संगीता के पति अजय के जीवन का सूर्यास्त अमावस की रात को हुआ था। संगीता की ज़िंदगी में आई वह अमावस की काली रात इतनी लंबी थी कि पूनम आते-आते कई वर्ष बीत गए। पुत्र की अकाल मृत्यु के ग़म ने संगीता के सास-ससुर को अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहने दिया। गर्भवती संगीता अब अकेली थी, यदि कोई था तो गर्भ में पल रहा शिशु, जो उसके अंदर जीने की चाहत पैदा कर रहा था। शिशु को जन्म देकर संगीता माँ बन गई, एक ऐसी माँ जिसे शिशु की हर ज़रूरत अकेले ही पूरी करनी थी। उस ने कमर कस ली और एक लंबे कठिन सफ़र पर निकल गई। आर्थिक कठिनाइयों से जूझती संगीता ने विवाह से पूर्व सीखी अपनी कला, सिलाई-बुनाई को अपनी जीविका चलाने का ज़रिया बना लिया। स्वयं के लिए कोई चाह नहीं रखने वाली संगीता के जीवन का मक़सद केवल अपने बेटे विनय को उज्जवल भविष्य देना था।
विनय अपनी माँ की मेहनत और कठिन तपस्या को देखते हुए बड़ा हो रहा था और माँ की मेहनत का सम्मान करते हुए मन लगाकर पढ़ाई भी कर रहा था।
एक दिन विनय ने अपनी माँ से कहा, "माँ जब मैं बड़ा होकर कमाने लगूंगा तब आप आराम से रहना, फिर मैं आपको इस तरह से काम बिल्कुल नहीं करने दूंगा।"
विनय के मुँह से यह सुनकर संगीता फूली नहीं समाई और उसने कहा, "विनय तुम बस मन लगाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर लो तो मेरी मेहनत सफल हो जाएगी।"
समय ने करवट ली, इंतज़ार की घड़ियां समाप्त हुईं और आख़िरकार वह दिन आ ही गया जब विनय को पढ़ाई पूरी करते से नौकरी मिल गई। माँ तो आख़िर माँ होती है, अब संगीता के मन में दूसरी जवाबदारी ने दस्तक देना शुरू कर दिया, यह जवाबदारी थी विनय के विवाह की।
संगीता ने विनय से पूछा, "बेटा तुम्हारे जीवन में यदि कोई है तो बता दो। मैं जल्दी से जल्दी अब तुम्हारा विवाह कर देना चाहती हूँ। मैं भी थक गई हूँ, बहू आ जाएगी तो मेरा हाथ बटाएगी।"
विनय ने भी अपनी प्रेमिका अदिति के विषय में अपनी माँ को बता दिया। फिर क्या था दोनों परिवारों की सहमति से विवाह संपन्न हो गया।
संगीता बेहद ख़ुश थी, सोच रही थी मेरी सभी जवाबदारी पूरी हुईं, बस अब हम तीनों शांति और प्यार से आगे का जीवन व्यतीत करेंगे। वह नहीं जानती थी कि उनके जीवन में यह पूनम कुछ ही दिनों की मेहमान है, उनकी असली साथी तो अमावस की काली रातें ही हैं। कुछ ही दिनों में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। घर में कलह का वातावरण हो गया, छोटी-छोटी बातों में झगड़े होने लगे।
संगीता भी स्वभाव से तेज़ थी, उसे किसी का दबाव पसंद नहीं था, फिर बहू के दबाव में कैसे रहती ? विनय दो पाटों की चक्की में पिस रहा था, ना पत्नी को कुछ बोल सकता था और ना ही माँ का संघर्ष भूल सकता था। दोनों को समझाने की उसकी हर कोशिश नाकाम ही रही ।
धीरे-धीरे विनय का झुकाव अपनी पत्नी की तरफ़ बढ़ता गया और मां से दूरियां बढ़ती गईं। जीवन के अंतिम पड़ाव में अपने बेटे के द्वारा अपना तिरस्कार संगीता सहन ना कर पाई। अब संगीता को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी, वह समझ गई कि इस घर में उसका गुज़ारा हो पाना अब मुश्किल है।
