अग्निजा - 28 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 28

प्रकरण 28

ज्ञान और बुढ़ापा कभी-कभी दुःखदायी बन जाता है। असहनयी वेदना...सहेलियों के पिता अपनी बेटी को ‘कलेजे का टुकड़ा’ कहते हैं। लेकिन मुझे तो हमेशा ‘पत्थर’ ही कहा गया था। वो सावी कहती है, “मैं तो अपने पप्पा के साथ ही खाना खाती हूं और उनके साथ खूब बातें करती हूं, तभी मुझे रात को नींद आती है। ” यह सुनकर केतकी को लगता था, “मैंने अपने एक पिता को तो देखा ही नहीं, और दूसरे मुझे नहीं देखना चाहते। पिता का प्रेमभरा स्पर्श कैसा होता है, और स्नेमयी आवाज?” उसको ‘पप्पा’ शब्द बड़ा अच्छा लगता था। कभी-कभी लगता था कि नए पिता के पास दौड़कर जाएं, उनसे गले मिलें, उनसे नाराज होएं, उनके साथ बात करें, हंसें, रोएं और वहीं रहें, हमेशा के लिए। सहेलियों के पिता को देखकर उसमें मन में ऐसी अनेक भावनाएं उठतीं और फिर समाप्त हो जाती थीं।

कभी भूलकर कभी रणछोड़ दास से कहीं मुलाकात हो जाए तो भी वह उससे प्रेम से मीठा बोलने की बजाय चिल्लाकर कहता, “ये क्या किसी आवारा बछड़े की तरह दौड़ती-भागती रहती हो? अपने नाना-नानी और चाचा की संगत में मत रहो...” ऐसा उल्टा-पुल्टा न जाने क्या-क्या कहता रहता था...हमेशा कटु। केतकी के बाल मन को उसकी ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती थीं। बचपन में केतकी एक प्रश्न हर किसी से पूछती थी, और आज भी उसके मन में वही प्रश्न उठता है, “मैं अकेली ही क्यों नाना-नानी के घर में रहती हूं?” दूसरे जब इसका उत्तर देते तो केतकी उनसे सहमत नहीं होती थी, लेकिन नाना का दिया हुआ उत्तर उसके जख्मों पर मलहम का काम करता था, “तुम मुझे खूब अच्छी लगती हो न, इसलिए मैंने तुमको अपने पास यहां रख लिया है। जो बच्चे अपने पप्पा के घर में रहते हैं अपने नाना से रोज-रोज नहीं मिल सकते। और फिर मैं अपनी केतकी के बिना कैसे जी पाऊंगा?”

केतकी को यह उत्तर अच्छा लगता। आज उसके मन को तसल्ली होती है कि स्वयं के घर में भले ही उसे कोई पसंद नहीं करता लेकिन कहीं तो, किसी को तो मैं इतनी पसंद हूं...लेकिन इतना प्रेम पाकर भी अनचाही कहकर उस पर किया जाने वाला गुस्सा उसके मन में गहरे तक खाता रहता।

किसी को भी जानकारी नहीं थी किए अब एक नई केतकी का बीजारोपण होने की शुरुआत हो चुकी थी। दृढ़, जिद्दी और शैतान।

नानी की पुकार से उसके विचारों में विघ्न पड़ा, “चलो बेटा नाश्ता करने...” केतकी उठी, उसने नाना की तरफ देखा और उसे झटका लगा। वह बहुत थके हुए दिख रहे थे। एक ही रात में बहुत बूढ़े नजर आने लगे थे। केतकी दौड़कर उनके पास गई, “नाना, क्या हुआ..तबीयत ठीक नहीं लग रही...?”

“नहीं बेटा, मैं एकदम ठीक हूं। तुम चिंता मत करो।”

“लेकिन नाना...आप तो एकदम...”

“बूढ़ा दिख रहा हूं न? तो मैं जैसा हूं, वैसा ही तो दिखूंगा न बेटा... ?”

“नहीं, मेरे नाना को कोई भी बूढ़ा नहीं कहेगा...आप भी नहीं कहोगे ....समझ में आया न? चलिए अब नाश्ता करने के लिए उठिए...”

“नहीं बेटा, तुम नाश्ता कर लो...मेरा आज निराहार उपवास है...”

“निराहार क्यों?”

“अरे, आज श्रावणी अवमावस्या है न, तो सोचा थोड़ा पुण्य कमा लूं...तुम जाओ...”

