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अग्निजा - 5

प्रकरण 5

काल से अधिक गतिमान और कुछ नहीं। काल किसी की परवाह किए बिना अपनी गति से भागता रहता है। आज यशोदा को मायके आकर एक महीना हो गया था। गांव के लोग, आस-पड़ोस के, रिश्तेदार कभी लखीमां को, तो कभी प्रभुदास बापू को टोकते रहते थे। कुछ लोग जयसुख को भी सलाह देने से चूकते नहीं थे। सौ लोग, सौ बातें करते थे, लेकिन सबके कहने का सारांश एक ही था-“बेटी पराया धन होती है। उसे कब तक अपने घर में रखेंगे। झमकू बुढ़िया अब अपना दुःख भूल गई होगी। उसे मनाएं, उसके हाथ-पैर जोड़ें और यशोदा और उसकी बेटी को ससुराल छोड़कर आएं। ब्याहता बेटी ससुराल में ही अच्छी लगती है।”

तीनों को ही लोगों की सलाह मंजूर थी। लोग गलत नहीं कह रहे थे। लखीमां बोलीं भी, “झमकू बुढ़िया को भी अपने सूद की आस तो होगी ही न। वह भी अपनी पोती की राह देख रही होगी...समय की मार के कारण वह गुस्से से भरी हुई थी। लेकिन उसकी नाराजगी हमेशा के लिए थोड़े ही रहेगी। हम जाकर उसको समझाएंगे तो वह तुरंत तैयार हो जाएगी, देखते रहिए...” जयसुख भी इस पर तुरंत सहमत हो गया, “सच कहती हैं, आप कुछ दिन दीदी और उसकी बेटी के साथ रहेंष मैं खुद झमकू दादी के हाथ-पैर जोड़कर, उनके सामने अपनी नाक रगड़ूंगा, कान पकड़ूंगा और देखिए उनका मन बदलकर ही लौंटूगा।”

छोटी को खिलाते-खिलाते प्रभुदास बापू बोले, “बच्ची, चाचा को भेजा जाए न...? चलो तुम उत्तर मत दो, भोलेनाथ जो करेंगे वही सही...” इतना कहकर भोलेनाथ के भक्त एक बार फिर अपनी नई, जीते-जागती छोटी-सी दुनिया में खो गए। 

प्रभुदास बापू दिन-भर छोटी के साथ खेलते, उसे कहानियां सुनाते, गंगावतरण, नंदी का पराक्रम, शिव-पार्वती की कहानी, गणेश-कार्तिकेय की बाललीलाएं, श्रीगणेश के प्रिय मूषक की कहानियां....उसे सुनाते रहते थे। छोटी एकटक उनके मुंह की ओर देखती रहती थी। कभी हाथ हिलाती तो कभी पांव ऊपर-नीचे करती। लेकिन गोद में लेने के बाद प्रभुदास बापू यदि चुपचाप रहें तो उसे अच्छा नहीं लगता था। वह रोने लगती थी। उसको कहानियां सुनना अच्छा लगता था। लखीमां अपना सिर हिलाकर मुस्कुराते हुए कहतीं, “भक्त पहले से ही खाली बैठे थे। कोई काम नहीं है, उसमें से अब एक ये आ गई है कहानियां सुनने वाली। अब पूछना ही क्या... इधर तो अब मंदिर जाना भी कम हो गया है...भगवान को ऐसे भूल जाना भी ठीक नहीं....समझे क्या...”

