ममता की परीक्षा - 15 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 15



एम्बुलेंस में निश्चल पड़ी रजनी की बगल में बैठे सेठ जमनादास के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। चिंता की गहरी लकीरों के साथ ही मन मस्तिष्क में विचारों के बवंडर की स्पष्ट छाप भी उनके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रही थी।

'ये अचानक रजनी को क्या हो गया ?.. अमर के न मिलने का सदमा तो नहीं ? पता नहीं क्या दर्द झेल रही है मेरी बच्ची ? ' उसकी स्थिति का भान होते ही उन्होंने अपनी उल्टी हथेली उसके नथुने के सामने रखकर उसकी साँसों का जायजा लिया। साँसें सुचारू रूप से चलती महसूस कर जमनादास जी ने राहत की साँस ली और अति शीघ्र अस्पताल पहुँचने की कामना करने लगे।

अचानक एम्बुलेंस की गति बहुत कम होती हुई महसूस करके जमनादास जी ने विंडस्क्रीन से बाहर झाँका। बाहर एक लंबी विदेशी कार एम्बुलेंस के आगे धीरे धीरे चल रही थी जबकि अन्य दूसरी सभी गाड़ियों ने सायरन की आवाज सुनकर अपनी गाड़ी पहले ही बाएँ रखकर एम्बुलेंस के लिए रास्ता खाली कर दिया था लेकिन वह एक गाड़ी अपवाद थी। एम्बुलेंस का ड्राइवर बार बार हॉर्न भी बजाए जा रहा था लेकिन उस गाड़ीवाले को मानो कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था। उसकी हठधर्मिता देखकर जमनादास जी को बहुत क्रोध आया लेकिन फिलहाल तो वो एक मजबूर पिता पहले थे। उनके लिए एक एक पल किमती था। अंत में एम्बुलेंस के चालक ने हॉर्न पर जो हाथ रखा तो तब तक नहीं हटाया जब तक कि वह विदेशी गाड़ी एक तरफ हट नहीं गई। उससे आगे निकलते हुए एम्बुलेंस के चालक ने उसकी तरफ देखते हुए एक भद्दी सी गाली उसकी तरफ उछाली और एम्बुलेंस को आँधी तूफान की तरह दौड़ाने में व्यस्त हो गया।

कुछ देर बाद एम्बुलेंस शहर के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल 'हिंदुजा नर्सिंग होम ' के प्रांगण में आपातकालीन विभाग के सामने खड़ी थी। एम्बुलेंस देखते ही दो अस्पताल कर्मी स्ट्रेचर लेकर दौड़ पड़े और कुछ मिनटों में ही रजनी को अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया।

सेठ जमनादास का रसूख यहाँ काम आया। उन्हें लॉबी में ही छोड़कर रजनी को परीक्षण के लिए तत्काल अंदर वार्ड में ले गए। महिला डॉक्टर सुमन रस्तोगी अपने सहायक के साथ जाँच में जुट गईं।

रजनी अभी भी बेसुध ही थी। कलाई पकड़कर नाड़ी की गति की जाँच करने पर वह उन्हें सामान्यलगी।
' फिर बेसुध रहने का क्या कारण हो सकता ?' उन्होंने तुरंत ही नर्स को इसीजी मशीन तैयार करने का इशारा किया। नर्स ने तुरंत ही मशीन रजनी की बेड के नजदीक सरका कर मशीन से जुड़े तारों को रजनी के जिस्म के अलग अलग हिस्सों पर लगाना शुरू कर दिया। तारों से जुड़े वाल्व जिस्म पर लगाने से पहले एक ट्यूब से चिपचिपा सा रसायन नर्स ने जैसे ही रजनी के जिस्म पर लगाया, रजनी के शरीर में हरकत हुई। धीरे धीरे रजनी सामान्य होती गई और उसकी आँखें खुल गईं।

