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उलझन- समीर और शिखा

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शिखा के जन्मदिन पर कपिल उसे शादी का प्रस्ताव देने का मन बना चुका था, मगर उस से पहले ही शिखा की मैडिकल फाइल उसे पढ़ने को मिली और उस का विचार बदल गया. आखिर क्या लिखा था उस फाइल में.

जैसे जैसेशिखा के जन्मदिन की पार्टी में जाने का समय नजदीक आ रहा है, मेरे मन की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है. मैं उस के घर जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हूं पर अपने फ्लैट से कदम निकालने की हिम्मत नहीं हो रही है.

मैं करीब 2 महीने पहले शिखा से पहली बार अपने कालेज के दोस्त समीर के घर मिला था. उसी मौके पर मेरा समीर की पत्नी अंजलि, उस के दोस्त मनीष और उस की प्रेमिका नेहा से भी परिचय हुआ था.

शिखा के सुंदर चेहरे से मेरी नजरें हट ही नहीं रही थीं. वह जब छोटीछोटी बातों पर दिल खोल कर हंसती तो सामने वाला खुदबखुद मुसकराने लगता था.

मैं ने मौका पा कर समीर से अकेले में पूछा, ‘‘क्या शिखा का कोई बौयफ्रैंड है?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने मेरे चेहरे को ध्यान से पढ़ते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड,’’ उस का जवाब सुन मेरा मन खुशी से उछल पड़ा, ‘‘तू उस से मेरी दोस्ती करा दे, यार.’’

‘‘कपिल, मैं उस के साथ तेरी दोस्ती नहीं सिर्फ परिचय करा सकता था और वह मैं ने करा दिया.’’

‘‘मुझे शिखा से पहली नजर में ही प्यार हो गया है.’’

मेरे मुंह से ये शब्द सुन कर वह हंसा, ‘‘तू ज्यादा बदला नहीं है. कालेज में भी आए दिन तुझे पहली नजर में प्यार कराने वाला कीड़ा काटता रहता था.’’

‘‘पुरानी बातें भूल जा, मेरे दोस्त. अब मैं अपना घर बसाना चाहता हूं. मुझे लगता है कि शिखा ही मेरे सपनों की राजकुमारी है,’’ मैं ने उसे विश्वास दिलाने की कोशिश करी कि मैं प्यार के इस ताजा मामले में एकदम सीरियस हूं.

पहली मुलाकात में ही शिखा ने मेरे दिलोदिमाग पर जबरदस्त जादू कर दिया था. उसे अपना बनाने की चाह ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया.


उस मुलाकात के तीसरे दिन शाम को ही मैं शिखा से उस के औफिस के बाहर मिला. वह मुझे देख कर खुश हुई. फिर हम कौफी पीने के लिए एक रेस्तरां में जा बैठे.

हमारे बीच उस शाम ढेर सारी बातें हुईं. हंसीखुशी से बातें करते हुए कब घंटाभर बीत गया, हम दोनों को ही पता नहीं चला.

बाद में उसे उस के घर तक कार से छोड़ने गया. मैं खुद उस के मम्मीपापा से मिलना चाहता था, क्योंकि मेरे लिए उन दोनों का दिल जीतना जरूरी था.

शिखा अपने मातापिता के साथ 3 कमरों के फ्लैट में रह रही थी. उस की मम्मी के कमर दर्द और पापा के बागबानी के शौक के बारे में मैं ने पूरी दिलचस्पी के साथ ढेर सारी बातें कर के दोनों के दिल में अपनी जगह बना ली. मेरे अच्छे व्यवहार का जादू उन दोनों के सिर चढ़ कर बोला और फिर उन्होंने मुझे रात का खाना खिला कर ही बिदा किया.

शहर के जिन नामी हड्डियों के डाक्टर से 2 दिन बाद मैं ने शिखा की मम्मी का इलाज शुरू कराया उन की दवा से उन्हें बहुत फायदा हुआ.