इतना सुनते ही प्रभुदास बापू हंस पड़ते। बोलते, “मेरे आंगन में साक्षात लक्ष्मी आई है, तो अब यह घर ही मंदिर और यही काशी-मथुरा। बाकी भोलेनाथ की इच्छा। ”

लखीमां, जयसुख की वापसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। जयसुख झमकू बुढ़िया से मिलने के लिए गया था। यशोदा को भी, अधिक तो नहीं, लेकिन थोड़ी तो आशा थी कि सास यदि तैयार हो जाए, तो अच्छा ही होगा। वह राजी होगी क्या? परंतु जयसुख काका कुछ और ही निर्णय लेकर वापस आए। मैच ड्रॉ हो गया था मानो। “झमकू दादी घर में ही नहीं थी...कहीं दूसरे गांव में देवदर्शन के लिए गई थी।” लखीमां ने जयसुख की ओर देखा और कहा, “ठीक है, कुछ दिनों बाद फिर से एक चक्कर मार आइएगा। ” जयसुख फिर वहां गया, लेकिन लौटा तो मुंह उतार कर। उसने कोने में बैठे प्रभुदास बापू को सुनाई दे इतनी धीमी आवाज में खबर सुनाई, “झमकू बुढ़िया ने दरवाजा ही नहीं खोला। अंदर से ही वह यशोदा, उसकी बेटी और हम सबको न जाने क्या-क्या कहती जा रही थी। गालियां दे रही थी। बाहर आसपास के लोग इकट्ठा हो गए थे। झमकू बुढ़िया बोली कि यदि आप लोगों को वो दोनों भारी पड़ रही हों तो उन्हें कुएं में ढकेल दें। मेरे घर में उन दोनों कलमुहिंयों के लिए कोई जगह नहीं है।”

प्रभुदास बापू ने आंखों के किनारे आए आंसुओं को पोंछा। फिर छोटी की ओर देखा। वो तो हंस रही थी। उन्होंने भी हंसने का प्रयत्न किया। “भोलेनाथ करेंगे वही सही...” तभी बाहर से आई लखीमां दौड़कर जयसुख के पास गईं, “वहां क्या हुआ? वह लेने के लिए नहीं आ रही हों, तो हम ही लोग उसे वहां छोड़ आएंगे।”

“भाभी, वैसा कुछ नहीं है। कुछ दिन गुजरने दीजिए। मुझे लगता है कि वह खुद ही यशोदा को लेने के लिए आएंगी।”

यशोदा की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था, लेकिन उसने सबकुछ सुन लिया था। “जयसुख चाचा, आप झूठ बोल रहे हैं। और अब झूठी आशा बंधाइए भी मत। हम मां-बेटी के लिए अब या तो यही घर है या फिर ऊपर वाले का घर। ”

लखीमां एकदम उसके पास दौड़ीं, “ऐसा क्यों बोलती हो?”

“मां, अब उस घर से मेरा संबंध खत्म हो गया, हमेशा के लिए। आप लोग जब तक रखेंगे, तब तर यही हमारा घर होगा, नहीं दो हम दोनों के पास कुएं में गिरने के अलावा कोई विकल्प नहीं। ”

“बेटा, ऐसा मत बोलो। मेरे जीवित रहते तक यही तुम्हारा भी घर है। और ऐसा कुछ कहने से पहले जरा उस छोटी बच्ची का विचार तो किया करो।”

“छोटी, छोटी, छोटी....संकटों की गठरी बनकर ही आई है यह छोटी....बदनसीब अब तक जी रही है...हंस रही है...नसीब में पिता नहीं...पिता का घर नहीं...अरे, अब तक एक नाम भी नहीं है उसके नसीब में।”

“अरे बेटा, हमें ऐसा लगा था कि तुम जब ससुराल जाओ तब वहां इसका नामकरण किया जाए। ”

यशोदा ने अप्रसन्नता के साथ कहा, “पर वो दरवाजे तो हमेशा के लिए बंद हो गये न...?”

