भूली बिसरी खट्टी मीठी यादे - 2 Kishanlal Sharma द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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भूली बिसरी खट्टी मीठी यादे - 2

जोधपुर का जिक्र हो और कचोड़ी की बात न हो।वहाँ की मावे की और प्याज की कचोड़ी मशहूर थी।आजकल तो कई जगह मिल जाएगी लेकिन वहां का जवाब नही था।उन दिनों 40 पैसे की कही पर 30 पैसे की मिलती थी।ज्यादा से ज्यादा 2 मावे की कचोड़ी में आदमी का पेट भर जाता था।प्याज की कचोड़ी शनिवार को ही बनती थी।कालेज की छुट्टी होने पर मैं जोधपुर से आबूरोड जाता था।उसके लिए मारवाड़ आना पड़ता और मारवाड़ से दूसरी ट्रेन बदलनी पड़ती।तब छोटी लाइन थी।रास्ते मे लूनी जंक्सन पड़ता।यहाँ के सफेद रसगुल्ले मसहूर थे।उन दिनों दो रु किलो मिलते थे।
उस समय मुझे साहित्य पढ़ने का शौक लग चुका था।अरुण,साथी,मुक्ता, सरिता, धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान पढ़ता था।अखबार का शौक जब मैं 8वी में था।तब लग गया था।उन दिनों किराये पर उपन्यास मिलते थे।गुरुदत्त,शरदचंद,आचार्य चतुरसेन,कृष्ण चन्द्र, आदि सभी लेखकों को मैने पढ़ा।
साल 1969 मेरे जीवन का न भूलने वाला साल है।शायद मेरे इस आपबीती को कोई सहसा विश्वास नही करेगा।पर इसे मैने भोगा है।पल पल जिया है।मुझे जागते और सोते में अपने पिता की लाश साफ दिखने लगी थी।मैं सो नही पाता था।यह बात किसी से कह नही सकता था।
और मैं पिता को पत्र लिखता।उन दिनों मोबाइल या फोन नहीं थे।लेकिन डाक व्यस्था सही थी।दिन में 2 बार डाक वितरण होता।डाक जल्दी भी मिलती थी।पिताजी का जवाब आया सही हूँ।उस साल कई घटनाएं परिवार में हुई।एक चचेरे भाई के नवजात शिशु की मौत,एक बहनोई के भाई की मौत,एक नवब्याहता भाभी की मौत।
उन दिनों कॉलेज में किसी एक्टिविटी में भाग लेना पड़ता था।मैंने एन सी सी में जॉइन की थी।दूसरी साल होने पर 10 दिन के केम्प पर हम जोधपुर से माउंट आबू के लिए आये थे।तीन बसे आयी थी।केम्प के वाद दीवाली की छुट्टी होने वाली थी।मैं सोचकर आया था कि केम्प खत्म होने के बाद मैं माउंट आबू से अपने घर चला जाऊंगा।माउंट आबू में टेंट लगाकर हमे रोका गया था।ठंड के दिन और वो भी हिल स्टेशन।वहाँ ठंड और भी ज्यादा थी।दस दिन बड़ी मुश्किल से गुजरे।रात में ही नही दिन में भी मुझे अपने पिता की लाश साफ नजर आती और मैं बेचैन रहता।मैने वो दस दिन कैसे गुज़ारे मैं ही जनता हूं।
और आखिर केम्प खत्म हुआ और मैं आबूरोड अपने घर आ गया।पिता बिल्कुल ठीक थे।मुझे तसल्ली हुई।उन दिनों आबूरोड कोई बहुत बड़ा नही था।रेलवे कॉलोनी स्टेशन के दोनों और थी।लेकिन बाजार एक ही तरफ था।बाजार ज्यादा बड़ा नही था।स्कूल के दोस्त तो कई थे।लेकिन एक था पूरन।उसके साथ एक होटल में बैठकर मैं चाय पिया करता था।आगे बढ़ने से पहले कुछ किस्से पहले के।
चौथी क्लास मैने बांदीकुई के रेलवे स्कूल से पास की और फिर पिताजी का ट्रांसफर अछनेरा हो गया तो पांचवी क्लास में अछनेरा के रेलवे स्कूल में करा दिया गया।उस समय अछनेरा का यार्ड बहुत बड़ा था।स्टेशन पर पुल नही था।रेलवे स्टेशन के दोनों तरफ रेलवे के प्राइमरी स्कूल थे।रेलवे का अपना पावर हाउस था।स्टेशन के बाहर बजरिया थी।उसमें कई मिठाई की दुकानें थी।एक दुकान असली घी की मिठाई की थी।पांच रु किलो असली घी की जलेबी मिलती थी।स्टेशन के पास ही शिव का मंदिर था।