ममता की परीक्षा - 40 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 40



साधना की आवाज से गोपाल चौंका अवश्य था, लेकिन अगले ही पल अपनी स्थिति समझकर उसके चेहरे पर शर्मिंदगी और राहत के मिले जुले भाव उभर आए। राहत इसलिए क्योंकि उसे पता चल गया था कि अभी तक वह जो कुछ भी अनुभव कर रहा था उसमें कोई सच्चाई नहीं थी बल्कि यह तो उसके दिमाग का एक वहम मात्र था, एक सपना था।
अगले ही पल उसकी खोपड़ी घूम गई जब उसके दिल के किसी कोने में यह विचार कौंध गया 'क्या होगा यदि यह सपना सच हो गया तो ? ' कहते हैं कभी कभी सपने भी सच हो जाते हैं। अगर वाकई उसके सामने ऐसी स्थिति आती है तो वह क्या करेगा ? क्या साधना उसका साथ देगी ?' यहाँ उसका आत्मविश्वास डाँवाडोल होने लगा। साधना उसके लिये अपने बाप से, समाज से और पूरे गाँववालों से पंगा क्यों लेगी ? पढ़ीलिखी है, खूबसूरत है, समझदार है और सबसे बड़ी बात उसके पिता की समाज में बड़ी इज्जत है। कोई भी इज्जतदार घराना उसे अपनी बहू बनाकर फख्र महसूस करेगा।

तभी उसके विचारों को झटका लगा जब साधना की आवाज पुनः उसके कानों में गूँजी, "क्या हुआ गोपाल बाबू ? कोई सपना देखा आपने ?"
गोपाल ने खटिये पर ही उठ कर बैठते हुए अपने बगल में बिछी खटिये पर नजर डाली जहाँ थोड़ी देर पहले मास्टर रामकिशुन सोये हुए थे, लेक़िन अब नजर नहीं आ रहे थे। शायद पहले ही उठकर कहीं चले गए हों। आसपास कोई न था। दिन ढलने का समय हो गया था। सूर्य भगवान अपनी मंजिल के करीब पहुँच चुके थे। घर के सामने से ही दूर कहीं पश्चिम में क्षितिज पर रक्तिम आभा बिखरी हुई दिख रही थी और पेड़ों के झुरमुट से दिखता हुआ क्षितिज में समा जाने को आतुर सूर्य अपनी प्रखरता खोकर अब शीतल रक्तिम रश्मियाँ बिखेर रहा था। यूँ प्रतीत हो रहा था जैसे सूर्य के गालों पर शर्म की लाली फ़ैल गई हो अपने उस समर्पण का अहसास करके जो वह दिनभर के लंबे संघर्ष के बाद क्षितिज की गोद में करने वाला था। सूर्य को तो अपनी मंजिल मिल जानेवाली थी , लेकिन उसका क्या ? अब जाकर उसे अपना भान हुआ। साधना की बात का जवाब देने का प्रयास किया था गोपाल ने , लेकिन उसके शब्द मानो उसके हलक में ही फँस कर रह गए। बड़ी मुश्किल से उसके मुँह से निकला "नहीं तो !"
बड़ी सफाई से उसने झूठ बोलकर अपने मनोभावों को साधना के सामने उजागर होने से छिपा लिया था लेकिन उसके मन का चोर उसपर हावी हो गया था। उसके कानों में मास्टर के कहे शब्द गूँजने लगे ' तुम्हारे पास कल तक का समय है ........! '

मास्टर के कहे शब्द और फिर सपने को उससे जोड़कर देखते ही उसके मुँह से चीख निकलते निकलते बची। क्या करे ? वह सोच नहीं पा रहा था। तभी उसके अंतर्मन ने सरगोशी की ' किस उधेड़बुन में लगा है तू ? क्या तुझे अपनी साधना पर भरोसा नहीं है ? और सबसे बड़ी बात क्या तुझे खुद पर विश्वास नहीं रहा ? क्या इसी कच्चे विश्वास की डोर थामे यहाँ तक चला आया था ? नहीं ! अब तेरे पास सोचने और समझने के लिए कुछ नहीं बचा है। अब तू जहाँ तक आ गया है वहां से वापसी संभव नहीं ! हिम्मत से काम ले और सुना दे अपना फैसला मास्टर जी को कि साधना ही तेरी जिंदगी है , वही तेरा भविष्य है और वही है तेरी मंजिल ! अब देर किस बात की ? कल तक का इंतजार भी क्यों ?'
सोचते हुए उसके चेहरे पर दृढ़ता के भाव उभर आये। उसके दिल की मजबूती उसके चेहरे पर नजर आने लगी थी।

सामने से मास्टर रामकिशुन को आते हुए देखकर वह तत्परता से उठा और उनकी तरफ बढ़ा। साधना अचानक उसे हरकत में आते देखकर हतप्रभ रह गई। यह क्या ? गोपाल कहाँ जा रहा है ? लेकिन जैसे ही उसकी नजर सामने से आ रहे अपने बाबूजी पर पड़ी वह गोपाल के मन की स्थिति को भाँपने का प्रयास करने लगी।

गोपाल ने मास्टर रामकिशुन के करीब पहुँचकर उनका हाथ थाम लिया और उन्हें रुकने का इशारा किया। मास्टर ने रुकते हुए इधर उधर नजर दौड़ाई और किसी को नजदीक न पाकर आश्वस्त होते हुए गोपाल की तरफ सवालिया निगाहों से देखते हुए कहा, "कुछ कहना चाहते हो ?"