“बेटा, भगवान जब एक दरवाजा बंद करते हैं न तो दूसरे दस दरवाजे खोलते भी हैं।” लखीमां ने यशोदा को धीरज बंधाते हुए कहा। 

प्रभुदास बापू ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “मेरा भोलेनाथ जो करेगा, सही करेगा।”

यशोदा हिचकियां लेने लगी, रोते-रोते बोली, “आपके मुंह में हमेशा भोलेनाथ का नाम होता है। मां ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, फिर भी हमें उसका यह फल मिला? अपने भोलेनाथ से पूछें कि इसका कोई नाम रखा जाए या घोड़ी होते तक उसे छोटी छोटी ही पुकारते रहा जाए?”

“ऊपर वाले के मन में क्या है, वह हमको समझ में नहीं आता बेटा। कुछ अच्छा ही करने वाला होगा वह। ”

“अच्छा? बहुत अच्छा किया है उसने...है न? इससे भी अच्छा यदि उसे करना हो, तो वह भी कर डालो कहना। ये अच्छा नहीं किया, शाप दिया है शाप....आपके शंकर ने।”

“ऐसा? तुमको लगता है कि भोलेनाथ ने शाप दिया है? तो फिर आज से इसका नाम केतकी... हे भोलेनाथ, कहते हैं तुम्हारी पूजा में केतकी का फूल नहीं चढ़ता, लेकिन आज से इस बच्ची को तुम्हारे हवाले ही करता हूं मैं। इसकी देखभाल तुम ही करो। भोलेनाथ, तुम्हारे और विष्णु की लड़ाई में केतकी के फूल ने झूठ का पक्ष लिया था, यह सच है लेकिन मेरी केतकी तो अभी अबोल, निष्पाप है... भोलेनाथ का गुस्सा शांत होने पर केतकी के फूल ने उनसे अनुनय किया था और बताया कि उसने विष्णु की बात पर विश्वास किया था। फिर भला मैं क्यों शापित? तब भोलेनाथ ने कहा कि तुम केतकी के नाम के साथ और केवड़ा के नाम से भी पहचानी जाओगी और केवड़ातीज के दिन सिर्फ तुम्हारे फूलों से ही मेरी पूजा होगी। इस दिन तुम्हारे फूलों से मेरी पूजा करने वाले भक्तों को साल-भर मेरी पूजा करने का फल प्राप्त होगा। बात सबकी समझ में आई कि नहीं?और मेरे प्रिय महादेव, आज से तुम ही इसके पिता, तुम ही इसके रक्षक। यशोदा, जाओ अंदर से थोड़ी-सी शक्कर लेकर आओ तो जरा....”

यशोदा शक्कर लेकर आई। छोटी को एक चादर पर सुलाया और चारों ने मिलकर चादर का एक-एक कोना पकड़कर उसे उठाया। झूले की तरह झुलाया....प्रभुदास बापू बोले, “महादेव का नाम लें और अब इसका नाम रखें।”

लखीमां ने सोहर गाए. “बेटी के रूप में मिली सौगात...भोलेनाथ ने रखा केतकी नाम....” प्रभुदास बापू ने केतकी को उठाया और उसके दोनों पावों को अपने माथे से लगा लिया, “इसे आज से महादेव का प्रसाद समझा जाए। इसको जो कोई दुःख देगा उसे भोलेनाथ देख लेंगे।”

उसी समय केतकी जोर-जोर से रोने लगी। वह रो तो नहीं रही थी, फिर इतनी जोर से चीख क्यों रही थी, किसी को समझ में नहीं आया। सिर्फ प्रभुदास बापू उसकी तरफ शांतचित्त से देखते रहे। 

“मेरे महादेव का आशीर्वाद उतरा है इस योगमाया पर, चलो माते, हम महादेव के ही मंदिर में जाएंगे...” ऐसा कहते हुए प्रभुदास बापू ने केतकी को गोद में उठाया और वह महादेव के मंदिर में जाने के लिए निकल पड़े तो उनके कंधे से केतकी सबकी तरफ देखकर हंस रही थी। और उसके लंबे, काले घने और रेशमी चमकदार बाल हवा में उड़ रहे थे और दूर मंदिर में आरती का घंटानाद चालू हो गया था....

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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