आँखें खुलते ही उसने अपने ऊपर झुके डॉक्टर सुमन व नर्स को देख कर कुछ कहना चाहा कि तभी डॉक्टर सुमन ने अपनी उँगली होठों के मध्य रखकर उसे खामोश रहने का इशारा किया , फिर प्यार से उसके सिर पर हाथ घूमाते हुए उसे दिलासा दिया। सहायक डॉक्टर ने तब तक वायर लगाकर मशीन चला दिया था। अगले ही पल खटरपटर करती मशीन से भूरे रंग का ग्राफ पेपर जिसपर मध्य में ऊपर नीचे होती लकीरें गहरे काले रंग में अंकित हो रही थीं दूसरी तरफ से बाहर निकल रही थीं। मशीनों की ध्वनि बंद होते ही निकलने वाले पेपर भी जैसे थे रुक गए थे। पेपर हाथों में लेकर डॉक्टर सुमन ने उसे कुछ देर ध्यान से देखा। उनकी सहायक ने भी वह ध्यान से देखकर कुछ समझना चाहा और फिर उसे एक फाइल में करीने से लगाने के बाद वह जुट गईं कुछ और जाँच करने में।

रजनी हैरानी से उन्हें देखते हुए अपने ठीक होने का इशारा करती रही लेकिन उन दोनों ने उसके इशारे को नजरअंदाज करते हुए अपना काम पूर्ववत जारी रखा।

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

ईधर अस्पताल के बरामदे में सेठ जमनादास जी थके हारे निराश और रजनी की तबियत के बारे में फिक्रमंद अस्पताल की बेंच से पीठ टिकाए बैठे हुए थे। बैठे हुए उनकी निगाहें सामने के कक्ष के दरवाजे पर ही लगी हुई थीं जिनसे होकर रजनी को अंदर ले जाया गया था।

अचानक उन्हें ऐसा लगा जैसे सामने ही साधना खड़ी है और ठहाके लगा रही है। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह ठहाके लगा रही है उनकी बेबसी पर, उनकी मजबूरी पर .. और फिर उनके जेहन में कोई चलचित्र सा चलने लगा और वो मष्तिष्क पटल पर चल रहे सालों पहले के उन सुनहरे दिनों के सुहाने दृश्यों में खो से गए....

बारहवीं के नतीजे आने के बाद युवा जमना और उसका दोस्त गोपाल अपनी कार से कॉलेज जा रहे थे। रास्ते में साधना उन्हें दिखाई पड़ी जो बस के इंतजार में बस स्टॉप पर कतार में खड़ी थी। साधना उनके कॉलेज की ही विद्यार्थिनी थी और शायद वाणिज्य शाखा की किसी कक्षा में पढ़ती थी जबकि जमना और गोपाल दोनों कला विभाग के विद्यार्थी थे। दोनों जिगरी दोस्त ! यह दोस्ती भी उन्हें विरासत में मिली थी। दोनों के पिताओं में भी आपस में गहरी दोस्ती थी और उनकी कोठियाँ भी शहर के एक ही हिस्से में आसपास ही बनी हुई थीं।
शहर के संभ्रांत व्यवसायियों में दोनों के पिताओं की गिनती होती थी। उनके घर में लक्ष्मी की कोई कमी नहीं थी और उन्हीं की कृपा से माँ सरस्वती की आराधना कर उनकी कृपा पाने का प्रयास करने के लिए दोनों ने कॉलेज में दाखिला ले लिया।

लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता है लक्ष्मी के उपासक सरस्वती वंदना को दुय्यम ही समझते हैं और मान बैठते हैं कि लक्ष्मी और सरस्वती साथ नहीं आ सकतीं। जमना और गोपाल भी अपवाद न थे इस मामले में। घर से तो निकलते कॉलेज में पढ़ने के लिए लेकिन पढ़ाई के अलावा भी ये अन्य बहुत सारे कार्यक्रमों में व्यस्त रहते। मसलन कभी कभार कॉलेज से बंक मारकर राजेश खन्ना की नई फिल्म पहले शो में देखना, कभी कॉलेज में नई आई खूबसूरत लड़कियों के बीच अपना प्रभाव जमाने के लिए उन्हें अपनी कार में घूमाना, आइस क्रीम खाना, खिलाना और गप्पें हाँकना जैसे बहुत से कई सूत्रीय कार्यक्रम दोनों के जिम्मे होते थे। आवारा लड़कों की पूरी फौज उनकी जी हजूरी में लगी होती थी। दूसरों को अपने प्रभाव में देखकर दोनों को बड़ी खुशी मिलती थी। कॉलेज की कई लड़कियाँ स्वयं ही इनके साथ घूमने फिरने व मजे करने के अवसरों का इंतजार भी करतीं लेकिन अधिकांश ऐसी नहीं थीं। साधना भी इनमें से ही एक थी जो कॉलेज शुरू होने के चार महीने बाद तक भी इनके भरपूर प्रयास के बावजूद इनसे जरा भी प्रभावित नहीं हुई थी।