अगले संडे की शाम को मुझ से बागबानी पर एक पुस्तक की भेंट पा कर शिखा के पिता ने मुझे बड़े अपनेपन के साथ छाती से लगाया तो मुझे अपनी मंजिल मिल जाने का विश्वास हो चला.

मेरे आग्रह पर शिखा कुछ दिनों के बाद मेरे साथ बाहर घूमने चली आई. मैं उस का दिल जीतने का वह मौका नहीं चूका. जब मैं ने अचानक उसे गुलाब के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया तो वह खुशी से फूली नहीं समाई.

धीरेधीरे हमारे बीच मिलनाजुलना बढ़ता गया. उसे अपने साथ खूब खुश देख कर मेरा दिल कहता कि वह मुझ से शादी करने को जल्दी राजी हो जाएगी.


‘‘तुम्हारे जैसा सुंदर, सुशील, स्मार्ट व कमाऊ लड़का अभी तक बिना

गर्लफ्रैंड के कैसे है?’’ कुछ दिनों बाद मेरे साथ एक दिन पार्क में घूमते हुए शिखा ने अचानक यह सवाल पूछा तो मैं मन ही मन बहुत बेचैन हो उठा.

मैं ने अपने मन की उथलपुथल को काबू में रख सहज आवाज में जवाब दिया, ‘‘शिखा, मेरी जानपहचान तो बहुत सारी लड़कियों से है पर कभीकभी मुझे भी यह सोच कर बहुत हैरानी होती है कि मेरी जिंदगी में आज तक मेरे सपनों की राजकुमारी क्यों नहीं आई.’’

‘‘सपनों की राजकुमारी या राजकुमार कम ही मिलते हैं, कपिल.’’

‘‘मुझे क्या मेरे सपनों की राजकुमारी मिलेगी?’’ मैं ने प्यार से उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘‘मुझे क्या पता?’’ कह उस का शरमा जाना मेरे मन को गुदगुदा गया.

मैं अगले दिन औफिस बहुत खुश मूड में पहुंचा. मेरी सहयोगी रितु मेरे चैंबर में आई और बोली, ‘‘शनिवार और इतवार को कहां गायब रहे, कपिल?’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी,’’ उस की नाराजगी दूर करने के लिए मैं ने उस के गाल पर छोटा सा चुंबन अंकित करा.

‘‘इस शनिवार को मेरे साथ रहोगे या मैं कोई और प्रोग्राम बना लूं?’’

‘‘पक्का तुम्हारे साथ रहूंगा,’’ उस के गाल पर शरारती अंदाज में चिकोटी काट कर मैं काम में लग गया.

शिखा से मैं ने पिछले दिन झूठ बोला था. अब तक बहुत सारी लड़कियां मेरी प्रेमिकाएं रह चुकी थीं पर शिखा उन सब से बहुत बेहतर थी. अच्छी पत्नी बनने के सारे गुण उस में मौजूद हैं. मैं ने मन ही मन उस के साथ शादी करने का पक्का फैसला कर लिया.

शनिवार की रात मैं ने रितु के साथ डिनर किया और फिर रात उस की बांहों में उस के फ्लैट में गुजारी. सचाई यही है कि मुझे ऐसा करते हुए कैसी भी ग्लानि महसूस नहीं हुई, क्योंकि तब तक मैं ने शिखा से शादी का कोई वादा तो किया नहीं था.


वैसे 2 हफ्ते बाद आए रविवार को शिखा के सामने शादी का प्रस्ताव रख मैं ने इस कमी को पूरा कर दिया था.

‘‘तुम्हारे बिना मुझे अपनी जिंदगी अधूरी सी लगने लगी है, शिखा. तुम हमेशा के लिए मेरी हो जाओ, मेरे सपनों की राजकुमारी,’’ मैं ने उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए कहा तो उस के गोरे गाल गुलाबी हो उठे.

‘‘जिंदगी की राहों में तुम्हारी हमसफर बन कर मुझे बहुत खुशी होगी, कपिल.’’

