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अग्निजा - 29

प्रकरण 29

केतकी डर गयी थी। नाना को खटिया की जगह नीचे क्यों सुलाया गया? वह बात क्यों नहीं कर रहे हैं? उन्हें कोई दवाई क्यों नही दे रहा? अपने इलाके के डॉक्टर काका तो भीड़ में सबसे आगे खड़े थे, फिर भी उन्होंने इलाज क्यों नहीं किया? दवाई दो...एकदम कड़वी...अरे जरूरत हो तो इंजेक्शन भी दो... लेकिन कुछ तो करो... प्रभुदास चाचा को ले जाने की तैयारी की गई, तो केतकी एकदम दौड़ कर उनकी तरफ गई, लेकिन जयसुख ने अपने दो-तीन मित्रों को इशारा करके उसको पकड़कर रखने के लिए कहा। फुसफुसाहट चल रही थी, जितने मुंह उतनी बातें...बहुत बुरा हुआ...अरे नहीं नहीं..हार्ट अटैक आया...सारी फुसफुसाहटों से दूर प्रभुदास बापू निश्चिंतता से सोए हुए थे। उनके चेहरे पर तेज था और परम शांति। उनके चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो अभी हंस पड़ेंगे या फिर बोलने लगेंगे।

“रामनाम सत्य है....” के घोष के साथ सभी ने प्रभुदास बापू को उठाया और जब बाहर ले गए तो केतकी को ऐसा लगा कि जोर से चीखकर कहे, “ अरे, नाना तो भोलेनाथ के भक्त थे....भोलेनाथ के....” “रामनाम सत्य है....” की आवाज दूर, बहुत दूर निकल गई थी और सभी महिलाएं लखीमां को संभालने में जुट गईं। उनके होश खो गए थे।

केतकी के मासूम मन पर सबने छाप डाली कि नाना भगवान के घर चले गए, अब कभी वापस नहीं आएंगे। लेकिन केतकी ने नाना के बिना इस संसार की कल्पना ही नहीं की थी। वह सिर्फ उसके ही नाना नहीं थे, तो मित्र, गाइड और फिलॉसफर भी थे। कम शब्दों में कहें तो वह उसका सर्वस्व थे। उसके लिए ईश्वर थे। उसके मन में प्रश्न खड़ा उठा कि नाना अपना घर छोड़कर क्यों चले गए होंगे? या फिर सब लोग इधर-उधर अपने काम में व्यस्त रहे होंगे और वह देवदर्शन के लिए मंदिर में चले गए होंगे? सचमुच दर्शन के लिए ही मंदिर गए होंगे या और कोई कारण होगा? लेकिन अब ये बातें या तो नाना को मालूम थीं या उनके भोलेनाथ को। शिवलिंग के पास बैठकर नाना ने क्या कहा होगा, क्या विचार किया होगा, कौन-सी प्रार्थना की होगी, उनके अंतिम समय में दरअसल क्या हुआ होगा?

केतकी उदास हो गई। न जाने कितने ही दिन घर के बाहर ही नहीं निकली। घर के बाहर भी नहीं और शाला भी नहीं गई। सहेलियां खेलने के लिए बुलाने आतीं तो वह मना कर देती। उसने बातचीत करना कम कर दिया था। उसकी अस्वस्थ नजरों को हर तरफ नाना ही दिखाई देते थे। रात को उसे नींद ही नहीं आती थी, जरा सी आंख लगती और वह घबराकर उठ जाती थी। रोज रात को दो-चार बार नाना को जोर से पुकारती थी। अपना दुःख भूलकर अब लखीमांने केतकी की ओर ध्यान देना शुरू किया। लेकिन जैसे ही लखीमां उसे नहलाने या फिर खाना खिलाने लेकर बैठती, तो उसे नाना की याद आती थी। किसी ने लखीमां को टोका, “लड़की की जात है, कहीं दिमाग पर असर हो गया तो पूरा जीवन बर्बाद हो जाएगा इसका।” लखीमां को इतना ही समझ में आता था कि यह यशोदा की अमानत है, दूसरे का बच्चा है। यदि यह खुश रहेगी तो उसके नाना की आत्मा को भी शांति मिलेगी। अब वह अपना जीवन भूल चुकीं और केतकीमय हो गईं। लेकिन प्रभुदास बापू के बिना जीवन कितना कठिन है, यह सिर्फ वही समझ सकती थीं। कितनी-कितनी यादें थीं। वह तो संतपुरुष थे। कभी उनसे ऊंची आवाज में बात नहीं की। भोजन में जो कुछ परोस दें, कभी भी परोसें, भोलेनाथ का प्रसाद समझकर खा लेते थे। केतकी और लखीमां को एक बात ध्यान में आई कि जब तक प्रभुदास बापू जीवित थे, दोनों बहुत नजदीक नहीं आई थीं। क्योंकि आजतक उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। प्रभुदास दोनों को जोड़कर खड़े थे, उनकी ऊष्मा थी।