केतकी सोचने लगी, नाना के खाते में इतना पुण्य है फिर भी निराहार उपवास क्यों? नाना प्रसिद्ध वैद्यराज हैं, इसके अलावा ज्योतिषी भी। धर्म-कर्मकांड सब कुछ कर लेते हैं। यह सब केतकी नजदीक से देखती थी। सब कहते थे कि नाना के हाथों में सिद्धी है। गांव में उनकी ख्याति थी और सम्मान भी। केतकी ने कभी भी उनके मुंह से किसी की बुराई नहीं सुनी। अच्छा-बुरा कुछ भी हो, नियति का आदेश मानकर उनके मुंह से एक ही वाक्य निकलता था-जैसी भोलेनाथ की इच्छा। लेकिन अच्छाई, प्रतिष्ठा, कर्म-कांड और परोपकार के साथ-साथ उनके मन में भावनाओं का महाभारत भी चलता रहता था। मारने वाले भी वही और मरने वाले भी वही। उनके रुधिर की बूंद-बूंद से सैकड़ों लाखों प्रभुदास आलस हटाकर खड़े हो जाते थे, जूझते थे, घायल होते थे, मरते थे, पुनर्जीवित होते थे...मुक्ति नहीं थी। लेकिन प्रभुदास बापू का कलेजा घायल होता था। वेदना बढ़ रही थी....उनका मन भोलेनाथ ...भोलेनाथ कहकर चीत्कारता था....

केतकी ने फटाफट नाश्ता कर लिया। आज नाश्ते में उसकी मनपसंद साबूदाने की खिचड़ी थी, लेकिन फिर भी उसे आऩंद नहीं हो रहा था। जब वह बस्ता लेकर निकली उस समय नाना बाहर बरामदे की सीढ़ियों पर बैठे थे। थोड़ी देर उसकी तरफ ममता भरी दृष्टि से देखते रहे, “खूब मन लगाकर पढ़ना बेटा...ध्यान रखो, कभी भी हार मत मानना...निराश मत होना...संकट तो आएंगे ही...लेकिन हम अगर हिम्मत के साथ उनके सामने खड़े हो जाएं तो वे भी भाग जाते हैं...और एक बात तो कभी भी मत भूलना...नाना तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे...मेरा आशीर्वाद है...खूब सुखी रहो...तुमको जो चाहिए वह अवश्य मिलेगा...आज नहीं तो कल...लेकिन तुम धीरज के साथ रहना बेटा...” ऐसा कहते हुए प्रभुदास बापू केतकी के बाल, माथे, गाल और हाथों पर से प्रेम और वात्सल्य भरा हाथ फेर रहे थे। केतकी को इसका कारण समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन उसको यह सब बहुत अच्छा लग रहा था। वह नाना के गले से लिपट गई। और फिर उनके कानों में बोली, “आज शाला न जाऊं...?”

“नहीं, नहीं, तुमको पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम में हिस्सा लेना है न? तुम जाओ...सबको जाना ही पड़ता है बेटा...” केतकी मन मारकर उनसे दूर गई। “संभल कर जाना बेटा...और जल्दी वापस आऩा...” केतकी चली गई। वह आंखों से ओझल होते तक प्रभुदास उस दिशा की ओर देखते रहे।

वह शाम को जब वापस घर आई तो लखीमां का चेहरा रुंआसा हो गया था। वह और जयसुख काका तनाव में दिख रहे थे। प्रभुदास कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। जयसुख चाचा ने घर का कोना-कोना देख लिया। आसपास के पहचान वालों के घर दौड़ लगाई। रिश्तेदारों के घर हो आए। जहां-जहां प्रभुदास बापू के होने की संभावना थी, वहां-वहां हो आए। जयसुख के मित्र और अड़ोस-पड़ोस के लोग भी उनको खोजने लगे।

किसी ने सुझाया, बहुत देर हो गई है, पुलिस में खबर कर दी जाए। पता नहीं क्यों, लेकिन पुलिस का नाम सुनते ही केतकी जोर-जोर से रोने लगी। लखीमां ने उसे अपने पास लिया, “बेटा, तुम खेलने जाओ तो...आते ही होंगे तुम्हारे नाना..” उसको आश्वासन देने वाली लखीमां का दिल लेकिन जोर-जोर से धड़क रहा था।

पूरे दिन की भागदौड़ और पुलिस के प्रयत्नों के बाद कोई भागते हुए आया और उसने बताया कि प्रभुदास बापू भद्रेश्वर महादेव के मंदिर में हैं। जयसुख, लखीमां और केतकी भागते हुए वहां पहुंचे...महादेव के मंदिर में जाकर देखा, तो प्रभुदास बापू शंकर भगवान की पिंड के पास मृत अवस्था में पड़े हुए थे। भोलेनाथ का भक्त अपने भोलेनाथ से मिलने के लिए अनंत यात्रा पर निकल गया था। उसे भोलेनाथ से खूब सारे प्रश्नों के उत्तर पूछने थे...मन में चल रहे महाभारत में शांति का झंड़ा फहराने के लिए यह भीष्मपितामह कांटों भरी राह छोड़कर हमेशा के लिए निकल चुका था...दूर...बहुत दूर जाने के लिए।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह