प्रकरण 11
प्रभुदास बापू का मन कहीं लग ही नहीं रहा था। सुबह उठने पर उनका चेहरा देखते साथ लखीमां ने बोलीं, “आज ठीक नहीं लग रहा है क्या?” प्रभुदास बापू ने उत्तर दिया, “भोलेनाथ की इच्छा।” लखीमां ने उनके माथे पर हाथ रखा। “बुखार तो नहीं है। रात में नींद नहीं आई क्या?” प्रभुदास बापू ने निःश्वास छोड़ा, “ नींद तो मेरी केतकी के साथ ही निकल गई।” लखीमां ने उनकी ओर देखा और दुःखी स्वर में पूछा, “आप ही यदि ऐसा करेंगे तो कैसे चलेगा? बच्चा अपने घर में हैं। भगवान से प्रार्थना करें कि उसे सुखी रखे। हम भला और क्या कर सकते हैं? चलिए उठिए अब। मैं नाश्ता तैयार कर रही हूं। आप जप कर लें। नाश्ता करने के बाद मंदिर जाएं।”
“मंदिर में भी आखिर क्या है? वहां महादेव की ओर देखता हूं, तो मुझे केतकी दिखाई देती है। मेरा भगवान जैसे मुझसे नाराज होकर पूछता है कि तुम केतकी की ओर ध्यान नहीं दे रहे हो...सच कहूं तो अब मेरा ध्यान भगवान की ओर भी नहीं लगता। कहीं भी मन नहीं लगता।” नाश्ते के बाद सबसे जैसे-तैसे भोजन निपटाया। किसी ने भी ठीक से नहीं खाया। भोजन के बाद लेटे ही थे कि पड़ोस के लड़का दरवाजे पर दस्तक देकर बाहर से ही चिल्लाया, “जयसुख चाचा, पान की दुकान पर आपके लिए फोन आया है...” प्रभुदास बापू बिना कुछ बोले मन ही मन भगवान को याद करने लगे। लखीमां ने जयसुख चाचा की ओर देखा। वह पैरों में चप्पल अटका कर बाहर निकल ही रहे था। पान की दुकान के पास आकर पीसीओ का फोन उठाया। हैलो बोला और उसके एक मिनट बाद तक सिर्फ सुनने का काम करता रहा। उसके बाद चुपचाप रिसीवर रख दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ा था। पैर लड़खड़ा रहे थे। उसे ऐसा लग रहा था कि वह कहीं यहीं तो गिर नहीं जाएगा। पान खाने वहां पहुंचे उसके मित्र रमेश ने उसकी ओर देखा, तो उसे आश्चर्य हुआ। उन्होंने जयसुख का हाथ पकड़ते हुए पूछा, “क्या हुआ जया? सब ठीक है न?” जयसुख तुरंत होश में आया, “अं...हां, हां...तुम्हारी बाइक कहां है? मेरे साथ चलो तो जरा...” रमेश ने पान मुंह में दबाया और बाइक पर किक मारी।
रमेश ने पूछा, “क्या हुआ? कहां जाना है?” जयसुख ने केवल इतना ही कहा, “धीरे-धीरे चलाओ, आजू-बाजू देखते हुए चलो।” “लेकिन हुआ क्या है, ये तो बताओ?” रमेश की उत्सुकता अब चिंता में बदलती जा रही थी। लेकिन उसे उत्तर देने के बजाय जयसुख चाचा के कानों में आवाज घूम रही थी, “ आपकी बेटी अपने सिर का बोझ लेकर घर से भाग गई है। अब वह मिले या मरे, हमको कुछ न बताइएगा।” रणछोड़ दास के ये कटु शब्द उसके कानों में घूम रहे थे। वो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रास्ते के दोनों तरफ देख रहा था। कुआं दिखता तो उसमें झांककर देखता। रेलवे पटरी पर दूर तक जाकर देख रहा था। अब रमेश से रहा नहीं गया। वह जयसुख के दोनों हाथ पकड़कर बोला, “ पहले मुझे बताओ कि हुआ क्या है?” अपनी आंखों में आंसुओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए वह केवल इतना ही बोल पाया, “यशोदा बहन अपनी बेटी को लेकर अपने घर से कहीं निकल गई है...दामाद बाबू का फोन आया था। लेकिन उनकी आवाद से चिंता नहीं झलक रही थी।”
उसके बादो दोनों करीब दो घंटे रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, टैक्सी स्टैंड, कुएं तलाशते रहे। एक-दो सरकारी अस्पतालों में भी पूछताछ की। आखिरकार थक-हार कर जयसुख घर वापसी के लिए निकला। माता-पितातुल्य उसके भाई-भाभी इस आघात को कैसे सहन करेंगे, उसे इसकी ही चिंता खाए जा रही थी। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह था कि यह बात उन्हें किस तरीके से बताई जाए। वह इस तरह से चल रहा था जैसे उसके पैरों में तो मानो मनों बेड़ियां जकड़ी हुई थीं। घर पहुंच कर दरवाजे पर दस्तक देने की भी उसकी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन वह दरवाजे की कुंडी बजाता, इसके पहले ही दरवाजा खुल गया। सामने लखीमां खड़ी थीं। उन्होंने चिंतामिश्रित ममता भरे शब्दों में पूछा, “बिना कुछ कहे-बताए कहां निकल गये थे? अब तक दस बार दरवाजा खोलकर आपको देखा।”
जयसुख बिना कुछ बोले ही अंदर आ गया। सामने ही बड़े भाई बैठे हुए थे। उनके हाथ में जपनी थी। वह उसे घुमा रहे थे, लेकिन उनके मन में अनेक विचारों का तूफान उठ रहा था। इस कारण वह बेचैन थे। उनकी नजरें जयसुख के चेहरे पर थी। लखीमां तुरंत अंदर जाकर पानी भरा लोटा लेकर आ गईं। “ पहले पानी पी लीजिए। थोड़ा आराम कीजिए फिर जो कुछ हुआ वह बताइए।”
