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अपनी छत

किराये के मकान में पूरा जीवन काट देने वाले दीनानाथ, वर्षों से अपने मन में ख़ुद की छत की इच्छा दबाये हुए थे। एक-एक करके जवाबदारी आती ही जा रही थीं, जिन्हें निपटाते हुए अब वह पचपन वर्ष के हो गए थे। आख़िरकार सेवानिवृत्त होने के पहले उन्होंने एक फ़्लैट अपने नाम बुक कर ही लिया। पूरे परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। दीनानाथ के बूढ़े माता-पिता की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा, उन्हें लग रहा था कि जीते जी वह भी अपनी स्वयं की छत के नीचे कुछ दिन रह लेंगे।

दीनानाथ ने बिल्डर को अपने पास की जमा पूंजी तथा बैंक से कुछ कर्ज़ा लेकर पैसा दे दिया। अब उन्हें हर महीने अपने मकान का किराया देने के अतिरिक्त, बैंक की किश्त भी चुकानी होती थी। दीनानाथ की दोनों बेटियों का विवाह हो चुका था लेकिन माता-पिता के अत्यंत वृद्ध होने के कारण उनकी दवाओं का ख़र्चा लगा रहता था। एक बेटा भी था किंतु वह मंद बुद्धि था।

दीनानाथ और उनकी पत्नी उर्मिला हर 15 दिन में अपना नया फ़्लैट देखने पहुँच जाते थे। बिल्डर से उनका सदैव एक ही प्रश्न होता था, "साहब मकान कब तक हमें मिल पाएगा?"

तब बिल्डर का भी एक ही जवाब होता, "दीनानाथ जी चिंता क्यों करते हैं, छोटे-छोटे अंदर के काम में बड़ा वक़्त लगता है बस जल्दी करवा देता हूँ, कुछ ही महीनों में चाबी आपके हाथों में होगी।"

दीनानाथ, बिल्डर की बातों से ख़ुश होकर घर लौट जाते, इस उम्मीद में कि चलो कुछ ही महीनों की बात है, जहाँ पूरा जीवन किराए के फ़्लैट में बीत गया कुछ महीने और सही, किंतु जिस महीने का इंतज़ार वे कर रहे थे वह आ ही नहीं रहा था। दीनानाथ की बेचैनी दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी साथ ही पिता की तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी। दीनानाथ को अब नकारात्मक विचार सताने लगे थे। फ़्लैट कब मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं? पिताजी देख पाएंगे या नहीं?

दीनानाथ बहुत ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे इसलिये वह बिल्डर से अधिक कुछ भी नहीं कह पाते थे। अत्यंत मध्यम वर्गीय परिवार के लिए ख़ुद की छत होना बड़े ही सौभाग्य की बात होती है। किंतु लाखों में खेलने वाले, आलीशान मकानों में रहने वाले बिल्डर, उनके दर्द को भला कहाँ समझते हैं, उनके लिए तो यह व्यापार, पैसा छापने की मशीन मात्र ही होता है।

देखते-देखते 5 वर्ष बीत गए, अब तक दीनानाथ सेवानिवृत्त हो चुके थे। अब उन्हें मानसिक तनाव के साथ ही साथ आर्थिक तंगी से भी जूझना पड़ रहा था। इस दौरान उनके पिता भी अपनी अधूरी इच्छा के साथ स्वर्ग सिधार गए। पति के स्वर्गवास के पश्चात दीनानाथ की माँ ने भी बिस्तर पकड़ लिया। वह दीनानाथ से हमेशा कहती, "बेटा इस बिल्डर ने तो हमें लूट ही लिया, मुझे तो लगता है उसकी नीयत ही खराब है, तू पुलिस में शिकायत दर्ज़ करवा दे"

"नहीं माँ दुश्मनी नहीं पाल सकते, वह बड़े लोग हैं, प्यार से ही काम करना पड़ेगा। हम कहाँ कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ेंगे।"

सोमवार का दिन था, सुबह समाचार पत्र पढ़ते समय अचानक दीनानाथ की आँखें बड़ी हो गईं, मुख्य पृष्ठ पर लिखा था-"बिल्डर फ़रार" दीनानाथ के पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गई। बतायें भी तो किसे, बूढ़ी पत्नी को? या बिस्तर पर पड़ी बूढ़ी बीमार माँ को? या फिर उस बेटे को जिसे ज़्यादा कुछ समझता ही नहीं है।

