परबतिया की धीमी आवाज के बावजूद साधना को किसी हलचल का अहसास हो गया था और उसके जिस्म में हलकी सी हरकत हुई। उसने धीमे से अपनी आँखें खोल दीं। सामने ही गोपाल खड़ा था , हैरान परेशान साधना की चिंता में डूबा हुआ गम से बेजार !
उस पर नजर पड़ते ही साधना के होठों पर बेहद मासूम सी मुस्कराहट तैर गई और फिर अगले ही पल उसके गोरे गोरे गाल शर्म और हया की लाली समेटे लाल सुर्ख हो गए। उसकी मुस्कान और गहरी हो गई और उसने हलकी सी हँसी के साथ अपने दोनों हाथों में अपना चाँद सा मुखड़ा छिपा लिया।
गोपाल के चेहरे पर अभी भी हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसे साधना की इस अजीब सी हरकत का मतलब समझ में नहीं आया था लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान से उसको बहुत तसल्ली मिली थी। आशा भरी निगाहों से परबतिया की तरफ देखते हुए वह बोला, "काकी ! साधना को क्या हुआ है ? अब ठीक तो है न ?"
परबतिया के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर गई। बोली, "अजी नहीं जँवाई बाबू ! देख नहीं रहे साधना की तबियत खराब है ? हाँ ..अगर हमारा मुँह मीठा करवाओ तो हम बताएं का बात है।"
"मुँह मीठा ?.. तबियत खराब ? कुछ समझा नहीं !" गोपाल और हड़बड़ा गया था और फिर जैसे अचानक उसे कोई दिव्य ज्ञान हुआ हो ख़ुशी से चहकते हुए बोला, "ओह हो ..तो ये बात है ? काकी इस बात पर तो हम सिर्फ तुम्हारा ही नहीं पूरे गाँव का मुँह मीठा करवाते अगर अपने घर में होते। लेकिन वादा रहा पक्का इस महीने वेतन मिलते ही आपका मुँह मीठा अवश्य कराएँगे।"
"कोई बात नहीं दामाद जी !.. हम तो वैसे ही कह रहे थे। तुम और साधना बिटिया ख़ुशी ख़ुशी रहो बस यही हमारे लिए मिठाई से भी मीठा है। अब हम लोगों की तो जिंदगी लगभग बीत गई है। ऊपरवाला चाहे जब बुला ले। जितने दिन बचे हैं भगवान करें तुम लोगों की ख़ुशी देखते हुए सुख से बीत जाएँ ,बस और क्या चाहिए ?" कहने के बाद परबतिया एक पल के लियेरुकी थी। वह कुछ और कहना चाहती थी लेकिन उसका सारा ध्यान साधना की ही तरफ था इसलिए आगे कुछ कह नहीं पाई क्योंकि साधना अब तक उठकर खड़ी हो गई थी।
गोपाल उसके करीब उसका हाथ थामे खड़ा था। साधना और गोपाल एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुराये और आँखों ही आँखों में न जाने क्या बातें हुईं, अचानक दोनों परबतिया के कदमों में झुक गए। बड़े प्यार से साधना को गले लगाते हुए परबतिया की आँखें आँसुओं से भीग गई। आशीर्वादों की झड़ी लगा दी उसने। साधना भी भावुक हो गई थी। भरे गले से बोली, "आज मेरी माँ होती तो शायद मैं अपनी यह खुशी उनसे ही साझा करती और उनका आशीर्वाद भी लेती लेकिन उनके बाद अब आप ही मेरी माँ हो काकी ........!" वह आगे और भी कुछ कहना चाहती थी लेकिन रुँधे गले की वजह से आगे के शब्द उसके मुँह से नहीं निकले।
साधना और गोपाल दोनों अपने घर के बरामदे में घुसे।
साधना की चिंता करते हुए गोपाल अब तक अपनी तकलीफ भूला हुआ था। साधना की चिंता कम होते ही अब उसे अपने सिर में दर्द का अहसास होने लगा था। बरामदे में ही रखी खटिया खींच कर वह उसपर लेट गया। दर्द की अधिकता की वजह से उसके हाथ स्वतः ही अपने ललाट पर घूमने लगे थे। उसकी अवस्था देखकर साधना परेशान हो गई, "क्या हुआ ? सिरदर्द हो रहा है ?"