इन शब्दों में उस की ‘हां’ सुन कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

फिर हमारे बीच यह फैसला हुआ कि 3 दिन बाद शिखा के जन्मदिन के अवसर पर हम शादी करने के अपने फैसले से सब दोस्तों, रिश्तेदारों व परिवार के सदस्यों को अवगत करा कर सरप्राइज देंगे.

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अगली रात 9 बजे के करीब बिना सूचना दिए समीर, अंजलि, मनीष और नेहा मुझ से मिलने मेरे फ्लैट पर आए.

मेरी तरफ नीले कवर वाली एक फाइल बढ़ाते हुए मनीष बहुत गंभीर लहजे में बोला, ‘‘कपिल, इस फाइल को पढ़ो.’’

पढ़ कर मुझे मालूम पड़ा कि वह शिखा की मैडिकल फाइल थी. उस ने करीब 10 महीने पहले नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश करी थी.

‘‘इस फोटो में शिखा के साथ उस का प्रेमी राजीव खड़ा था. इसी के हाथों प्यार में धोखा खा कर शिखा ने आत्महत्या करने की कोशिश करी थी,’’ अंजलि ने अपने पर्स से निकाल कर एक पोस्टकार्ड साइज का फोटो मेरे हाथ में पकड़ा दिया.

मनीष ने दांत पीसते हुए बताया, ‘‘यह धोखेबाज इंसान एक तरफ तो शिखा से शादी करने का दम भरता था और दूसरी तरफ शिमला में अपनी पुरानी प्रेमिका के साथ होटल में गुलछर्रे उड़ा रहा था. यह खबर शिखा को अपनी जानपहचान की लड़की से मिली तो उसे इतना गहरा सदमा पहुंची कि उस ने आत्महत्या करने की कोशिश करी.’’


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‘‘तुम मेरी इस टेढ़ी उंगली को देखो. मुझे राजीव एक बार किसी पार्टी में मिला था. मैं ने गुस्से से पागल हो कर उस के ऊपर इतने घूंसे बरसाए कि मेरी इस उंगली में फ्रैक्चर हो गया. नेहा ने रोक लिया नहीं तो मैं उसे उस दिन जान से ही मार देता.’’

समीर ने गुस्से से लाल हो रहे मनीष को शांत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘शिखा के अंदर वैसा दूसरा सदमा सहने की ताकत नहीं है, कपिल. अगर तुम्हें लगता है कि तुम उस के प्रति जिंदगीभर वफादार नहीं रह पाओगे तो कल उस के जन्मदिन की पार्टी में मत आना. उसे दुख तो बहुत होगा पर हम उसे संभाल लेंगे.’’

अंजलि ने मुझ से भावुक लहजे में प्रार्थना करी, ‘‘फैसला सोचसमझ कर

करना, कपिल. अगर शिखा के हित के खिलाफ जाने वाला कोई रिश्ता आज भी तुम्हारी जिंदगी में बना हुआ है तो उसे आज रात जड़ से नष्ट कर देना. हमेशा उस के प्रति वफादार रहने का प्रण कर ही कल की पार्टी में आना, प्लीज.’’

इस के बाद सभी बारीबारी से मुझे गले लगा कर चले गए. मैं रातभर ठीक से नहीं सो सका. अगले दिन औफिस भी नहीं जा सका. सारा दिन गहन सोचविचार करने के बावजूद किसी फैसले पर पहुंचना संभव नहीं हुआ.

मैं शिखा से शादी करना चाहता हूं पर अपने मन की कमजोरी का भी मुझे एहसास है. किसी एक स्त्री का हो कर रहना मेरी फितरत में नहीं है.

मुझे फैसला सोचसमझ कर ही करना था, क्योंकि मैं ने अब तक जिन लड़कियों के साथ प्यार का खेल खेला था, उन सब के ऐसे खतरनाक शुभचिंतक दोस्त नहीं थे.

