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साक्षरता 

गुस्से में तिलमिलाती रुहानी ने घर में आते ही अपना स्कूल बैग फेंकते हुए कहा, "पापा मैं अब कल से स्कूल नहीं जाऊँगी।"  

उसके पिता रमेश ने पूछा, "अरे क्या हुआ बेटा, ऐसा क्यों बोल रही हो?"  

रुहानी ने रोते हुए अपने पिता से पूछा, "पापा हम क्यों इतने छोटे से घर में रहते हैं? हम इतने गरीब क्यों हैं? मेरी कक्षा की लड़कियाँ अच्छे-अच्छे स्कूल बैग, सुंदर टिफिन और स्वादिष्ट नाश्ता लेकर आती हैं। मेरे डब्बे से नाश्ता लेना कोई पसंद नहीं करता और कोई मुझे अपनी सहेली नहीं बनाता, ऐसा क्यों है पापा? मुझे पढ़ाई नहीं करना।"  

पग-पग पर हालातों से समझौता करने वाला रमेश अपनी बेटी की बातें सुन कर दुःखी हो गया। वह बहुत मेहनत मजदूरी करके रुहानी को अपनी हैसियत से ज़्यादा बड़े स्कूल में पढ़ा रहा था।  

रमेश ने रुहानी को समझाते हुए कहा, "बेटा मेरे पिताजी ने मुझे कभी स्कूल नहीं भेजा। मैं अनपढ़ ही रह गया इसलिए मुझे कभी अच्छी नौकरी ना मिल पाई। मैंने भी कभी पढ़ाई लिखाई के बारे में नहीं सोचा। काश सोच लिया होता तो मैं भी साक्षर होता। तुम्हें भी इस ग़रीबी से तकलीफ़ नहीं उठानी पड़ती। मैं तुम्हें पढ़ा-लिखा कर साक्षर बना देना चाहता हूँ, ताकि तुम्हारा जीवन भी मेरी तरह ना बीते। रुहानी बेटा तुम यदि ख़ूब मेहनत करके पढ़ोगी और बहुत अच्छे नंबर लाकर पास होगी तो देखना तुम्हारी कक्षा की सारी लड़कियाँ तुम्हें अपनी सहेली ज़रूर बना लेंगी।"  

तब रुहानी ने पूछा, "पापा क्या आप सच कह रहे हैं?"  

"हाँ बेटा मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ। रुहानी बेटा साक्षरता ऐसी चाबी है, जिससे जीवन का वह द्वार खुलता है जहाँ से विद्या धन की प्राप्ति के साथ ही हर सुख-सुविधा भी मिलती है। जीने का सलीक़ा मिलता है और नौकरी भी मिलती है, जिससे हम इज़्ज़त से अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं।"  

तभी रमेश की आँखें अपने पिता दिनेश से जा मिलीं, रमेश उनकी आँखों में आँसू देख कर दुःखी हो गया। उसका इरादा अपने पिता को शर्मिंदा करने का कतई नहीं था।  

रमेश ने अपने पिता के पास जाकर उनकी आँखों के आँसू पोंछते हुए कहा, "बाबूजी आपने कुछ भी जान बूझकर तो नहीं किया ना क्योंकि उस वक़्त साक्षरता का महत्त्व हम नहीं जानते थे। इसीलिए हमारे साथ ऐसा हो गया।" 

अपने दादा जी की भीगी आँखों को देखकर रुहानी ने कहा, "दादा जी आप दुःखी मत हो, मैं अब साक्षरता का महत्त्व अच्छी तरह से समझ गई हूँ। अब आप देखना मैं ख़ूब पढूँगी, फिर हम भी गरीब नहीं रहेंगे और हमें भी हर सुख सुविधा मिलेगी।"  

रुहानी आगे कुछ कहे उससे पहले दादाजी ने कहा, "मुझे माफ़ कर दो बेटा, मेरी नासमझी के कारण ही तुम्हारे पिताजी पढ़ नहीं पाए और इसलिये हमारे परिवार को ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं।"  

रुहानी ने अपने दादाजी के आँसुओं को पोंछते हुए कहा, "दादा जी आप देखना अब मैं भी गाँव के सभी लोगों में जागरुकता लाने की कोशिश करूँगी ताकि गाँव के सभी बच्चे साक्षरता का महत्त्व समझ सकें और पढ़ लिख कर एक अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें।"   
 
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)  

स्वरचित और मौलिक
 

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