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हमें अलग घर बनाना होगा  

सविता ने अपनी बहू शालिनी के आते ही स्वयं को घर के कामकाज से एकदम दूर कर लिया। शालिनी के जीवन की पतंग की डोरी उन्होंने अपने हाथ में रखी थी। यूँ समझ लो कि शालिनी के जीवन का पूरा नियंत्रण सविता ने अपने हाथों में ले रखा था। पूरे परिवार पर उन्हीं का शासन चलता था। शालिनी का पति चिराग भी अपनी माँ के समक्ष एक शब्द भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था।  

कई बार शालिनी शिकायत कर कहती, "चिराग माँ तो मुझे मेरे मन मुताबिक जीने ही नहीं देतीं, मैं क्या पहन रही हूँ, क्या कर रही हूँ, कहाँ जा रही हूँ, मेरी हर गतिविधि पर उनकी नज़र होती है। मैं उनसे पूछे बिना कुछ कर ही नहीं सकती।"  

"शालिनी माँ ने शुरू से पूरे परिवार को उनके नियंत्रण में रखा है। तुम्हें भी उनके अनुशासन में ही रहना होगा।"  

"नहीं चिराग मेरे भी कुछ सपने हैं, मुझे भी नौकरी करनी है, अपनी इच्छा अनुसार कपड़े पहनने हैं। ये क्या है पूरे दिन साड़ी पहनो, नीति तो सब पहनती है ना चिराग, वह बेटी है और मैं बहू, आख़िर फ़र्क तो माँ करती ही हैं।"  

"शालिनी नीति छोटी है, पढ़ रही है अभी, तुम समझती क्यों नहीं?"  

"कितनी छोटी है चिराग, दो साल, सिर्फ़ दो साल, मुझे तो लगने लगा है तुम्हारे घर में मेरे सारे सपनों को तोड़ दिया जाएगा। तुम माँ को समझाओ चिराग, वरना हमें अपना अलग घर बनाना होगा जहाँ मैं भी ख़ुश रह सकूँ। मुझे अलग रहने का शौक नहीं है, मैं जानती हूँ कि संयुक्त परिवार में रहने से कितनी ख़ुशी मिलती है।"  

"ठीक है शालिनी मैं माँ से बात करूँगा," कहकर कर चिराग ने बात को समाप्त कर दिया।  

चिराग की बहन नीति अपनी भाभी के साथ हो रहे व्यवहार से बहुत दुःखी थी। वह सोच रही थी, इतनी पढ़ी लिखी हो कर भी माँ सास बनने से ख़ुद को रोक ना पाईं।  

हिम्मत जुटा कर आख़िर एक दिन उसने सविता से कहा, "माँ आप भाभी के साथ कितना ग़लत व्यवहार कर रही हो, व्यवहार नहीं माँ दुर्व्यवहार कर रही हो।"  

गुस्से में तिलमिलाते हुए सविता ने कहा, "नीति मैं क्या ग़लत कर रही हूँ। परिवार के कायदे कानून और अनुशासन में रहने के लिए ही तो कह रही हूँ। मैंने भी तो जीवन भर कायदे कानून माने हैं। मैंने भी पूरी ज़िंदगी अपनी सास का कहा माना है।"  

"तो क्या माँ आपके साथ जैसा हुआ, आप वैसा ही भाभी के साथ करोगी। ये कैसा अन्याय है माँ? आप के ऐसे रवैये से परेशान होकर देखना एक दिन वह भैया को लेकर अलग इतनी दूर चली जाएगी कि आप उन तक पहुँच भी नहीं पाओगी, रहना फिर आप दोनों अकेले। अभी भी वक़्त है, भाभी को भी अपनी दूसरी नीति ही समझो ना माँ। आप ख़ुद ही अपने परिवार को तोड़ रही हो, काश आप भाभी की भी माँ बन पातीं। चिराग भी कब तक अपनी पत्नी का अपमान सहन करेगा?"  