फिर धीरेधीरे जबरदस्त टैंशन का शिकार बने मेरे मन में यह बात जड़ें जमाने लगीं कि मैं न शिखा के लायक हूं और न ही उस के शुभचिंतकों की दोस्ती या दुश्मनी के.


ऐसा सोच कर मैं ने शिखा की जिंदगी से निकलने का कठिन और दिल दुखाने वाला फैसला आखिरकार कर ही लिया.

मैं जूते खोल कर वापस पलंग पर लेट गया. मेरे बहुत रोकने के बावजूद आंखों में बारबार आंसू भर आते थे.

8 बजे के करीब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी तो मैं ने फोन को स्विच्ड औफ कर दिया.

फिर 9 बजे के करीब बाहर से किसी ने घंटी बजाई तो मैं चौंक कर उठ बैठा. दरवाजा खोला तो सामने शिखा को देख मेरा दिल बैठ गया.

‘‘मुझे विश नहीं करोगे?’’ उस ने सहज भाव से मेरे हाथ अपने हाथों में ले लिए.

‘‘हैप्पी बर्थडे,’’ मैं ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे शुभकामनाएं दीं.

‘‘ऐसे नहीं, जरा प्यार से विश करो,’’ कह वह मेरे गले लग गई.

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‘‘हैप्पी बर्थडे, माई लव,’’ पता नहीं कैसे ये शब्द मेरे मुंह से खुद ही निकल कर मुझे हैरान कर गए.

‘‘मुझे मेरे दोस्तों ने कल रात तुम से हुई मुलाकात के बारे में सब बता दिया है, कपिल,’’ वह सहज भाव से मुसकरा रही थी.

‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं, शिखा. बाद में तुम्हारा दिल तोड़ूं उस से अच्छा यह होगा कि हम अभी अलग…’’

उस ने मेरे मुंह पर हाथ रख कर मुझे खामोश कर कहा, ‘‘अब मैं पहले जितनी कमजोर और भावुक नहीं रही हूं. मुझे भी पहली नजर में तुम से प्यार हो गया था और अब इतनी आसानी से तुम्हें नहीं खोऊंगी… तुम्हें मेरा प्यार जरूर बदल डालेगा.’’

‘‘मुझे डर है कि मैं तुम्हारे इस विश्वास पर खरा नहीं उतर सकूंगा.’’

‘‘मेरे इस विश्वास के कारण को समझ लोगे तो ऐसा नहीं कहोगे. आज मेरी बर्थडे पार्टी में न आ कर तुम ने जिस ईमानदारी का सुबूत दिया है उस का मेरी नजरों में बहुत महत्त्व है. यही ईमानदारी तुम्हारे अंदर भावी बदलाव का बीज बनेगी.’’

‘‘यह कदम तो मैं ने तुम्हारे शुभचिंतकों की धमकी से डर कर उठाया था,’’ मेरे होंठों पर उदास सी मुसकान उभरी.


‘‘वे मुझे बहुत प्यार करते हैं पर तुम्हें धमकाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था. मैं सचमुच तुम से दूर नहीं होना चाहती हूं,’’ कह वह मेरी छाती से आ लगी.

‘‘मैं भी,’’ मैं ने उसे बहुत मजबूती से अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया.

उस पल मेरे दिलोदिमाग में कोई उलझन या अनिश्चितता बाकी नहीं बची थी. उस की आंखों में लहरा रहे प्यार के सागर को देख कर मुझे विश्वास हो चला था कि भविष्य में कोई रितु मुझे कभी ललचा कर शिखा के प्रति बेवफाई करने को मजबूर नहीं कर सकेगी.

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अंतिम स्तंभ

‘यह तो शिष्टाचार है. घर सासुमां का है. इतने लोगों का मानदान उन्हें ही निबटाना है.’

सुमेधा बहू के रूप में सास से दबती रही और जब खुद सास बनी तो बहू के तेवर सहती रही. एक तरह से पूरी जिंदगी उस का कंधा झुका ही रहा. परिवार का स्थायी स्तंभ बन कर भी क्या अधिकार नाम की चीज थी उस के पास?

