प्रकरण 6
प्रभुदास बापू का घर से बाहर निकलना बंद हो गया। एकदम बंद भी नहीं कह सकते, वैसे वह केतकी को लेकर सुबह-शाम महादेव के मंदिर में आरती के समय पर जाते थे। परंतु, अपना बचा हुआ बाकी सारा समय केतकी के साथ बिताते थे। उससे खेलते, उसे खिलाते, सुलाते, जगाते....इन्हीं कामों में उनका सारा समय बीत रहा था। नाना पूरी तरह नातीमय हो गए थे। केतकी भी अपने नाना से इतना लगाव हो गया था कि कोई उसे उनकी गोद से उतार ले, जो दहाड़ मारकर रोने लगती थी। उठाने वाला उसे जैसे ही नाना की गोद में डाल देता, उसका रोना बंद हो जाता था। यशोदा दोनों की तरफ आश्चर्य से देखती थी। “कल तक बदनसीब समझी जाने वाली लड़की आज एकदम भाग्यवान साबित हो रही है। भोलेनाथ, आपके बड़े उपकार हैं।” लकीमां चिढ़ाती थीं, “इतना प्रेम तो इन्होंने मुझसे भी कभी नहीं किया। ” जयसुख हंसकर पूछते थे, “क्यों भाभी, भैया ने क्या कभी मुझे इस तरह से खिलाया था?” भाभी कहतीं, “सच बताऊं, आपको और अपनी लाड़ली यशोदा को उन्होंने खूब खिलाया था, लेकिन इतना नहीं। ”
प्रभुदास बापू के हमउम्र दोस्त उनका मजाक बनाते. “लैला-मजनू, शिरी-फरहाद की जोड़ी भी नाना-नाती के प्रेम के आगे फीकी पड़ गई हैं...इस जोड़ी का नाम रखा जाए पी.के. ये पीके की जोड़ी इतनी एकाकार हो गई थी, कि यशोदा केतकी को दूध पिलाने के लिए उठाकर ले जाती तो वह रो-रोकर घर सिर पर उठा लेती थी। ”
समय निर्विकार भाव से आगे बढ़ता चला जा रहा था। बिलकुल समय से और अपनी निर्धारित गति से। किसी भी भी परवाह न करते हुए। और फिर काल ने एक नया मोड़ लिया।
एक दिन जयसुख अपने दोस्त के रवजी के चाचा को, कानजी चाचा के घर लेकर गया था। चाय-नाश्ते हो जाने के बाद कानजी चाचा मुद्दे पर आए। “मेरे दूर के रिश्ते में एक व्यक्ति है। उसका परिवार खा-पीकर सुखी है। पैसे वासे हैं। एक बिना मां का बच्ची और दादी-बस इतने की लोग परिवार में हैं। दादा गांव में भिक्षुकी करते हैं और वहीं रहते हैं। रिश्ता अच्छा है,विचार करें। किसी स्त्री के लिए सारा जीवन अकेले गुजार पाना आसान बात नहीं है।ये रिश्ता जम गया तो दो लोग सुखी हो जाएंगे, और दो बिना मां की बच्चियां भी सुखी हो जाएंगी, पुण्य लाभ तो होगा ही। मैंने जयसुख को सारी जानकारी दे दी है...इस रिश्ते को हाथ से जाने मत दीजिए। उन लोगों को कुछ नहीं चाहिए। दान-दहेज की मांग नहीं है। लड़की, नारियल और आशीर्वाद बस इतनी ही अपेक्षा है। कोई जल्दी नहीं है, आप आराम से विचार करें और बाद में बताएं। ”
लेकिन यशोदा को जल्दी भी नहीं थी और विचार भी नहीं करना था। “मुझे एक ही जन्म में दूसरा जन्म नहीं लेना।” इतना कहकर वह रोने लगी। लखीमां ने उसके सिर पर हाथ रखा, “पागल हो क्या। तुम दोनों हमारे लिए बोझ नहीं हो। तुम दोनों को आजीवन पाल-पोस सकें, ईश्वर ने इतना दिया है हमको...” जयसुख चाचा ने भी अपनी भाभी के हां में हां मिलाई, “हम तो तुम्हारे हैं ही। पर तुमको अपना सारा जीवन काटना है अभी। और फिर केतकी के भविष्य का भी विचार करो।ये देखो उसका फोटो।” जयसुख चाचा ने फोटो सामने रख दिया। लेकिन यशोदा ने उसकी ओर देखा भी नहीं। लखीमां ने फोटो देखा और प्रभुदास बापू के सामने रख दिया। वह कुछ देर तक फोटो की तरफ देखते रहे। उसके बाद आंखें बंद करके पूछा, “नाम क्या है लड़के का?”
