ममता की परीक्षा - 27 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 27



जमनादास के बंगले से निकलकर गोपाल और साधना एक बार फिर सड़क पर आ गए थे। दोनों सड़क पर ख़ामोशी से चल रहे थे। उन्हें देखकर किसी को भी इस बात का अहसास नहीं हो सकता था कि कितना बड़ा तूफान उनकी जिंदगी में दस्तक दे चुका था। ऊपरी ख़ामोशी के बावजूद दोनों के दिमाग में विचारों के अंधड़ चल रहे थे। सड़क किनारे 'अहिल्याबाई महिला छात्रावास ' का बोर्ड देखकर दोनों के कदम ठिठक गए।

साधना को मानो अपनी स्थिति का भान हुआ। गोपाल से मुखातिब होते हुए बोली, " आपका बहुत बहुत धन्यवाद गोपाल जी ! आपने बहुत अच्छे से पूरा प्रयास किया माँ जी को समझाने का लेकिन लगता है मेरे ही नसीब में उनका प्यार, उनकी ममता नहीं लिखी हुई है। आपसे निवेदन है कि आप उनकी बात मानकर अपने घर लौट जाएँ और वो जहाँ कहें उनकी मर्जी के मुताबिक शादी कर लें।"

"ये क्या कह रही हो साधना ? क्या मैं तुम्हारे लायक नहीं ?" तड़प उठा था गोपाल।

" नहीं, ऐसी बात नहीं गोपाल ! शायद मैं ही अग्रवाल खानदान के लायक नहीं !"कहते हुए साधना के चेहरे से घोर निराशा और गहरी वेदना झलक रही थी।

"नहीं साधना ! कम से कम तुम तो मेरा साथ दो ! अगर तुम मेरे साथ हो तो फिर मुझे किसी की परवाह नहीं ! " कहते हुए गोपाल की आँखें भर आई थीं। साधना के सामने वह घुटनों पर झुक गया था कातर निगाहों से इशारे में उसके रजामंदी की भीख माँगते हुए।

" मैं तो हमेशा ही आपके साथ हूँ गोपाल जी ! चाहती तो हूँ कि आपके ही साथ जिंदगी के आगे के दिन बिताऊँ, लेकिन मेरे चाहने से क्या हो सकता है ? माँ बाप के प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारी होती है और मैं नहीं चाहती कि आप मेरी वजह से अपने घर व परिवार की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लो।" साधना की आँखें भी भर आई थीं। छलक आए आँसुओं को छिपाने के प्रयास में उसने मुँह दूसरी तरफ घूमा लिया।

अचानक पता नहीं गोपाल के पास कहाँ से इतना साहस आ गया कि दोनों हाथों से साधना के बाजुओं को पकड़ कर उसे अपनी तरफ घूमाते हुए उसने कहा, "इधर देखो साधना, मेरी तरफ ! मेरी आँखों में झाँक कर कहो ! क्या तुम सचमुच चाहती हो कि मैं वापस चला जाऊँ ? बस एक बार मेरी आँखों में देखकर कह दो..मैं चला जाऊँगा, ..तुम्हें शिकायत का कोई मौका दिए बगैर ! चाहे आगे सारी जिंदगी मुझे तुम्हारी याद में रोना ही क्यों न पड़े ? लेकिन तुम्हारी ख्वाहिशों के परे मैं कुछ भी नहीं करूँगा। बोलो साधना, चुप क्यों हो ? बोलो ! "कहते हुए गोपाल की भी आँखें छलक पड़ी थीं।

साधना की नजरें उनपर पड़ते ही वह तड़प उठी। पलकों के किनारे तोड़कर आँसू उसकी आँखों से भी छलक पड़े थे। अपने नाजुक हाथों से उसकी पलकों से छलक आये आँसुओं को साफ़ करते हुए साधना का कंपकंपाता स्वर निकला, "क्या आप नहीं जानते गोपाल ? .....कि मैं क्या चाहती हूँ ?"

"तो फिर यह होठों पर इंकार क्यों है साधना ? क्यों करती हो उनकी इतनी परवाह , जिन्हें हमारी जरा भी परवाह नहीं ?" अचानक गोपाल के मन का आक्रोश उसके मुँह के रास्ते बाहर आ गया था, "अब तुम कुछ नहीं कहोगी साधना ! अब मैं समझ गया हूँ कि मुझे क्या करना है !" कहने के साथ ही गोपाल ने कलाई पर बंधी घडी देखी।

शाम के पाँच बजनेवाले थे। समय देखने के बाद वह साधना से मुखातिब होते हुए बोला, "सुजानपुर के लिए शाम की बस छूटने में अभी काफी समय है। चलो, फटाफट तैयारी कर लो। तुम्हारे साथ मैं भी सुजानपुर चल रहा हूँ !"
आश्चर्य मिश्रित स्वर में साधना बोल पड़ी, "लेकिन, आप ........वह बहुत छोटा सा गाँव है जहाँ बिजली का भी कोई ठिकाना नहीं रहता। आप वहाँ जाकर क्या करेंगे ? कैसे रहेंगे ?"