नीति के लाख समझाने पर भी सविता नहीं बदली। चिराग भी अपनी पत्नी को घुटते हुए, उसके सपनों को टूटता हुआ देख रहा था, फिर भी माँ से कुछ भी कहने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाया।  

इसी बीच नीति का विवाह भी तय हो गया। नीति के ससुराल में उसे हर बात की आज़ादी थी। वह अपना जीवन अपने मन मुताबिक जी सकती थी। उसकी सास का स्वभाव, उसकी माँ से एकदम ही अलग था। कुछ ही दिनों में नीति अपनी सास विनीता से इतनी जुड़ गई कि अपने मन की हर बात वह उनके साथ बांटने लगी।  

एक दिन नीति ने विनीता से कहा, "मम्मी जी मेरी भाभी बहुत अच्छी हैं लेकिन मेरी माँ उन पर ज़रूरत से ज़्यादा अनुशासन रखती हैं। उनके जीवन में इतना हस्तक्षेप होने के कारण भाभी घुट-घुट कर जीती हैं। मैंने अपनी माँ को समझाने की बहुत कोशिश की किंतु वह बिल्कुल नहीं बदलीं।"  

"नीति तो क्या तुम्हारा भाई चिराग उन्हें कुछ नहीं कहता।"  

"नहीं मम्मी जी, वह तो माँ से बहुत डरते हैं।"  

"बातचीत करने में तो तुम्हारी माँ काफ़ी समझदार लगती हैं।"  

"हाँ वह तो है, लेकिन भाभी के मामले में उनकी समझदारी कहीं चली जाती है। मम्मी जी, भाभी के लिए मैं कुछ करना चाहती हूँ, उन्हें ख़ुश देखना चाहती हूँ, लेकिन कैसे?"  

"तुम सही कह रही हो नीति, किसी की बेटी को लाकर उसे दुःखी रखना तो बहुत ग़लत है।"  

नीति को दुःखी देखकर विनीता ने कहा, "नीति चलो इस काम में मैं तुम्हारी मदद करूँगी।"  

उन दोनों ने मिलकर कुछ योजना बनाई और फिर वह दोनों नीति के मायके कुछ दिन रहने के लिए आ गए। यूँ तो नीति कभी भी साड़ी नहीं पहनती थी किंतु उस दिन साड़ी पहनकर, सर ढक कर अपनी माँ के समक्ष आई। नीति को इस तरह देखकर सविता हैरान रह गई। वह एक टक अपनी बेटी को देख रही थी, चाह कर भी वह ना कुछ पूछ सकी, ना ही कह सकी।  

कुछ समय बाद नीति ने विनीता से पूछा, "मम्मी जी आज मैं भाभी के साथ बाज़ार चली जाऊँ?"  

विनीता ने स्पष्ट शब्दों में उसे कहा, "नीति कोई ज़रूरत नहीं, पिछले माह ही तो गईं थीं, बार-बार क्यों जाना है?"  

अपनी बेटी को इस तरह बंधनों में जकड़ा हुआ देखकर सविता मन ही मन कुढ़ रही थी, उसका दिल रो रहा था लेकिन वह अब भी चुपचाप ही रही।  

रात को नीति साड़ी पहने हुए ही सोने चली गई तब सविता उसके पास गई और कहा, "नीति बेटा साड़ी पहन कर कैसे सो पाओगी? जीवन में कभी पहनी तक नहीं थी तुमने।"  

नीति ने कहा, "अरे माँ वहाँ भी मेरी सास की ही चलती है। उनका बेटा तो उनके सामने मुँह तक नहीं खोलता। यदि वहाँ रहना है तो सास के अनुसार ही चलना होगा। उनके हाथों की कठपुतली बनकर ही रहना होगा।"  

नीति की आप बीती सुनकर सविता सोच रही थी कि जो काँटे उसने लगाए हैं, आज उन पर उसकी बेटी चल रही है। यह उसके कर्मों का फल है जो उसकी बेटी भोग रही है। भगवान उसकी ग़लती की सज़ा उसकी बेटी को दे रहा है।  

नीति ने अपनी माँ के ख़्यालों को तोड़ते हुए कहा, "कोई बात नहीं माँ जैसे भाभी की आदत पड़ गई, वैसे ही मेरी भी पड़ जाएगी। मेरा पति भी भैया जैसा ही है, मम्मी जी की ग़लत बात पर भी चुप ही रहता है। यदि वह बोलने की हिम्मत दिखाता तो मुझे भी अपने अनुसार जीना नसीब हो पाता किंतु. . ."  