उल्टे पिछले हफ्ते कैंटीन में जबरदस्ती उसका बिल गोपाल ने दे दिया था जिससे नाराज होकर उसने प्रिंसिपल से उनकी शिकायत भी कर दी थी। भला उनका क्या होना था ?
बात आई गई हो गई लेकिन इनका उसे प्रभावित करने का अवसर तलाश करना नहीं छूटा था, और आज उसे इस तरह बस की कतार में देखकर इनकी बांछें खिल गईं थीं।

अपनी कार बस स्टॉप के सामने रोकते हुए ड्राइविंग सीट पर बैठे जमनादास ने अपने मित्र गोपाल को इशारा किया।
खिड़की से अपना सिर बाहर निकालते हुए गोपाल ने साधना की तरफ देखते हुए कहा, "हाय !
"
साधना अनजान सी बनी रही। दूसरी तरफ देखने लगी। गोपाल ने आवाज और ऊंची करते हुए उसकी तरफ देखकर हाथ हिलाया, "हाय !... हैल्लो !"
लेकिन कोई जवाब नहीं।
दोनों को बड़ा गुस्सा आ रहा था अपने आप पर। इतने महीने से साथ पढनेवाली एक साधारण सी लड़की के ये तेवर और फिर उन्हें तो उसका नाम भी नहीं मालूम था, बुलाते भी तो कैसे ?
तभी कतार में खड़े एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने चिढ़ते हुए कहा, "क्या हाय हाय लगा रखी है ? क्या हुआ ?"

" अजी कुछ नहीं अंकल ! कुछ नहीं हुआ ! हम तो वो जो पीला कुर्ता पहने लड़की लाइन में खड़ी है न उसी को पुकार रहे थे !" गोपाल ने सफ़ाई दी।

"अच्छा ! लेकिन ये कौन सा तरीका है बुलाने का ? क्या स्कूल कॉलेज में यही पढ़ाया जाता है ? शराफत से नहीं बुला सकते ? जैसे बहनजी !.. जरा सुनिए !.. जरा बोलकर देखो, लड़की सुनती है कि नहीं ?" उस अधेड़ से व्यक्ति ने उन्हें संस्कार की घुट्टी पिलाने की कोशिश की।

जमनादास ने गोपाल को चिढ़ाया, "अबे बोल दे ' बहनजी सुनिए ! और फिर अगले साल रक्षाबंधन में तेरा राखी का धागा पक्का ! हा.. हा ...हा ...!"

खिसियाते हुए अबकी गोपाल गला फाड़कर चिल्लाया, "हैल्लो ! ओ ... पीले कुर्ते वाली ! हाँ ! तुम ..तुमसे ही बात कर रहा हूँ ! सुनो ! आज बस नहीं आनेवाली है। हमने देखा है रास्ते में पंचर हो गई है तुम्हारी बस ! आने में बहुत देर लगेगी। बस का इंतजार करोगी तो बहुत देर हो जाएगी। चाहो तो हमारी गाड़ी में पीछे बैठ जाओ। अब हम इतने खुदगर्ज भी नहीं कि अपने किसी साथी को रास्ते में अकेला छोड़कर आगे बढ़ जाएं।"अंतिम वाक्य गोपाल ने इस अंदाज में कहा था कि न चाहते हुए भी साधना खिलखिलाकर हँस पड़ी।

क्रमशः