जयसुख चाचा ने बताया, “रणछोड़ दास...परिवार के सब लोग अच्छे हैं। पहली पत्नी दूसरे प्रसव के समय गुजर गई। एक बच्ची है दो-तीन साल की, खुद का घर है, ऐसा कान जी चाचा बता रहे थे। ”
प्रभुदास केतकी को उठाकर बोले, “भोलेनाथ की जैसी इच्छा होगी, वैसा होगा।” प्रभुदास बापू शिवमंदिर की ओर निकल गए। यशोदा उठकर रसोईघर में चली गई। लखीमां और जयसुख चाचा दोनों ने फोटो को उलट-पलट कर देखा. “दिखने में बहुत बुरा भी नहीं है।”
जयसुख ने भी अपनी भाभी की हां में हां मिलाते हुए कहा, “भाभी, यशोदा और केतकी अपने अधिकार के घर में सुखपूर्वकर रहने लगें तो हम लोग चैन से आंखें बंद कर सकेंगे। मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग एक बार इनसे मिल लें। बड़े भैया तो संत हैं, उन्हें व्यवहार की समझ नहीं है। आप यशोदा को समझाएं। कम से कम रिश्ता देख तो लें...न पसंद आए तो मना कर देंगे... कोई जबरदस्ती थोड़े ही है। ”
यशोदा को सभी लोगों ने समझाया। लखीमां, जयसुख चाचा, सहेलियां, अड़ोस-पड़ोस, दूर-पास के रिश्तेदार और गांव के न जाने कितने की समझदार लोगों ने उसे समझाया, “औरत जात का अकेले रहना ठीक नहीं है।” और इतने उदाहरण उसके सामने रख दिये कि उस बिचारी ने रिश्ते को देखने के लिए हामी भर दी। और अधिक सलाह सुनने और अकेले रहने के डर से वह तैयार हो गई। उसके मन में भीतर कहीं एक आशा जागृत हो गई कि मेरी केतकी को पिता मिल जाएंगे। उसका भविष्य संवर जाएगा।
और, फिर एक दिन शाम को चार मेहमान घर पर आए। रणछोड़दास का चेहरा कठोर, बाल छोटे-छोटे और तंबाकू से सड़े हुए दांत। कॉफी रंग की पैंट के ऊपर लाल फूलों वाला नीला शर्ट और पैंट-शर्ट को बांधने वाला काला चमड़े का बेल्ट उसके बीचोंबीच शेर के चित्र वाला बकल। पैंट की पिछली जेब से झांकता हुआ सफेद कंघा। सस्ते परफ्यूम का तेज सुगंध, और बिना वजह लोगों की ओर टकटकी लगाकर देखने की आदत।
उसके साथ उसकी मां शांति बहन। उन्हें देखकर पुराने जमाने की फिल्म का कोई चरित्र घर आया हो, ऐसा लग रहा था। हरी साड़ी, सिर पर बड़े से जूड़े पर लगाया हुआ गजरा। लाल पर्स, कमर में चाबी का गुच्छा, उसमें लटक रही चाबियों की संख्या देखकर तो ताला-चाबियां भी शरमा जाएं। उसकी आंखों के इशारों पर रणछोड़ दास उठता-बैठता था। पानी पीना है कि नहीं, यह भी उसके इशारे पर तय करता था। तीसरी थी छोटी जयश्री, रणछोड़दास की बेटी। पिता की तरह इधर-उधर आंखें घुमाकर देखने की आदत और दादी की ही तरह हुकुम चलाने की इच्छा उसकी इस छोटी सी उम्र में भी उसके चेहरे पर साफ दिखाई पड़ रही थी। चौथे व्यक्ति थे कानजी चाचा। अवसर के अनुरूप दिखन के लिए पायजामा शर्ट के साथ कोट पहनकर आए थे। इस वजह से वह कुछ अजीब से दिखाई दे रहे थे, लेकिन भाग्यवश इसकी जानकारी उन्हें खुद नहीं थी। वह लगातार नस खींच रहे थे और रणछोड़ दास की लगातार बिना थके तारीफ करते जा रहे थे।
कानजी चाचा ने अपने मैले-कुचैले कोट की जेब से काली पड़ चुकी चांदी की डिब्बी से चुटकी में नस भरी। इसके बाद शरीर के प्रत्येक कण-कण तक वह नस पहुंच सके इस मकसद से एक जोरदार सांस खींची। इसके कारण उन्हें एक के बाद एक छींकें आने लगीं। आठ-दस छीकों के बाद उन्होंने किसी विजेता के भाव से सभी लोगों की तरफ दृष्टि दौड़ाई और जेब से मुड़ा-तुड़ा रुमाल निकालकर नाक पोंछी।
“तो मुद्दे की बात यह कि मैंने आज तक झूठ नहीं बोला है। जरूरत ही नहीं पड़ी वैसी। रणछोड़ दास पिछले बारह साल से अहमदाबाद में रह रह हैं....” शांति बहन ने उनका वाक्य सुधारा, “बारह साल, तीन महीने और सतरह दिन...”