उसकी हड़बड़ाहट देखकर बरबस ही मुस्कान बिखर गई थी गोपाल के चेहरे पर, "तुम फ़िक्र मत करो साधना ! मैं वहाँ बिजली से मिलने नहीं जा रहा !" कहते हुए उसके गंभीर मुखड़े पर एक पल को हँसी छलक पड़ी।

दो पल बाद उसने फिर गंभीर मुद्रा में कहना शुरू किया ," मैं तो वहाँ जा रहा हूँ अपने होनेवाले ससुर जी से मिलने और उनसे उनकी बेटी का हाथ अपने लिए माँगने, हम दोनों के लिए उनसे आशीर्वाद की याचना करने !.. बोलो, साथ दोगी न मेरा ?"

एक पल के लिए साधना के मुख पर भी मुस्कान फ़ैल गई लेकिन अगले ही पल उसके मन की आशंका उसके होठों पर आ गई, "लेकिन .....!"
" लेकिन क्या साधना ?" गोपाल आतुरता से पूछ बैठा।

" लेकिन क्या आप सचमुच गाँव आना चाहते हैं मेरे साथ ?" साधना से कुछ कहते न बना तो यूँ ही कुछ कह दिया।

"क्यों ? तुम्हें कोई शक है ?" गोपाल ने जवाब दिया।

"नहीं, मेरा आशय इस बात से था कि आप इस शहरी माहौल में पले बढ़े हो, सभी सुख सुविधाओं के आदि हो, जबकि वहाँ तो यहाँ जैसा कुछ भी नहीं मिलने वाला है।" साधना ने बात को और स्पष्ट किया।

"साधना ! यह मैं भी जानता हूँ कि गाँव में शहर जैसी सुविधाएँ हासिल करने के लिए सोचा भी नहीं जा सकता, लेकिन जहाँ आपस में प्यार हो वहाँ सुख सुविधाएँ मायने नहीं रखती। अभी एक गाना धूम मचाये हुए हैं, तुमने सुना ही होगा मोहम्मद रफ़ी की आवाज में यह गीत ....
'सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं , अच्छे हैं प्यार के दो चार पल ...!' और तुमको मैं अपने दिल की बात बताता हूँ कि मैं भी फिलहाल यही सोच रहा हूँ। और हाँ तुमसे एक जरुरी बात कहनी थी और वो बात ये है कि मुझे तुम्हारे मुख से 'आप ' का संबोधन अच्छा नहीं लगता। यह जो संबोधन है न यह कहीं न कही जुड़ते दिलों में दूरी का अहसास कराता है। सम्मान तो हमारे दिलों में होगा एक दूसरे के प्रति। उसके लिए शब्दों की मोहताजी क्यों ? औपचारिकताएं अपनों के बीच एक दीवार का काम करती हैं और मैं नहीं चाहता क़ि मेरे और तुम्हारे बीच कोई दूरी रहे। मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर तुम मुझे सिर्फ नाम से या फिर 'तुम ' कहकर पुकारो !" गोपाल ने भी अपने मन की बात कह दी।

उसकी बात सुनकर साधना की मुस्कान और गहरी हो गई। बड़े प्यार से गोपाल के हाथों को थामते हुए वह बोली, "कोई बात नहीं ! ऐसा कर तो नहीं पाऊँगी लेकिन फिर भी आपका आदेश सर माथे पर। पूरी कोशिश करुँगी ! आप यहीं थोड़ी देर रुकिए, मैं अभी आई।"

कहने के बाद साधना एक पल भी वहाँ रुकी नहीं और मुख्य प्रवेशद्वार से छात्रावास में प्रवेश कर गई।

लगभग दस मिनट बाद साधना एक बड़ी सी लोहे की पेटी हाथ में लिए बड़ी मुश्किल से आती हुई दिखी। उस पेटी के भार से साधना एक तरफ पूरी तरह से झुक गई थी।

गोपाल उसकी मदद करना चाहता था लेकिन वह मजबूर था। छात्रावास के दरवाजे पर खड़ा दरबान उसे इसकी इजाजत नहीं देने वाला यह बात वह अच्छी तरह जानता था।

किसी तरह साधना वह भारी बक्सा लिए छात्रावास के मुख्य निकास दरवाजे तक पहुँची, जहाँ गोपाल बड़ी बेसब्री से उसकी बाट देख रहा था।

क्रमशः