अब लखीमां और केतकी एकदूसरे में रम गई थीं। यह देखकर जयसुख को अच्छा लगता था, लेकिन अब वह भी अकेला पड़ गया था। सलाह देने के लिए दादा नहीं थे अब। दादा बात कर करता था लेकिन उसका अस्तित्व पूरे घर में व्याप्त था। जयसुख की छत्रछाया चली गई थी। अब उसे ही इस घर की छत्रछाया बनना था। जिस पर ऐसी जिम्मेदारी आए, वही जानता है कि छत बनने के लिए कितनी धूप-बरसातें झेलनी पड़ती हैं और कितने झंझावातों का सामना करना पड़ता है।

अब जयसुख प्रतिदिन ईश्वर से एक ही प्रार्थना करता था कि उसके स्वर्गवासी भाई की आत्मा को शांति मिले इस तरह से यदि वह भाभी और केतकी की देखभाल कर पाया तो ही  वह खुद को सफल मानेगा। पिता की साया तो बचपन में ही खो दिया था लेकिन वह उम्र ऐसी भी नहीं थी कि उस दुःख को समझा जा सके। लेकिन अपने बेटे से भी अधिक प्रेम करने वाले बड़े भाई की मृत्यु ने उसे भीतर तक हिला कर रख दिया था। प्रभुदास के गुजरने के लगभग पंद्रह दिन बाद यशोदा आई, वह भी अपनी चार दिन की छुट्टी पर। लखीमां और यशोदा साथ खूब रोईँ। केतकी भी भावना से मिलकर रोने लगी। भावना को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन सबको रोता देख कर वह भी रोने लगी। रात को केतकी यशोदा की जगह लखीमां के पास सोई। यशोदा को यह देखकर बहुत दुःख हुआ। चार दिनों का सुख भी हाथ से गया मेरा। केतकी ने भावना को समझाया कि मां के पास तुम रहती हो न, अब हमेशा तुम ही रहना, मैं नानी के पास रहूंगी।

यशोदा के मन पर प्रहार हुआ, लेकिन वह कुछ बोली नहीं। “हे भगवान, तुझसे मेरा रत्ती भर सुख भी देखा नहीं गया” वह मन ही मन बोली।

यशोदा दूसरे दिन थोड़ी उदास थी। लखीमां ने बार-बार पूछा तो कारण बताते हुए यशोदा रो पड़ी। लखीमां ने उसे समझाया कि अपने प्रिय नाना की मृत्यु ने उसे दुःख पहुंचाया है। मैंने यदि उसे अपने पास नहीं लिया होता तो वह पागल हो गई होती...और मैं चाहे उसकी कितनी ही देखभाल क्यों न करूं, आखिर तुम उसकी मां हो और यह सत्य अटल रहेगा।

यशोदा चिढ़ कर बोली, “मेरी बेटी? जन्म देने के अलावा मैंने उसका किया ही क्या है? आप लोग थे इसलिए वह जिंदा है, नहीं तो कब की....”

यशोदा घर आई थी इस निमित्त जयसुख बाजार से  सेव-गाठिया लेकर आया। दादा थे तो वह कभी-कभी कहते, “जयसुख आज शाम को चाय के साथ सुबह की रोटी और गाठिया खाएंगे।”

लखीमा, यशोदा, भावना और जयश्री खाना खाने के लिए बैठे। केतकी को आवाज लगाई, लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया। लखीमां बोलीं, “शायद बाहर गई होगी खेलने के लिए.. न जाने वह कितने दिनों से अपनी सहेलियों से मिली नहीं है...” केतकी की चाय पर उन्होंने ढक्कन रख दिया। लेकिन जयसुख को यह जरा अलग सा महसूस हुआ। वह घर के सामने, गली में, मैदान में, बाजार में...सब तरफ उसको ढूंढ़ आया। बच्चे खेल रहे थे, वहां भी पूछ लिया। सहेलियों से भी पूछा, किसी ने  उसे देखा नहीं था।

जयसुख घबराया। भाभी को बताने के उद्देश्य से उसके कदम घर की ओर मुड़े। लेकिन तुरंत कुछ विचार करके वह पीछे की ओर मुड़ा। जल्दी-जल्दी भद्रेश्वर महादेव के मंदिर की ओर चल पड़ा। अंदर आरती चल रही थी। और केतकी बाहर बरामदे में बैठी थी। उसके चारों ओर कुत्ते के पिल्ले इकट्टा हो गए थे और वह उन्हें बिस्कुट खिला रही थी। उसका चेहरा एकदम निर्विकार था। जयसुख  बिना कुछ कहे उसके पास आकर बैठ गया, लेकिन केतकी का ध्यान उसकी ओर गया ही नहीं।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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