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ग्रामीण जीवन

संध्या वंदन का समय सूर्य की किरणे मंदिर के कलश पर ऊर्जा बिखेर , लुप्त हो रहि है । बच्चे धूल में लत पत अपने घर की ओर प्रस्थान कर रहें है। मन नही है उनका घर को जानें का पर माता की पुकार पर जाना पड़ता है। खेतो से घर लोट रहे गांव के पुरुष थके हुए मोसम की मार खाए उम्मीद खत्म होती दिखाई दे रही दो मास सूखे ही बीत गए और फ़सल मुरझाए हुई अद मरी हालत में उम्मीद लिए खेतों में खड़ी खड़ी हैं। मौसम भी बड़ा अजीब हैं गर्मी में गर्मी का अहसास न हुआ और वर्षा के वक्त तड़कती तेज़ धूप , लग रहा है मई, जुन का महीना हो । सुरज अस्त होने को हैं आसमां में काला धुवा है घर से निकाल रहा। भोजन का समय हैं....., चुल्हे पर खाना पकाया जा रहा है। प्रत्येक घर में आ... चुल्हे का खाना मिठास और कुछ अलग ही स्वाद। सभी भोजन कर बाहर चबूतरे पर बैठे और सुबह के लिए तैयारी कर रहें भोजन की...सभी पुरुष मंदिर के चोतरे पर बैठे दिन चर्या के बारे में कह रहे हैं बच्चे वहीं पर छुप छुपाई खेल रहे हैं.... बचपन वाकई काफी आनंद भरे दिन । पुरुष की मण्डली में कई गांव के अनुभवी बुजुर्ग बैठे कई किस्से सुना रहे हैं . घर में बुजुर्ग होने से जीवन में आगे बढ़ना आसान होता है और घर में युवा होने से जीवन चलाना आसान हो जाता है। काफी वक्त हो गया सभी अपने अपने घर लोटे और आंगन में चारपाई डाल कर सुकू की सांस ली फिर अगली सुबह भोर होते ही सभी गांव के लोग अपने काम पर लग गए पुरषों की टोली खेतों की ओर बढ़ रहीं हैं। सभी अपनी पगड़ी पहन कर ओर कंधे पर गमछा डाल कर निकल पड़े। पगड़ी पुरषों का स्वाभीमान सम्मान, ताज, गौरव का प्रतीक है। त्यौहार, मातम , और युद्ध के समय भी ये पगड़ी , ताज, टोपी, मुकुट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। पगड़ी से तो एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत को पहचाना। करते थे। महिलाओं के सिर पर घूंघट पुरषों के सर पर पगड़ी शान थी आज भी...पर आज पगड़ी सड़क किनारे और जूते शोरूम में आज हालत उल्टे सभी परंपरा भूलते जा रहे हैं। बच्चे घरों के बाहर निकाल कर टोली में नहाने जा रहे हैं। गांव में दो दुकानें है और उन छोटी दुकान में जो मांगो वो मिल जाता। सुई से चप्पल तक.. उस अंधेरी दुकान में, । हा इस मॉल कहें तो सही होगा पता नहीं ये चीजें दुकानदार कहां से ले आता है। 

आज मुझे क्यों सारे गांव कहां गए

जगह जगह खंगाल डाली

नहीं मिले वो गाँव मेरे

जहा बसते थे प्राण मेरे

वो गाँव जहां खेतो में फ़सल खडी थी 

वहा आज कंक्रीट के जंगल खड़े

 

वो गाँव जहां:भंडार था संस्कृतियो का

वहा आज संस्कृतिया चार दिवारी में कैद हो गए

खोज राहा हू गाँव मेरा जहा बसते थे प्राण मेरे

 वह:जहां सब आपस मे बटाते खुशी की फसल और दुख के आशु

कहा गए वो गाँव मेरे

जहा बसते थे प्राण मेरे

 गाँव को शहर बनाने की होड़ मे

घुम हो गए गाँव मेरे 

नगर महानगर बन गए गाव नगर बन गए

और अब. चले गाव ढूंढ ने

विकास की इस रहा में घुम हो गए गाँव मेरे

 

दक्षल कुमार व्यास

दक्षल कुमार व्यास

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