तभी दीनानाथ बिल्डर के ऑफिस जाने के लिए उठ खड़े हुए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा, काफ़ी लोगों की भीड़ एकत्रित थी, पुलिस भी थी और वह लोग भी थे जिन्होंने उन्हीं की तरह वहाँ फ़्लैट बुक किए थे। सब ने मिलकर थाने में शिकायत दर्ज़ करवाई तथा सरकार से जल्दी क़ानूनी कार्यवाही करने की मांग की। हमारे देश का सिस्टम बड़े ही आराम से काम करता है, चाहे वह कोर्ट में चल रही गतिविधियाँ हों या किसी मध्यम वर्गीय परिवार की जीवन भर की कमाई से बना फ़्लैट जो उसके लिए सब कुछ है किंतु उसे मिल नहीं पा रहा है। कार्यवाही अपनी धीमी गति से चलती रही किंतु वक़्त अपनी रफ़्तार से बढ़ता रहा। अपने फ़्लैट के जिस सपने के साथ दीनानाथ के पिता चले गए उसी सपने के साथ उनकी माँ ने भी दम तोड़ दिया।

दीनानाथ अपनी पत्नी उर्मिला से अक्सर कहते, "उर्मिला माँ-बाप तो बेचारे चले गए अरमानों को साथ लेकर, हमें भी हमारे जीवन में यह फ़्लैट मिल पाएगा या नहीं?"

झूठा ही सही, किंतु उर्मिला हमेशा सकारात्मक जवाब देती थी, "ज़रूर मिलेगा, क्यों नहीं मिलेगा? देर ही सही किंतु भगवान हमारे साथ ऐसा अंधेर नहीं करेंगे। आख़िर हमने किसी का क्या बिगाड़ा है? थोड़ा और धैर्य रखिए, एक दिन हमें इंसाफ़ अवश्य ही मिलेगा।"

"और कितना धैर्य रखूं उर्मिला? अब तो लगता है हम भी किराए के मकान से ही…"

"अरे आगे कुछ ना कहो आप, सब ठीक होगा"

"मुझे केवल मोहन की चिंता होती है उर्मिला, यदि हमारा घर हो, तो हमारे बाद भी उसे यहाँ वहाँ दर-दर की ठोकरें ना खानी पड़ें, बार-बार घर ना बदलना पड़े, वह बेचारा यह सब कैसे कर पाएगा?"

कुछ ही दिनों में वह बिल्डर पकड़ा गया और कोर्ट के हस्तक्षेप से सभी को उनके फ़्लैट की चाबी भी मिल गई। अंततः दीनानाथ के जीवन में ख़ुशियाँ भर देने वाला वह पल भी आ ही गया, गृह प्रवेश का मुहूर्त भी निकाल लिया गया किन्तु अचानक मिली इस ख़ुशी को दीनानाथ संभाल नहीं पाए।

दीनानाथ को उनके जीवन काल में ही फ़्लैट मिल जाने की ख़बर से जो सुकून मिला, उसकी ख़ुशी का एहसास शायद वही समझ सकते थे। जाने के वक़्त उन्हें इतना इत्मीनान था कि उनकी पत्नी और बेटा अब ख़ुद की छत के नीचे पूरा जीवन व्यतीत कर पाएंगे। वह यह ख़ुशी अपने साथ लेकर गए और यह ख़ुशी ही उनकी पत्नी और बेटे के लिए आगे जीने का सहारा बन गई। उर्मिला और मोहन अपने घर में रहने पहुँच गए किंतु वहाँ दीनानाथ और उनके माता-पिता की केवल तस्वीर ही पहुँच पाई और यह हमारे समाज का शर्मिंदा कर देने वाला कड़वा सच है।

ऐसे प्रहार एक मध्यम वर्गीय साधारण से परिवार को तोड़ कर रख देते हैं। एक तरफ़ घर का किराया बढ़ता जाता है, दूसरी तरफ़ घर के लिए, लिया हुआ कर्ज़ उतारते-उतारते दम ही निकल जाता है। ऐसे में बिल्डर यदि नापाक इरादा रखने वाला हो तो हाल वैसा ही होता है जैसा दीनानाथ के परिवार का हुआ।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

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