मन कई तरह की उधेड़बुन में लगा रहता, क्या फिर से सिलाई का काम शुरु कर दूं ? परेशान संगीता ने अब अपनी सहेलियों से मिलकर उन्हें अपनी आप बीती सुनाई। हर घटना बहते आँसुओं के साथ संगीता के दर्द को बयां कर रही थी।
संगीता ने कहा, “इतनी कठिन तपस्या और मेहनत करके विनय को पाला, किंतु वह सब कुछ भूल गया। मेरा भविष्य अंधकार में है, मुझे डर है कि मेरा बुढ़ापा कहीं वृद्धाश्रम की भेंट न चढ़ जाए, मुझे वहां नहीं जाना है।”
संगीता की सहेलियाँ उसकी आपबीती सुनकर भावुक हो गईं। तब कुछ सहेलियों ने मिलकर कुछ दिनों के लिए हरिद्वार जाने की योजना बनाई, जिससे संगीता इस माहौल से कुछ दिनों के लिए दूर हो जाये और उस का मन भी बहल जाए।
हरिद्वार पहुँचने के बाद एक दिन उसकी सबसे प्रिय सहेली पद्मा ने संगीता की उदासी देखकर गुस्से में कहा, "संगीता तुम्हें तुम्हारा जीवन ख़ुशी से जीने का पूरा हक़ है। बहुत कर दिया तुमने अपने बेटे के लिए, अब सिर्फ़ अपने ख़ुद के लिए भी जी कर देखो, संगीता तुम पुनः विवाह कर लो। "
संगीता चौंक गई और नाराज़गी दिखाते हुए कहा, "यह क्या कह रही हो पद्मा तुम ? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो ?"
तभी आरती ने कहा, "पद्मा एकदम सही कह रही है, आख़िर इसमें ग़लत क्या है ?"
साथ में आए सभी लोगों ने भी पद्मा की बात से सहमति जताई।
संगीता की दूसरी सहेली शालिनी ने कहा, "पद्मा का भाई वीरेंद्र भी तो अपने बेटे बहू के द्वारा तिरस्कृत कर दिया गया है और वह भी तो अकेले ही जीवन का अंतिम पड़ाव पार कर रहा है। हम सब मिलकर उससे इस विषय में बात करते हैं।"
वीरेंद्र से भी सभी ने मिलकर इस विषय में बात की, वीरेंद्र ने भी इंकार कर दिया। दोनों ने एक ही बात कही, समाज क्या सोचेगा ? हमारे बच्चे क्या सोचेंगे ?
तब पद्मा ने कहा, "यह विवाह आप दोनों के भविष्य की सलामती के लिए होगा। अपना तिरस्कार सहन कर अकेले जीने वाले वृद्धों के लिए यह विवाह एक उदाहरण होगा। आप दोनों हिम्मत करके यह कदम उठाएं तो सही, आपके पीछे ना जाने कितनों का भविष्य संवर जाएगा। यह भी समाज कल्याण का एक रास्ता होगा।"
तभी शालिनी ने भी समझाते हुए कहा, "संगीता तुम किस समाज की बात कर रही हो ? क्या कभी कोई तुम्हारा दुख बांटने आएगा ?"
बहुत समझाने के बाद वह दोनों मान गए और अपने सभी मित्रों की उपस्थिति में मंदिर में भगवान के समक्ष संगीता और वीरेंद्र ने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया।
दो बेसहारा बुजुर्ग एक दूसरे का सहारा बन गए।
बेटे ने नाराज़गी दिखाते हुए कहा, "यह आपने क्या कर दिया माँ ? मैं समाज में क्या मुंह दिखाऊंगा ? इस उम्र में कोई भला ऐसा करता है क्या ?"
संगीता ने कहा, “समाज मुझ पर उंगली उठाने से पहले तुम पर उठाएगा, कभी सोचा है। काश यह निर्णय मैंने सही वक्त पर लिया होता। मैं तो तेरे साथ अपना भविष्य सुरक्षित समझ रही थी। अदिति तो पराई है लेकिन तू तो मेरा अपना ख़ून था, नहीं जानती थी कि तू इतना बदल जाएगा । यह निर्णय मेरा ज़रूर है विनय लेकिन इसका कारण केवल तुम हो।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)