कंक्रीट के महल Dakshal Kumar Vyas द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंक्रीट के महल

बरसो से चल रहा कार्य आज तेज हो गया । गांव जाते समय देखा ट्रेन में से क्या था क्या हो गया । नदी , नाले ,तालाब , जंगल , गांव । 

जहा 60 इंच तक बरसात में नदी नाले नही भरा करते थे और आज 20 इंच बारिश पर तो मानो बाड़ से हालात हो जाते है । और बाद में देखो तो वो सारा पानी बह कर निकल जाता है । और फिर सुखा। कंचन नागरी नाम हैं मेरे गांव का। वह दिन गांव के वह राते बीना पंखे के दिन निकल जाते थे और राते आसमा के नीचे क्या दिन थे। आज तो एयर कंडीशनर के बिना देखो दो मिनिट भी ट्रेन में बैठे बैठे ये कुछ ख्याल आए।

अब गांव से दस किलोमीटर की दूरी और थी की ट्रेन को लाल झंडी मिली और क्या था ट्रेन रुक गई। फिर पता चला की जंगल से कुछ हाथी पटरी पर आ गए।

इस वजह से ट्रेन को राका गया।

जब मै छोटा था तब यहां जंगल में कई बार आया करता था। हर पखवाड़े में एक बार तो में और मेरे मित्र और मेरे भाई। तब ये बहुत बड़ा जगल था। और बड़े बड़े वृक्ष वो दिन मज़ा आता था।

और वो आम के पेड़ से केरिया तोड़ कर खाना। एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जाना। आ हा । आज तो उस जंगल का दस प्रतिशत भी नहीं रह गया सभी और फेक्ट्रिया लग गई। जब में करीब 18 वर्ष का बालक था। तब मेने इस जंगल में फैक्टरी देखी जो की बड़ी फर्नीचर की थी। तब कई लोगो को काम मिला था। रोज़गार के लिए इंसान इंसान को बेच दे।

तो पेड़ो को काट कर फैक्टरी में ले जाना का कार्य था। आज किसान फैक्टरी में काम करने लगे हैं। और खेती तो अब चंद बड़े जमींदार कर रहे हैं। हा आखिर वो खेती नहीं कर रहे। किसानों ने अपने खेत बेच दिए और अब वही लोग उन के ही खेत पर जमींदार की आज्ञा से कार्य कर रहे हैं।

ट्रेन को हरी झंडी दिखाई गईं।

इतनी ही देर में वानपाल ट्रेन में आए और मेरे पास वाली सीट पर विराजमान हुए। मुझे पता था यह वानपाल हैं और इन श्रीमान का नाम भी un की वर्दी पर था। परंतु बस बचपन की मस्ती।और बात करने की ईच्छा से मेने महाशय से कहा श्रीमान आप की तारीफ़।

महाशय ने विनाम्र तरीके से बोले मेरा नाम रामदास हैं। और में वानपाल हु। आज यहां पर हाथी जंगल छोड़ कर आ गए थे इस लिए में आया हु। 

रामदास जी ने कहा आप किस गांव के हो।आप का परिचय। तब मेने जाना की किसी भी व्यक्ति की पहचान उस के गांव से होती हैं। फिर मेने कहा श्रीमान में कंचन नगरी गांव का वासी हू और मेरा नाम पवन कुमार हैं। में शहर में खेती करता हु मेने agriculture me ग्रेजुएट की हैं। श्रीमान रामदास जी मुझे आश्चर्य करते हुए देखते हुऐ।फिर वह रह नही सके और महाशय ने पुछा ग्रेजुएट होने के बाद भी खेती और शहर में। वानपाल ने प्रशन किया। मुझे यह प्रश्न कई महाशय ने पूछे मुझे आशा थी।

की यह प्रश्न जरूर पूछा जाएगा।

मेने बिना कोई जीजक के बताया श्रीमान आज रोजगार तो मिल रहा हैं नहीं और जो मिल रह हैं वह मुझे करनी नही। मेने चार वर्ष पहले ग्रेजुएट की ओर उसी वर्ष एक बंजर भूमि पर खेती करनी शुरू की ओर आज वह बंजर भूमि उपजाऊ और शुद्ध हैं।

महाशय ने मुझे एक पल के लिए मूर्ख समझा होगा पर अब काफी खुश थे।

मेने उनसे पूछा की क्या करण है हाथियों का जंगल छोड़ बाहर आने का वनपाल ने उत्तर दिया वह बाहर नही आ रहे हम उन की भूमि में जा रहे।

सिर्फ इस कथन से मुझे समझ आगया। और इधर गांव भी आगया। पहले गांव में आते ही एक सुकून का अनुभव हुआ।

मेने वनपाल महाशय से आज्ञा मांगी और धन्यवाद किया और रेलगाड़ी से उतर पड़ा। गांव वैसा नही जैसा में 7 साल पहले छोड़ कर गया था बहुत कुछ बादल गया। वो कुएं जो पूरे वर्ष भरे रहते थे आज कुएं नही। वो स्टेशन पर खड़ी हुई बैलगाड़ी वो भी नहीं। मेने स्टेशन से घर तक पैदल ही जाने का निर्णय लिया।

चल ते चल ते हमारा वो ज्ञान मंदिर वो विद्यालय दिखा जहा से मेने विद्या , ज्ञान अर्जित किया पर उस विद्यालय में कोई बदलाव नहीं दिखा जैसा था उस से भी खंडर हो गाय। पता नही क्यों इस का विकास नहीं हुआ जिस का विकास करना चाहिए उस का तो नही करते और बाकी तो जहा देखो वहां विकास। क्या कर सकते है में आगे चला फिर वो विशाल पीपल का वृक्ष जो की इतना बड़ा था की जिस के नीचे पूरा गांव बैठ सके।जहा उस के नीचे गांव के बुजुर्ग लोग पूरे दिन बैठे बैठे भजन कीर्तन , सुख दुःख की बाते करा करते थे और बच्चे भी वही खेलते थे। वहा गांव की पंचायत भी होती थी। और सभी त्योहार वही मनाए जाते थे। मानो यहां सामुदायिक भवन हो। पर वो पेड़ भी नहीं वो बुजुर्ग नही वो बच्चे नहीं वो छाव भी नहीं। एक जगह से कितने विचार ,संस्कृति, एकता, का प्रदर्शन होता हैं। जगह से बहुत कुछ जुड़ा हो ता है।

मन भर आया आगे जाने का उत्साह खत्म हो गया और मैं फिर चल पड़ा स्टेशन की ओर अगली गाड़ी से अपने एक छोटे और शुद्ध आशियाने पर चल पड़ा।

दक्षल कुमार व्यास