Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 5

ये समय मेरे लिए तेज़ी से बदलने का था। बहुत सी बातें ऐसी थीं जिनमें मैं अपनी मां के साथ रहते- रहते काफ़ी बड़ी हो गई थी। अब मम्मी के साथ आकर मैं फ़िर से बच्ची बन गई। दूसरी तरफ कई बातें ऐसी भी थीं जिनमें मैं अपनी मां के साथ रहते हुए बिल्कुल अनजान बच्ची ही बनी हुई थी पर मम्मी के साथ तेज़ी से बढ़ने लगी। ये दुनिया भी खूब है। जो मुझे दुनिया में ले आया उसने कुछ नहीं दिया और जिन्होंने मुझ पर तरस खाकर मुझे अपनाया उन्होंने मेरे लिए तमाम खुशहाली के रास्ते खोल दिए।
शुरू में कुछ दिन तक तो मैं कुछ समझ ही नहीं पाई कि ये सब क्या हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि कभी मेरी पुरानी ज़िन्दगी फ़िर से लौट आयेगी। लेकिन धीरे- धीरे अपने पुराने नाम रसबाला के साथ मेरी पुरानी ज़िन्दगी भी मेरी यादों से निकल कर खोने लगी। अब मैं पूरी तरह रसबानो ही बन गई।
हमारा घर हिन्दुस्तान से बहुत दूर अरब देश में था। इंडिया में कुछ दिन घूम फ़िर कर हम लोग वापस आ गए।
बहुत बड़ा और खुला - खुला घर था। तमाम खूबसूरत पत्थरों से सजा हुआ। घर में मोटर तो थी पर साथ में मेरे मामा के पास एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत और कद्दावर घोड़े भी थे। उनका कारोबार था एक से एक उम्दा नस्ल के घोड़े खरीदना, उन्हें लड़ाई- युद्ध की नायाब ट्रेनिंग देना और फिर ऊंचे दामों पर बेच देना। ख़ूब धन बरसता था। अब्बा हुजूर का अपना लंबा चौड़ा कारोबार था।
मैं हर समय सजी संवरी रहती। मेरी पढ़ाई भी आलीशान स्कूल में हुई। जो मांगती मिलता। मेरी बहुत सी सहेलियां थीं। घर में कई बहन भाई भी।
हमारे घर मामा के साथ कभी- कभी उनके कुछ दोस्त भी आया करते थे। उन्हीं में से एक था जॉनसन।
मामा कहते थे कि ये सेना में है। और सेना भी अमरीका की।
उन दिनों अमरीकी सेना कई देशों में तैनात थी। मामा कहते थे कि जॉनसन सिर्फ़ उनका दोस्त ही नहीं है बल्कि उनके कारोबार में भी सहायता करता है। वो मामा को ऐसे लोगों से मिलवाया करता था जिन्हें बढ़िया घोड़ों की ज़रूरत रहा करती थी।
जॉनसन केवल बहादुर ही नहीं बहुत मिलनसार भी था। धीरे - धीरे बिल्कुल हमारे घर के सदस्य जैसा बन गया। कभी अकेले में मुझसे मिलता तो कहता था कि मैं तेरे मामा के लिए नहीं, तेरे लिए आता हूं तुम्हारे घर। मैं शरमा जाती।
अब वो जब भी आता ज़्यादा से ज़्यादा मुझसे अकेले में ही मिलने की कोशिश करता। मैं मन ही मन डरती थी कि कहीं कोई कुछ अनहोनी न हो जाए।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जॉनसन समझदार था। संजीदा भी। शायद सैनिकों में एक आंतरिक नैतिकता तो होती ही है। वो चीज़ों को बिगड़ने से बचाना अच्छे से जानते हैं। शोहदों सी लापरवाही उनमें नहीं होती।
एक दिन जॉनसन की इच्छा मेरे मामा के ज़रिए मेरी मम्मी तक पहुंच गई और मम्मी ने अब्बा हुजूर को भी तैयार कर लिया कि मेरी कहानी को आख़िर परवान चढ़ा ही दिया जाए।
मैं जॉनसन की हो गई।


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