ने तो जैसे सबूरी को एकबार अपने पल्लू में गिरह डाला फिर कभी खोला ही नहीं।...

क्रमशः....