नीति के मुँह से निकला हर वाक्य आज सविता पर प्रहार कर रहा था। वह नीति की बातों का कोई जवाब नहीं दे पाई और ना ही विनीता से कुछ पूछ पाई।  

देखते ही देखते एक सप्ताह गुज़र गया लेकिन अब तक विनीता ने सविता में शालिनी को लेकर कोई बदलाव नहीं देखा। सविता केवल अपनी बेटी के लिए ही तड़प रही थी।  

विनीता से रहा नहीं गया और आख़िरकार उसने सविता से कहा, "सविता जी हम सुबह अपने घर लौट जाएँगे। माफ़ कीजिएगा हम दोनों यह सोच कर आए थे कि अपनी बेटी को इस हाल में देखकर आपका दिल तुरंत ही बदल जाएगा। आपका व्यवहार आपकी बहू के साथ बेटी जैसा हो जाएगा, किंतु मुझे ऐसा लगता है कि आप शायद ऐसा कभी नहीं कर पाएँगी।"  

"सविता जी नीति, मेरे घर में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, जो चाहे कर सकती है। ख़ुद की ज़िंदगी वह ख़ुद के अनुसार जी सकती है। उस पर किसी का कोई अंकुश नहीं है। हमने तो यह नाटक आपके हृदय परिवर्तन के लिए किया था लेकिन शायद हमारा नाटक भी आपको बदल ना पाया, हम नाकामयाब हो गए।"  

सविता नीचे सर झुका कर शर्मिंदा होते हुए आँसू बहा रही थी। वह विनीता से नज़र नहीं मिला पा रही थी।  

विनीता ने कहा, "सविता जी नीति, शालिनी से बहुत प्यार करती है, उसे इस तरह के बंधन में देखकर हमेशा दुःखी रहती है। मैं कभी उसे दुःखी नहीं देख सकती इसलिए हमने यह क़दम उठाया था। हमने जो कुछ भी सहन किया है ना सविता जी, हमें उस पद्धति को तोड़ना होगा। हमें आज की बेटी को, आज के माहौल के अनुसार, उसकी इच्छा अनुसार उसे जीने देना होगा। हमारे साथ जो हुआ, हम वही उनके साथ क्यों करें?" इतना कहकर विनीता वहाँ से जाने लगी।  

तब सविता ने कहा, "विनीता जी रुकिये" और वह विनीता के गले लग कर फफक-फफक कर रोने लगी, विनीता ने उसे चुप कराया।  

उसी समय सविता ने शालिनी को आवाज़ देकर बुलाया, शालिनी तुरंत ही वहाँ आ गई और पूछा, "जी माँ क्यों बुलाया आपने, कुछ काम है?"  

"हाँ बेटा जो आज तक मैं नहीं कर पाई, वही काम है," कह कर विनीता ने शालिनी को चिपका लिया और कहा, "अब तुम्हारे ऊपर किसी का कोई अंकुश नहीं होगा। तुम जो चाहो वह कर सकती हो, पहन सकती हो। शालिनी कल हम सब बाज़ार चलेंगे और तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की बहुत सारी शॉपिंग करेंगे। मैंने तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, मुझे माफ़ कर दो बेटा।"  

"प्लीज़ ऐसा मत कहो, माँ" कहते हुए शालिनी की आँखें डबडबा गईं।  

शालिनी सोच रही थी कि यदि हर नारी की मानसिकता नीति और विनीता आंटी जैसी हो जाए तो किसी भी परिवार में फिर सास बहू के रिश्ते के बीच कोई मतभेद और कोई समस्या ही ना रहे। हर रिश्ता नीति और विनीता आंटी जैसा प्यार से भरपूर हो।  

शालिनी ने नीति को थैंक यू कहते हुए गले से लगा लिया वह सोच रही थी कि यदि हर परिवार में नीति जैसी ननंद हो तो कोई भाभी अपने अधिकारों से वंचित नहीं रह सकती। उसके बाद शालिनी ने अलग घर बनाने के विचार को हमेशा-हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दिया।  

सविता ने भी अपने घर में एक अलग ही ख़ुशी और सुख को महसूस किया और मन ही मन नीति और विनीता को धन्यवाद दिया।  

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)  

स्वरचित और मौलिक

 
 
 
 
 
 
 
 
 

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