"जी बाबूजी !" गोपाल ने धीमी लेकिन स्पष्ट आवाज में कहा।

"कहो !" मास्टर रामकिशुन भी आहिस्ते से ही फुसफुसाए थे।

" बाबूजी ! जैसा कि आपने कहा था मैंने अपने भविष्य को लेकर सभी पहलुओं पर बड़ी गंभीरता से मनन कर लिया है ! " गोपाल ने बिना किसी भूमिका के सीधे अपनी बात कहना ही श्रेयस्कर समझा।

" अरे ! अभी तो हमारी बात हुई थी कुछ देर पहले और फिर इतनी जल्दी तुमने सब सोचसमझ भी लिया ?" उसकी बात सुनकर मास्टर को थोड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि गोपाल इतनी जल्दी इस तरह फैसला ले लेगा।

उनको आश्चर्य में डूबते हुए देखकर भी गोपाल ने अपनी बात जारी रखी, " जी ! बाबूजी ! मैं सिर्फ सोचने समझने में ही सारा समय नहीं गंवाना चाहता। मैं चाहता हूँ कि अब चाहे जो हो मैं अपने जीवन में आगे बढ़ूँ। मैंने सब अच्छी तरह सोच समझ लिया है और यह तय किया है कि यहाँ इस परिस्थिति में मुझे आपसे बेहतर कोई पथप्रदर्शक नहीं मिल सकता, और मैं आपके निर्देश अनुसार आप जो भी कहेंगे वह सब करने के लिए तैयार हूँ।"

यह सब कहने के बाद गोपाल कुछ पल के लिए रुका था कि तभी मास्टर बोल पड़े, " यहाँ गाँव में जी सकोगे ? यहाँ अभावों की जिंदगी होती है। क्या इससे कदमताल कर सकोगे ? यहाँ मन के शांति की ही कीमत है और भौतिक सुखों की कोई कदर नहीं होती। क्या तुम भी ऐसा कर पाओगे ? और फिर यहाँ रहकर जीवनयापन के लिए क्या करोगे ? क्या यह भी सोच लिया है ?"
फिर गहरे अर्थपूर्ण नज़रों से गोपाल की तरफ देखते हुए मास्टर ने आगे कहा, "बेटा ! अब अगर तुमने सब कुछ सोच समझ लिया है तो मुझे कुछ नहीं कहना। बस मुझे अपनी बिटिया के हाँ की जरुरत है। उसकी जो मर्जी होगी वही मेरी भी मर्जी होगी। मैं नहीं चाहता कि मेरा कोई भी फैसला तुम दोनों में से किसी को भी अपने ऊपर थोपा हुआ लगे। साधना मेरी बेटी है लेकिन मैं साधना का पिता ही नहीं उसकी माँ भी हूँ। उसके मन की बात मेरे लिए सबसे अधिक मायने रखती है। चलो, अभी ही बात साफ़ कर लेते हैं।"

कहने के बाद मास्टर रामकिशुन अपने घर की तरफ बढ़ गए और उनके पीछे पीछे गोपाल भी खींचता चला गया। उसके कदम यंत्रवत चल पड़े थे लेकिन उसका दिमाग तो उलझा हुआ था अगले कुछ ही देर में घटने वाली घटना का अनुमान लगाने में। बेहद नाजुक समय था यह उसके लिए। उसकी जिंदगी की दशा और दिशा तय करनेवाली घडी अब नजदीक आ चुकी थी। आशंकाएं तो थीं उसके मन में लेकिन साथ ही उसे पूर्ण विश्वास भी था अपनी किस्मत और साधना पर। उसे पूर्ण विश्वास था कि साधना इंकार नहीं करेगी। बाबूजी पहले ही हाँ कह चुके हैं अब सारा दारोमदार साधना पर ही है। अब तो लगभग सब कुछ तय हो चुका है। बस औपचारिकता ही बाकी है। साधना से उसकी मर्जी पूछना महज औपचारिकता ही तो है।' यह विचार मन में आते ही अब उसका आत्मविश्वास बढ़ चुका था।

इधर साधना बाबूजी को देखते ही आंगन से लोटे में पानी लेकर बाहर आकर खड़ी हो गई थी।

उसके हाथ से पानी भरा लोटा लेकर उस पानी से अपने पैर पखारते हुए मास्टर ने साधना की तरफ देखा और गंभीर स्वर में कहना शुरू किया , "बेटी ! ...................!

क्रमशः