कानजी चाचा एक क्षण के लिए शरमाए। फिर झूठी हंसी हंसने के प्रयास में उन्हें खांसी आ गई। जैसे-तैसे बोलने का प्रयत्न करते हुए बोले, “वाह शांति बहन आपका गणित तो एकदम पक्का है। ऐसे परिवार में बेटी अच्छे से तैयार होगी...तो रणछोड़ दास अहमदाबाद में रहते हैं। वह नगरसेवक भिखाभाई के खास आदमी हैं। भिखाभाई इनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करते। पचासों लोगों के बीच इनका उठना-बैठना है। धन-संपत्ति तो है ही, साथ ही पिछले पांच साल से गाड़ी भी ले रखी है।” इतना कहकर उन्होंने शांतिबहन की ओर नजर दौड़ाई और बोले, “सवा छह साल से....” इतना कहकर कानजी चाचा और तनकर बैठ गए। “अच्छा घर, अच्छा लड़का, अच्छी कमाई, घर में गाड़ी.... लेकिन न जाने किसकी नजर लग गई और इनकी पत्नी, कमला बहन दूसरे प्रसव से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गईं। इस छोटी बच्ची की चिंता उन्हें खाई जाती है। मैंने तो उन्हें स्पष्ट रूप से बता दिया कि इस तरह अकेले रहकर बच्चों को बड़ा नहीं किया जा सकता। बच्चों को मां की जरूरत होती है। तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से रणछोड़ दास तैयार हुए। पुरुषोत्तम बापू के परिवार को मैं कई सालों से पहचानता हूं इसकी आश्वस्ति मैंने उनको दी है.... ”
सभी एकदूसरे की तरफ देखने लगे। जयसुख चाचा धीरे से बोले, “प्रभुदास बापू...”
कानजी चाचा शांति बहन की ओर देखते हुए बोले, “इनकी सजगता देखी....? ये लड़की के चाचा हैं। हां, तो मैं कह रहा था .... प्रभुदास बापू के घर में किसी को कुछ बताना नहीं पड़ता। संत पुरुष हैं ये। सारा गांव इन्हें आदर से देखता है। सबसे प्रेम से बात करते हैं। खानदानी घराना है एकदम... और आप सब लोग भी...” जोर से हंसते हुए वह आगे बोले, “ आपमें से कोई भी एक शब्द नहीं बोल रहा है, मैं ही अकेले तबसे बोलता चला जा रहा हूं... ”
लखीमां ने इशारा करते ही यशोदा चाय-नाश्ता लेकर बाहर आ गई। कोई कुछ बोलता इसके पहले ही रणछोड़ दास ने चाय का कप उठा लिया। शांति बहन बोलीं, “हमारे रणछोड़ को ठंडी चाय नहीं चलती।”
कानजी चाचा ने फाफड़ा और ढोकला उठाया। उसके बाद जलेबी उठाई। शांति बहन से सिर्फ ढोकला ही मुंह में डाला। “ बहुत अच्छा बना है जी...एकदम स्पंजी...नरम, मुझे ऐसा ही पसंद है। जरा भी कड़क हो जाए तो मुंह में नहीं रखा जाता। ”
हाथ का कप नीचे रखकर रणछोड़ दास खड़ा हो गया। यशोदा की ओर देखकर बोला, “आइए, कुछ बातें जरा साफ-साफ कर लें। मुझे दो बातों पर गुस्सा आता है, एक तो गोलमोल बातें करना और दूसरा समय गंवाना। ”
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह
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