" हाँ !.. ज्यादा नहीं, हल्का सा दर्द है। तुम चिंता न करो। अभी थोड़ी देर आँखें बंद कर लूँगा तो अपने आप सही हो जायेगा।" गोपाल ने साफ़ झूठ बोला।
" झूठ मत बोलिये ! मैं जानती हूँ। मामूली सा दर्द आपके चेहरे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। सिरदर्द बहुत तेज है आपको, लेकिन नुक्कड़ पर डॉक्टर साहब भी तो शाम चार बजे के बाद ही आते हैं। तब तक ...…!" फिर कुछ सोचते हुए साधना घर में चली गई। दो ही मिनटों में जब वह बाहर आई उसके हाथों में एक ठंडे तेल की बोतल थी।
गोपाल के सिरहाने बैठकर उसने अपनी हथेली पर थोड़ा सा तेल उंडेलकर गोपाल के सिर पर धर दिया और हल्के हाथों से उसके सिर की मालिश करने लगी। ठंडे तेल की ठंडाई तो उसके सिर में घूसते हुए आँखों से निकल गई लेकिन साधना के स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति उसके ह्रदय में गहरे तक धंसती चली गई। उसका जी चाह रहा था साधना ऐसे ही उसकी मालिश करती रहे जब तक कि उसकी आत्मा तृप्त न हो जाए।
उसकी आँखें मुँदी हुई थीं और वह अब काफी राहत महसूस कर रहा था कि तभी पड़ोस में हो रही बातचीत में एक जानी पहचानी आवाज सुनकर वह उठ बैठा। वह जानी पहचानी आवाज परबतिया काकी से मास्टर रामकिशुन के घर के बारे में पूछ रहा था। उठते ही वह दौड़ पड़ा परबतिया काकी के घर की तरफ जो किसी अजनबी को मास्टर रामकिशुन का घर वहीँ से दिखाकर कुछ समझा रही थीं।
गोपाल ने देखा वह अजनबी कोई और नहीं उसका जिगरी दोस्त जमनादास था। वही जमनादास जो उसके और साधना के बीच पनपते प्रेम का इकलौता गवाह था और जिसके सिवा इस लंबी चौड़ी दुनिया में उसका और कोई दोस्त न था।
उसे देखते ही आश्चर्य चकित गोपाल उसके सीने से लग गया। गोपाल की आँखों से आँसुओं की धार बह चली थी। साधना भी गोपाल के पीछे पीछे ही परबतिया के घर तक आ गई थी। दोनों मित्रों का यह भावपूर्ण मिलन उसकी भी आँखें नम कर गया। वह शीघ्र ही अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी। नजदीक ही असमंजस में खड़ी परबतिया काकी की तरफ ध्यान जाते ही गोपाल ने उनका जमनादास से परिचय कराया, "काकी, यही है मेरा जिगरी दोस्त , मेरा यार , मेरा भाई , मेरा सब कुछ .....जमनादास !"
जमनादास ने भी शिष्टाचार वश अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। परबतिया ने अपने ही अंदाज में उन दोनों पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। जमनादास के कंधे पर प्यार से हाथ रखे गोपाल उसे लेकर मास्टर के घर आया और फिर साधना को आवाज देते हुए बोला, "साधना !... देखो तो, कौन आया है ?" जबकि गोपाल का ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि साधना ने बरामदे के सामने का हिस्सा झाड़ू मारकर पहले ही साफ़ स्वच्छ कर दिया था और उसकी खटिये के बगल में ही एक और खटिया बिछाकर उसपर साफ़ सुथरा बिछौना बिछाकर उसपर नई चादर डाल दी थी। अंदर से लोटे में पानी लेकर आते हुए साधना ने शर्मीली सी मुस्कान के साथ जमनादास का स्वागत किया। जैसे ही जमनादास की नजर साधना की मांग पर पड़ी वह चौंक गया। साधना की मांग में सिंदूर की लाली चमक रही थी।
' तो क्या साधना की शादी हो गई ? लेकिन किससे ? गोपाल से ? इतनी जल्दी ? और गोपाल ने किसी को बताया भी नहीं ? अब वह क्या करे ? ' एक ही पल में जमनादास के मन में ढेरों सवाल कौंध गए। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किससे इस बारे में बात करे ? फिर उसके मन में ख्याल आया ' थोड़ा इंतजार कर ले। सब सामने आ जायेगा थोड़ी ही देर में। इतनी जल्दी भी क्या है ? '
' हाँ, यही ठीक रहेगा !' सोचते हुए जमनादास ख़ामोशी से खटिये पर बैठ गया।
क्रमशः