ममता की परीक्षा - 29 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 29



सीढ़ियों से उतरते हुए राजीव उर्फ़ रॉकी ने अपने सामने खड़े पापा गोपाल अग्रवाल को देखकर मुँह बिचकाया और सीढ़ियों पर ही रुक गया कि तभी उसके पीछे आ रही उसकी माँ सुशीला देवी ने पूछा, "क्या हुआ बेटा ? रुक क्यों गया ?"
" रुकूँ नहीं तो क्या करूँ मम्मा ! वो देखो आपके आदर्श वादी पति हमें कुछ ज्ञान देने के लिए मरे जा रहे हैं !" राजीव ने गोपाल के सामने ही उनका मजाक उड़ाया।

सुशीलादेवी कुछ कहतीं कि उससे पहले गोपाल का बेबस सा स्वर सुनाई पड़ा, " देख लो सुशीला, अपने लाडले के संस्कार ! अब खुलकर सामने आ गए हैं जो संस्कार तुमने इसे दिए हैं।"
"तो क्या करूँ ? माँ हूँ मैं उसकी, कोई कसाई नहीं ! ..और फिर वह अरबपति बाप की इकलौती संतान है। यही तो समय है उसके खेलने खाने के। जवानी हमेशा नहीं रहती। खूब घूमने दो उसे , जिंदगी के मजे लेने दो। .... लेकिन तुम क्या जानो ये जवानी और जिंदगी के मजे ! तुम्हें तो हर वक्त समाज का डर , लोगों की परवाह और संस्कारों की बेडियाँ जकड़े रहती हैं। तुम्हीं रहो इन दकियानूसी संस्कारों से बंधे हुए। मेरे बेटे को बांधने की कोशिश कभी नहीं करना।" रौद्र रूप धरे हुए सुशीला ने गोपाल की तरफ एक तिरस्कार भरी नजर डाली और फिर राजीव की तरफ देखते हुए प्यार से बोली, "जा बेटा जा ! मजे कर। तेरे दोस्त तेरी राह तक रहे होंगे।.. जा !"

माँ की आज्ञा पाकर राजीव का दिल बल्लियों उछल रहा था। आज उसने शहर से बाहर एक झील के किनारे मित्रों के संग पिकनिक मनाने का प्लान किया था। उसने दोस्तों को पहले ही पर्याप्त रकम दे दी थी जिससे उन्हें शराब और कबाब का इंतजाम करने में कोई दिक्कत न हो लेकिन घर से निकलते हुए सामने खड़े अपने पापा को देखकर उसे अपनी योजना पर पानी फिरता हुआ नजर आया था और इसीलिए उसने अपनी माँ को आवाज लगाई थी।
तेजी से मुडकर वह दरवाजे से बाहर की तरफ लपका ही था कि अचानक सुशीला की आवाज सुनकर उसके कदम जहाँ के तहाँ थम गए। "बेटा, ईधर आ !" कहते हुए सुशीला ने अपना पर्स खोलकर उसमें से नोटों की एक गड्डी निकालकर उसकी तरफ उछाल दिया, "ले रख ले ! पास रहेगा तो तेरे काम ही आएगा।"

बड़ी फुर्ती से नोटों की गड्डी लपकते हुए राजीव उर्फ़ रॉकी ने होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा, "इसकी क्या जरुरत थी मम्मा ! इतने सारे क्रेडिट और डेबिट कार्ड्स हैं न मेरे पास !"

"अरे नहीं बेटा ! नोटों का काम नोटों से ही होता है। तेरे पास लाख क्रेडिट और डेबिट कार्ड हों लेकिन फिर भी नगदी की अपनी अहमियत है। फर्ज करो तुम किसी ऐसी जगह जाकर फँस गए जहाँ कोई कार्ड स्वीकार करने वाला ही नहीं है तो ?.. और फिर कार्ड से लेनेवाला हो भी और नेटवर्क ही न हो तो ?" सुशीला ने उसे समझाया।

नोटों की गड्डी लपक कर अपनी जेब के हवाले करता हुआ रॉकी तेजी से बाहर की तरफ बढ़ गया। उसे बाहर जाते हुए बलिहारी नज़रों से देखते हुए सुशीला ने घूमकर गोपाल की तरफ देखा और फिर तंज कसने के स्वर में बोली, "देखा आपने ? पैसे की कितनी कदर है मेरे बेटे को। जल्दी कभी पैसा लेता ही नहीं। एक आप हैं कि आपको उसमें हरदम ऐब ही नजर आते हैं।"

बुझा हुआ चेहरा लिए गहरी साँस छोड़ते हुए सेठ गोपाल अग्रवाल संयत कदमों से बंगले के अंदर की तरफ जाते हुए धीमे स्वर में बोले, "लगता है तुमने सुल्ताना डाकू की कहानी नहीं सुनी है सुशीला !"