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’


‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.


ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’


‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’


और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

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मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं… ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.

कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’

4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’

उस ने मेरा नाम बता दिया.

10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’

सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’

‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’

सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’

‘‘मैं मोबाइल पर ज्वैलर से पूछ रही थी, क्या लौकेट बन कर आ गया? लड़के ने सुन लिया होगा. उस ने मां को बताया होगा. और मां ने बेटे को मेरे पीछे लगा दिया होगा.’’


यह मोबाइल का किस्सा भी अजीब है. वह अपने जमाने की अच्छी पढ़ीलिखी अध्यापिका, मगर अब जैसे एकदम पिछड़ी हुई, मूर्खगंवार. मोबाइल में फोन करना तक नहीं आता था उसे. जब मैं उस से कहूं, ‘तू इतनी दूर से मेरे घर आती है पैदल, तो मुझे फोन कर दिया कर, ताकि मैं घर पर ही रहूं.’ तो बोली, ‘मुझे तो फोन करना ही नहीं आता. बड़ी बेटी अपना पुराना मोबाइल छोड़ गईर् है. जिस से मैं किसी का फोन आए तो बात कर लेती हूं, बस.’

फोन करना उसे किसी ने नहीं सिखाया, न बेटे ने, न बेटी ने. न उन नातीपोतों ने जिन की मोबाइल पर महारत देखदेख कर वह चमत्कृत होती रहती है.

मैं ने उसे फोन करना, रिचार्ज करना सब सिखा दिया. वह गदगद होने लगी, ‘‘तू ने मुझ पर बड़ी कृपा की. अब मैं खुद भी अपनी बेटियों से बात कर सकती हूं.’’

अब वह जब भी फोन करे, पोतापोती कहीं भी हों, आ कर डट जाते.

उस के पोतापोती के सामने तो बात करना भी मुश्किल. सो, मैं ऐसे समय उस के घर जाती, जब बच्चेबहू सब स्कूल में हों. शहर से दूर उस एकांत शाही बंगले में वह अकेली और उन का भयानक कुत्ता. फाटक पर मुझे देखते ही उन का भयानक कुत्ता भूंकना शुरू कर देता. वह पगली सी फाटक पर आती और मुझे अंक में भर कर भीतर ले जाती.

मैं कहती, शांति से बैठ कर गपशप कर, मगर वह पगलाई सी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाने लगती, हलवा, पकौड़े, चीले, जो सूझता वही. फिर बारबार कहने लगती…खा न रे, गरमगरम. देख, मैं नाश्ता भूली तो नहीं हूं.

चायनाश्ता खत्म होते ही फौरन सारे बरतन मांजधो कर चिकन में पूर्ववत सजा कर अपार संतुष्टि से बैठ जाती. मेरा मन और खराब होने लगता. याद आ जाता. ठीक ऐसा ही वह तब भी करती थी जब अपनी सासुमां के साथ रहती थी. हम उस से मिलने गए और अगर सासुमां घर में न हों तो उस की चपलता देखते ही बनती थी. फटाफट नाश्ता तैयार कर लेती. जल्दीजल्दी खाने के लिए चिरौरी करने लगती. खाना खत्म होते ही बरतन मांजधो कर सजा कर रख देती.


तब सासुमां का आतंक था. अब बहू का. तब ननददेवर की जासूसी अब पोतेपोती की. आतंक से भीतर ही भीतर आक्रांत. मगर उन्हीं लोगों की सेवा में तत्पर, मगन.

अजब समानता दिखती मुझे 35 साल पहले देखी उस सास में और अब शानदार पोशाक में सजी, काला चश्मा लगाए खुले केश उड़ाती धड़ल्ले से बाइक दौड़ाती इस आधुनिक बहू में. सास का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता, यह हमेशा मिमियाती ही दिखती. अब बहू का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता है. यह मिमियाती ही दिखती है.