जयसुख ने लोटा हाथ में लेकर भाई-भाभी की ओर देखा, और वह किसी छोटे बच्चे की भांति रोने लगा। लखीमां उनके पास आईं। प्रभुदास बापू ने उन्हें इशारे से रुकने के लिए कहा, लेकिन लखीमां से रहा नहीं गया। उन्होंने पूछा, “क्या हुआ जयसुख भाई, मुझे बताइए तो जरा...” लेकिन जयसुख चुप रहकर रोते ही रहा।
प्रभुदास और लखीमां की बेचैनी चरम पर पहुंच गई। उसमें चिंता थी और जयसुख के प्रति ममता भी। उसी के साथ, असल में हुआ क्या है, इसका डर तो समाया हुआ था ही।
भले ही तीनों मौन थे, लेकिन जैसे उनका दुःख आपस में बात कर रहा था। व्यथा असह्य हो चली थी। जयसुख ने रोना बंद किया। घर में दो-चार क्षणों के लिए नीरव शांति पसर गई, ऐसी कि मानो सबका अस्तित्व ही जम गया हो। तभी दरवाजा बजा...और लगातार बजता ही रहा...ऐसा लग रहा था कि आगंतुक में जरा भी धीरज नहीं। आवाज बढ़ती ही चली जा रही थी। प्रभुदास और जयसुख दरवाजे की तरफ देखते ही रहे। लखीमां ने दौड़कर दरवाजा खोला और यशोदा, केतकी को लेकर उनके पैरों पर गिर पड़ी।
करीब दो घंटे बीत गए और सभी लोगों को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। यशोदा की बातों से उसकी वेदना और व्यथा स्पष्ट हो गई। उसे अब ससुराल नहीं जाना है, ये भी साफ हो गया था। वहां मां-बेटी दोनों की जान को खतरा है-यह स्पष्ट हो गया था। उसमें भी, बड़ा धोखा केतकी को है। लेकिन अपनी जान की या फिर भविष्य की परवाह न करते हुए केतकी तो अपने नाना की गोद में से जाकर शांति से बैठ गई थी। प्रभुदास बापू ने भी अपनी जपनी किनारे रख दी थी। वह केतकी के सिर, पीठ और गालों पर ममता का हाथ फिरा रहे थे। जयसुख बाहर से उसके लिए चॉकलेट, गोलियां और बिस्किट लेकर आ गया। नन्हीं केतकी को अब इतने प्यार-दुलार की आदत ही नहीं रह गई थी। उसे बेचारी को तो इस सब पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। यशोदा की कहानी सुनकर लखीमां के कलेजे को बड़ा कष्ट हुआ। लेकिन फिर भी वह यशोदा की हिम्मत की बार-बार प्रशंसा कर रही थीं। लेकिन उन्होंने रणछोड़ दास या फिर शांति बहन के लिए अपने मुंह से एक भी गलत शब्द का प्रयोग नहीं किया। प्रभुदास बापू ने तो यशोदा आई उसके बाद से एक भी शब्द का उच्चारण नहीं किया था। वह जाने-माने ज्योतिषी थे और भविष्यवक्ता होने के बावजूद वह जिस यातना गुजर रहे थे, उसके बारे में किसी को बता पाना कठिन था। भगवान श्रीकृष्ण इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि उनके वंशज यादवकुल का नाश करने वाले हैं, फिर भी वह नियति को रोक पाने में असमर्थ थे।
लखीमां ने यशोदा को अत्यंत अनुरोध के साथ थोड़ा सा खिलाया। उसके बाद उसे आराम करने के लिए अंदर ले गईं। केतकी के सिर के ऊपर से वैद्यराज के फिरने वाले वात्सल्यमय हाथों ने केतकी की वेदनाओं को तो कब का दूर कर दिया था। लखीमां ने कितनी ही बार कहा, लेकिन वह अपने नाना की गोद से उतरी ही नहीं। प्रभुदास बापू ने हल्के से हंसते हुए लखीमां को रोका, “रहने दो, मेरी बेटी का बहुत बड़ा विरह है। मुझे भी उसके होने से अच्छा लग रहा है। आप यशोदा को संभालें. और हां, बहुत पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है। वह अपने आप जितना बता दे, उतना सुन लें। भोलेनाथ की जैसी इच्छा होगी, वैसा ही होगा।”
लखीमां अंदर गईं। यशोदा को नींद आ गई थी, लेकिन उसके चेहरे पर तनाव और चिंता साफ दिखाई पड़ रही थी। वह तो जैसे नींद में भी रो रही थी। लखीमां ने धीरे से उसके आंसू पोंछे, पहले अपनी बेटी के और फिर अपनी आंखों के।
बाहर, प्रभुदास बापू अपनी गोद में सो रही केतकी की तरफ वात्सल्य से निहार रहे थे। उसके रेशमी, काले, चमकदार बालों पर हौले-हौले हाथ फेर रहे थे। पास ही बैठे मनसुख के मन में विचार आया कि प्रेम और ममता में कितनी ताकत है... इंसान को प्राणवायु की ही तरह इनकी भी आवश्यकता होती है। उसको समझ में ही नहीं आ रहा था कि अपने इन देवता जैसे भाई-भाभी ने कभी सपने में भी किसी का बुरा नहीं चाहा था, फिर उनके ही नसीब में ही ऐसा क्यों? और न जाने कितना और सहन करना पड़ेगा इन लोगों को। इकलौती बेटी का विधवा होना और अब उसका इस तरह वापस लौटना?
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह
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