रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 13 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 13

अब जो हो गया सो तो हो गया। उसे तो मैं बदल नहीं सकती थी। विधाता मुझे जो सज़ा देगा वो तो भुगतूंगी ही। अपराध तो था ही।
कहते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ा दुःख है अपनी औलाद का मरा मुंह देखना।
पर बेटा, दुनिया में सबसे बड़ी शर्मिंदगी है अपनी संतान को वो करते हुए खुली आंखों से देखना जो तू कर रहा था।
मैं चोर की तरह दबे पांव जब दरवाज़ा खोल कर भीतर आई तो तू बिल्कुल उस अवस्था में था, जैसे मेरे पेट से जन्म लेते समय!
चलो, तुझे ऐसे देखने की तो मैं अभ्यस्त थी ही। बचपन में रोज़ तुझे नहलाती- धुलाती ही थी।
पर बेटा, तेरे साथ तेरी उस सहेली को भी ऐसे ही देखना... हाय हाय... मैं क्या करती??
पर एक बात कहूं। तू उस समय बिल्कुल तेरे पिता की तरह ही लग रहा था। मुझे मेरा जॉनसन याद आ गया। वो भी तो बिल्कुल ऐसे ही तो पेश आता था मेरे साथ। बिल्कुल वही अंदाज़, वही स्टाइल।
ऐसे ही तो किसी जांबाज़ शहसवार की तरह पसीने में तर... लहरा कर उड़ते बाल... लड़कों की जानलेवा रिदम! जिसके लिए हर लड़के के मां -बाप उसकी शादी के समय गर्व से सिर उठाए लड़की वालों के दरवाज़े पर जाते हैं शान से।
पर ये समय ख़ुश होने का नहीं था। न तो वो तेरी जीवन संगिनी बनी थी और न ही तू अभी बालिग हुआ था। ये मेरे लिए झूम कर नाचने का मेला नहीं था, मैं तो भय से, घृणा से, गुस्से से, हताशा से कांप रही थी। सच कहूं, मैं तो ये सब देख कर भी खुश ही होती, इसमें कैसी शर्म, पर खुश मैं तब होती जो तू पूरी तरह जवान होकर दुनिया की निगाहों में मर्द हो गया होता। सबके सामने धूमधाम से तेरी शादी हुई होती। उस लड़की ने बहू बनकर हमारे परिवार में कदम रखा होता। मैंने अपनी पूरी की पूरी ज़िंदगी तुम्हारे सपनों पर न्यौछावर कर दी होती। चाहे तुम दोनों को इस तरह देख कर मेरी आंखें शर्म से झुकी होती पर फिर भी मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया होता।
पर तूने तो अनर्थ ही कर डाला बेटा। कच्ची उमर का तू और अधखिली उम्र की वो? और ये सब??
मैं पलट कर कमरे से बाहर तो निकल गई पर मैंने बड़बड़ाना, तुझे कोसना, अपने नसीब को रोना शुरू कर दिया।
झटपट कपड़े पहन कर वो लड़की भी सिर झुकाए निकल गई। जाते - जाते मुझे सलाम करना तो दूर मेरी ओर देखने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाई। हिम्मत लाती भी कहां से। हिम्मत तो तूने सोख ली थी उसकी।
मैं नहीं जानती कि मैंने तुम्हें बीच में ही अलग कर दिया था या फ़िर तू फारिग हो चुका...
जाने दे, मैं तेरी मां हूं। ये सब सोचना मुझे शोभा नहीं देता। इंसान के नसीब में जो कुछ देखना बदा होता है वो तो उसे देखना ही पड़ता है। दुनिया का कोई पर्दा उसे थाम नहीं पाता। मैंने भरसक अपने आप को अपराधी महसूस करने से रोका। जो हुआ सो हुआ।

लेकिन इतना जरूर था कि ये सब होने के बावजूद तेरा व्यवहार मुझसे किसी तरह बदले का नहीं था। तू क्रुद्ध नहीं बल्कि तृप्त सा घूम रहा था। नालायक! बेशरम!