रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 3

फ़िर मेरा जन्म हुआ।
मेरे पैदा होने से पहले ही मेरे पिता मेरी मां को छोड़ कर जा चुके थे। कत्ल की आरोपी "खूनी" मां के साथ भला कौन रहता। सिवा मेरे, क्योंकि मैं तो उसके पेट में ही थी।
मेरी मां बताती थी कि एक बड़ा रहमदिल अफ़सर उसे मिला जिसने सब लिखा - पढ़ी करवा कर मेरे जन्म की व्यवस्था भी करवा दी और मुझे मां के साथ जेल में ही रखे जाने की बात भी सरकार और कानून से मनवा दी।
बेटा, अब तक तो मैंने सब सुनी सुनाई कही, पर अब तुझे मेरी आंखों देखी और झेली हुई बताती हूं।
मुझे यहां बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। जब तक नासमझ थी तब तक तो इसी से ख़ुश हो जाती थी कि कोई मुझे गोद में उठा कर पुचकार लेता है तो कोई टॉफी -चॉकलेट का टुकड़ा पकड़ा देता है। पर जैसे जैसे मुझे समझ आती जाती थी मैं समझने लगी थी कि मैं और मां जहां रहते हैं वो दुनिया का गंदा हिस्सा है और काली ज़िन्दगी है हमारी।
मैं आते- जाते लोगों से सुनती थी कि मुझे मां के साथ नहीं रखा जाना चाहिए पर मजबूरी में ऐसा किया गया है क्योंकि इस दुनिया में हमारा कोई नहीं है। मुझे ये सुन कर बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। मैं सोचती थी कि अगर हमारा कोई और भी होता तो मुझे कोई दूसरी अच्छी दुनिया मिलने वाली थी।
बेटा, तुझे एक रहस्य की बात भी बताऊंगी।
मैं तो तुझे और भी बहुत सी बातें बता दूं, जो मेरे साथ हुईं। होती रहीं। पर मुझे लगता है कि तू बिना बताए भी समझ ही लेगा, आख़िर तू भी तो एक मर्द ही है न। जाने दे, फ़िर क्या बताना। ऐसा होता ही होगा। दुनिया यही है।
हमारी जेल का कोई - कोई संतरी बड़ा अच्छा आदमी होता था। वो कभी - कभी ताला खोल कर मुझे थोड़ी देर बाहर भी खेलने देता था। कभी- कभी खुद भी मेरे साथ खेलता था।
मैं उसे बताती- बाबा मैंने टॉफी खाई तो झट से मेरे मुंह को अंगुली से खोल कर पूछने लगता, कहां से खाई, कहां से खाई। मैं हंसने लगती थी।
एक दिन मैं जेल की इमारत के बाहर खेल रही थी। मैंने एक छोटा सा मिट्टी का घर भी बनाया था। मैं अकेली ही थी। तभी मैंने कुछ दूरी पर एक बड़ी सी गाड़ी को रुकते देखा।
एक दिन बहुत सारे लोग हमारे जेल को देखने आए। वो बहुत अच्छे लोग थे। देखने में बहुत साफ सुथरे और अच्छे अच्छे कपड़े पहनने वाले।
मैं जान गई कि ये सब लोग तो घूमने फिरने आए होंगे। क्योंकि हमारे साथ रहने ऐसे लोग नहीं आते थे। मेरी मां जिस गैलरी में बनी कोठरी में रहती थी वहां तो एक मौसी हमेशा पहरे पर रहती थी। पर मैं खेलती- खेलती यहां तक आ जाती थी इसलिए मैंने उन अच्छे लोगों को देख लिया।
उन लोगों के साथ आई एक आंटी ने तो मेरे पास आकर मुझसे बात करने की कोशिश भी की।
पर गड़बड़ हो गई।
अब तुझे क्या बताऊं, मैं नहाई तो थी नहीं। ऊपर से इतनी देर से मिट्टी में खेल रही थी। इतने में मुझे ज़ोर से छींक आ गई।
छींक आते ही मेरी नाक से बहुत सारी गंदगी निकल कर मेरे होठ के ऊपर बहने लगी। वो आंटी मेरे पास आती- आती एकदम से रुकी और फ़िर कुछ अजीब सा मुंह बनाती हुई वापस लौट गई।
मैंने हथेली से अपना मुंह साफ किया, फ्रॉक से हथेली को साफ़ किया, कलाई से फ्रॉक को साफ किया, फ़िर थोड़ी सी मिट्टी से कलाई को साफ कर लिया। पर तब तक आंटी रुकी नहीं। मैं मायूस होकर रुआंसी हो गई।
पर वो लोग तो सचमुच बहुत अच्छे निकले।