सबकुछ जानतेसमझते हुए भी इधर शायद मुझ से ही कुछ बेवकूफी हो गई. हुआ यह कि मेरे घर अचानक हमारी कुछ पुरानी सहेलियां आ गईं. मैं ने उसे फोन किया कि तू मिलने आ सकती है क्या. वह एकदम तड़प गई, ‘घर में कोई है नहीं. बहू और बच्चे स्कूल में, बेटा दौरे पर. घर सूना छोड़ कर कैसे आऊं?’

मैं सहेलियों को ले कर उस के घर ही पहुंच गई. हमें देखते ही वह मारे खुशी के बेहाल. खूब गले मिलना, रोनाधोना हुआ. सब को अपने कमरे में बैठा वह दौड़ी किचन की ओर. सहेलियां चिल्लाईं, ‘बैठ न रे. बोलबतिया. नाश्ता बनाने में समय बरबाद मत कर. कितनी मुश्किल से तो हम लोग आ पाए हैं. वह बैठ गई. ढाई बजतेबजते बच्चे आ गए. वह बच्चों को खाना देने के लिए किचन को दौड़ी. हम आपस में बतियाने लगे.

 

काफी देर हो गई. हार कर मैं किचन में गई. देखा, उस ने बच्चों के लिए ताजा भात बनाया था और अब रोटियां सेंक रही थी. नवाब बच्चे डब्बे में रखी सुबह की रोटी नहीं खा सकते थे. सहेलियों को देख कर और चिढ़ गए, ‘‘दादी, ये कैसी रोटियां दे रही हो. फूलीफूली दो.’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘ताजी रोटियां हैं, चुपचाप खाओ.’’ उस ने फौरन मेरे मुंह पर हाथ रख दिया ओर बच्चों को पुचकारने लगी, ‘‘लो, आज दादी को माफ कर दो. कर दोगे न?’’


बच्चों को खिला कर जैसे ही उस ने चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाया, मैं ने मना कर दिया, ‘‘सहेलियां जल्दी मचा रही हैं, अब चाय बनाने में समय बरबाद मत कर.’’ मन मार कर वह सहेलियों के बीच आ कर बैठ गई. बातचीत में अब वह रस नहीं आ रहा था. मन ही मन सब को कुछ कचोट रहा था. सहेलियों को उस की स्थिति और उसे सहेलियों का ठीक से स्वागत न कर पाने की विवशता. तिस पर दोनों शातिर जासूस हमारे ही बीच आ कर खड़े हो गए, ‘‘दादी, मेरा रैकेट कहां है? मेरा कलरबौक्स कहां है?’’

तभी बहू भी आ गई. तीखी नजरों से सास के कमरे को देखती बाथरूम की ओर चली गई. वहां से लौटी तो उस के ट्यूशन वाले लड़के आ गए. ट्यूशन पढ़ाना यानी पैसे बनाना. सो, लड़कों को देखते ही वह सामने बैठक में ही पढ़ाने बैठ गई.

सहेली की स्थिति अतिथियों के बीच अत्यंत दयनीय. आती हूं, कह कर गई और शायद बहू से चिरौरी की कि मेरी कुछ सहेलियां आ गई हैं, कुछ चायनाश्ता बना दो. बहू तमतमाई हुई किचन की ओर जाती दिखी. काफी देर हो गई. मगर न चाय आई, न नाश्ता. वह इतनी देर से सहेलियों को चायनाश्ते के लिए रोके हुए थी.

हार कर वह किचन की ओर गई. उस के पीछे मैं भी. बहू ने एक भारीभरकम भगोने में कनस्तर का सारा बेसन उड़ेल कर घोल बना लिया था और तेवर में तनी धड़ाधड़ पकौड़े छाने जा रही थी. बड़ी सी परात में पकौड़ों का पहाड़ लगा हुआ था.

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’


सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.


‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.


‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

 

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और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.


नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

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