लेकिन अपनी ही रौ में बोले जा रही सुशीला ने गोपाल की दबे स्वर में कही गई बात नहीं सुनी थी। राजीव उर्फ़ रॉकी वहाँ से जा चुका था। वहाँ ख़ामोशी का साम्राज्य पसरा हुआ था। गोपाल अभी पचास वर्ष का भी नहीं हुआ था लेकिन अपनी उम्र से काफी बूढ़ा नजर आ रहा था। धीमे कदमों से चलता हुआ वह किसी सत्तर साल के बुड्ढे से कम नजर नहीं आ रहा था। उसके चेहरे को देखकर लगता ही नहीं था कि उस इंसान ने कभी जिंदगी में खुलकर ठहाका भी लगाया होगा। उसके गमगीन चेहरे पर जमाने भर का दर्द सिमट आया था।
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
मास्टर रामकिशुन की बात सुनकर गोपाल को अपनी परेशानियाँ बढ़ती हुई सी लगीं, लेकिन उसे पता था कि इसके विपरीत तत्काल कोई प्रतिक्रिया उसकी पोल खोलने के लिए काफी है। अतः उसने ख़ामोशी अख्तियार करने में ही अपनी भलाई समझी। इस विषम परिस्थिति से बचने के लिए विषयांतर करते हुए उसने गाँव के बारे में कुछ जानकारी लेनी शुरू कर दी।

कुछ देर तक ही उनकी बातों का सिलसिला चला था कि, साधना भी आकर उनके पास ही दूसरी खटिया खींचकर बैठ गई। मास्टर रामकिशुन रस लेकर गोपाल की हर बात का जवाब दे रहे थे। साधना थोड़ी देर उनकी बातें सुनती रही और फिर मास्टर रामकिशुन से बोली, "बाबूजी, चलिए ! हाथ मुँह धो लीजिये। भोजन तैयार है।"
और फिर गोपाल से मुखातिब हुई, "और आप भी चलिए गोपाल जी ! भोजन गरम गरम ही अच्छा लगता है।"

"अच्छा ! क्या पकाया है तुमने साधना ? अभी अभी तो तुम रसोई में घुसीं और इतनी जल्दी भोजन तैयार भी हो गया ?" गोपाल ने आश्चर्यचकित मुद्रा में उससे पूछा।

साधना भी उसके चेहरे पर अचरज के भाव को महसूस कर मुस्कुराई, "तीन लोगों का खाना बनाने में समय ही कितना लगता है ? और फिर आपके घर की तरह कोई तरह तरह के पकवान थोड़े न बनाने थे मुझे। दाल , रोटी और आलू की सब्जी बना दी हूँ। कल आप जो कहियेगा आपको बनाकर खिला दूँगी।"
"अरे नहीं साधना ! आलू की सब्जी तो मेरा फेवरिट है। चलो, अब पेट में चूहे उछल कूद कर रहे हैं।" कहते हुए गोपाल भी खटिये पर से उठा और साधना के पीछे पीछे चल पड़ा। मास्टर रामकिशुन पहले ही घर में जा चुके थे।

बरामदा पार कर गोपाल आँगन में पहुँच गया। खुले आँगन में से ऊपर दूर गगन में सितारों से भरा आसमान देखकर गोपाल का मन मयूर खिल उठा। शहर में रहते हुए उसने कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था।

भोजन करने के बाद गोपाल के लिए बाहर ही मास्टर रामकिशुन की पलंग के बगल में ही खटिया बिछाकर उस पर बिस्तर लगा दिया था साधना ने।

बिस्तर पर लेटते हुए पहली बार गोपाल को कुछ अजीब सा महसूस हुआ और उसके जेहन में अपने बेडरूम का दृश्य घूम गया। आलिशान पलंग और उसपर बिछे डनलप के मोटे आरामदेह गद्दों पर खूबसूरत डिजाइन के बेडशीट के साथ ही मौसम के अनुकूल चद्दर।
अपने विचारों को झटककर गोपाल ने आँखें बंद कर सोने का प्रयास किया और फिर शनै शनै निंदिया रानी की आगोश में समाता चला गया।

क्रमशः