Mujhe tumse yah ummeed nahin thi. books and stories free download online pdf in Hindi

मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी

पुत्र का इंतज़ार करते-करते रुदाली ने चार बेटियों को जन्म दे दिया। हर बार बेटे की उम्मीद रहती, किंतु अभी तक उनकी यह इच्छा पूरी ना हो पाई थी। वह  बेटे की लालसा में हर बार 20-22 घंटे की भयानक प्रसव पीड़ा भी सहन कर लेती थी। रुदाली के पति राकेश ने कई बार उसे समझाया कि हमारी चार-चार बेटियाँ हैं, वे भी बेटों की तरह ही तो हैं।   फिर भी रुदाली हमेशा एक बेटे की ज़िद पर अड़ी ही रहती थी।  


राकेश के बार-बार समझाने पर परेशान होकर एक दिन रुदाली ने कहा, "राकेश मेरी चार बहने हैं किंतु एक भी भाई नहीं। हम पांचों बहनों के लिए मेरे मम्मी पापा ने अपनी पूरी ज़िन्दगी खपा दी। तन मन धन सब कुछ हम पर न्योछावर कर दिया। हमारा भविष्य बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। हम सब का विवाह हो गया, हम अपनी-अपनी ससुराल चले गए। अकेले बच गए पापा और मम्मी, हम चाह कर भी उनके बुढ़ापे की लाठी ना बन पाए। यदि उनका एक बेटा भी होता तो उन्हें यह दिन नहीं देखने पड़ते। वह उनके बुढ़ापे का सहारा ज़रूर बनता। बस इसलिए मुझे बेटा चाहिए ताकि हम मेरे पापा-मम्मी की तरह अकेले ना हो जाएँ। इन चारों के ससुराल चले जाने के बाद एक दिन के लिए भी अगर इन्हें बुलाना होगा तो उनके सास-ससुर और पति से हमें अनुमति लेनी होगी। वह भेजेंगे या नहीं, यह उनकी इच्छा पर निर्भर होगा।"


राकेश ने  पुनः उसे समझाने की कोशिश करते हुए कहा, "रुदाली अब समय बदल गया है, अब ऐसा नहीं होगा।"  


"नहीं राकेश, यह सच्चाई है कि पालते-पोसते हम हैं, पढ़ाते लिखाते हम हैं, लेकिन अधिकार उनका ही हो जाता है। याद करो राकेश, मुझे बुलाने के लिए भी मेरी मम्मी, तुम्हारी मम्मी से पूछती थीं और यह भी याद करो कि उन्होंने कितनी बार मुझे ख़ुशी से भेजा? किंतु मुझे याद है कि कितनी बार मेरी माँ की आँखों से आँसू बहे।"


राकेश यह सब सुनकर चुप हो गया।  


रुदाली ने बहुत पूजा पाठ किया, कई मंदिरों के चक्कर काटे, आखिरकार भगवान ने उनकी सुन ही ली और रुदाली की मनोकामना पूरी हो गई। घर में ढोलक मंजीरे बजने लगे, चारों बहनें भी बहुत ख़ुश थीं कि उन्हें एक भाई मिल गया।  


अब समय आगे बढ़ता गया, सभी बच्चे बड़े हो रहे थे। एक-एक करके चारों बेटियों का विवाह हो गया। कुछ सालों बाद उनके बेटे विवेक का भी नंबर आ गया और उसका विवाह भी हो गया। उसकी पत्नी सरला अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी। रुदाली सरला को बिल्कुल अपनी बेटी की तरह रखती थी, उसे बहुत प्यार करती थी।  


एक बार सरला की माँ की तबीयत बहुत खराब हो गई, डॉक्टर ने उन्हें एक माह के बेड रेस्ट की सलाह दी।


तब सरला के पिता मोहन ने रुदाली को फ़ोन करके कहा, "रुदाली जी एक महीने के लिए क्या आप सरला को यहाँ भेजेंगी। उसकी मम्मी की तबीयत खराब है डॉक्टर ने बेड रेस्ट के लिए कहा है। यदि सरला आ जाएगी तो मदद हो जाएगी।"  


नाक मुँह सिकोड़ते हुए रुदाली ने जवाब दिया, "समधी जी दो-चार दिन की बात होती तो उसे मैं अवश्य ही भेज देती, किंतु एक महीना? उसके बिना हमारे घर का तो पत्ता भी नहीं हिलता।"


रुदाली का ऐसा व्यवहार देखकर राकेश हैरान होकर उसकी तरफ़ देख रहा था। राकेश से नज़रें मिलते ही रुदाली की नज़रें अपने आप ही नीचे झुक गईं।   


तब राकेश ने रुदाली के हाथ से फ़ोन छीनते हुए मोहन से कहा, "आप चिंता ना करें, मैं आज ही सरला को आपके पास भेज देता हूँ। जब तक समधन जी की तबीयत ठीक ना हो जाए आप उसे वहीं रखिए।"


तब मोहन ने कहा, " राकेश जी, बहुत-बहुत धन्यवाद।


"अरे मोहन जी धन्यवाद की क्या बात है, सरला आप की ही तो बेटी है।"


राकेश ने फ़ोन रखकर नाराज़गी दिखाते हुए रुदाली से कहा, " तुम भी वही गलती कर रही हो रुदाली, जो दूसरे लोग करते हैं। मैंने तो सोचा था कि तुम अपने माता-पिता का दुःख देखकर ऐसा ग़लत क़दम कभी नहीं उठाओगी, किंतु तुमने भी बेटे की माँ होने का और एक सास होने का एहसास सरला के पिता को करा ही दिया, मुझे तुमसे यह उम्मीद कतई नहीं थी रुदाली। काश तुमने कहा होता, ठीक है मोहन जी आप चिंता ना करें मैं आज ही सरला को भेज देती हूँ।



रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

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