ममता की परीक्षा - 13 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 13



अपने कुछ कपड़े बैग में डालकर अमर ने एक बार फिर ध्यान से पूरे कमरे में नजर दौड़ाया। कमरे में अब सामान के नाम पर उसका कुछ न था। बाहर वाले कमरे में दिख रही चारपाई व उसपर बिछा बिस्तर मकान मालिक का ही था।
पीछे के कमरे में छोटी सी रसोई थी जिसमें एक अदद स्टोव व कुछ बर्तन पड़े थे जिन्हें वह साथ ले जाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा था। बैग में अपने कपड़े सहेजने के बाद बड़े इत्मीनान से उसने एक बार फिर पूरे घर का मुआयना किया और अपना बैग उठाकर घर से बाहर निकल पड़ा। चारपाई के सिरहाने की तरफ दीवार पर एक महिला की तस्वीर मुस्कुरा रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे वह अमर को देखे जा रही हो और उसे आशीर्वाद दे रही हो।
कमरे से बाहर निकलकर अमर ने दरवाजा बंद किया और उसमें ताला लगाकर वह पड़ोस में ही रहनेवाले मकान मालिक के घर जा पहुँचा।

मकान मालिक लल्लन जी बड़े भले इंसान थे और अमर की शराफत व व्यवहार से काफी प्रभावित भी थे। अमर को बहुत प्यार भी करते थे सो उनको कुछ भी समझाना अमर के लिए मुश्किल न था।

दस्तक देते ही लल्लन जी के घर का दरवाजा खुला। दरवाजा स्वयं लल्लन जी ने ही खोला था। अपने चिर परिचित अंदाज में उनका अभिवादन करता हुआ अमर उन्हें देखकर धीरे से मुस्कुराया।

अचानक आने का कारण न समझते हुए लल्लन जी के चेहरे पर खुशी के साथ ही हैरानी के भी भाव थे। उनका आशय समझते हुए अमर ने जेब से चाबी निकालकर उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "अंकल, कंपनी ने अचानक मेरा तबादला दूर के एक शहर में कर दिया है। उस शहर में कंपनी की तरफ से एक कमरा भी मुझे मिल गया है। कल ही मुझे वहाँ जाकर जॉइन करना है इसलिए मुझे अभी निकलना होगा।..ये लीजिये कमरे की चाबी।"
"सो तो ठीक है बेटा, .. लेकिन अब तुम्हारे डिपाजिट के पैसे का क्या होगा ? मेरे पास फिलहाल तो नहीं हैं इतने पैसे ! तुमने मुझे सुबह ही बता दिया होता, कि यह बात है तो मैं पैसे का इंतजाम करने की कोशिश भी करता।" कहते हुए लल्लन जी ने अमर के हाथ से चाबी थाम लिया।

"कोई बात नहीं अंकल ! पैसे आपके पास से कहाँ चले जायेंगे ? जब हो जाय मेरे एकाउंट में डलवा दीजियेगा, मुझे मिल जाएँगे।" कहते हुए अमर हँसा था लेकिन उसकी हँसी खोखली नजर आ रही थी।

जेब से एक पर्ची निकालकर लल्लन जी की तरफ बढ़ाते हुए अमर ने बताया , " इस पर्ची में मेरा खाता नंबर और सब विवरण लिखा हुआ है। मुझे पैसे भेजने आपको कोई परेशानी नहीं होगी।"
कहने के बाद अमर ने झुककर लल्लन जी के चरण स्पर्श किये और बैग उठाते हुए कहा, "अंकल ! आशीर्वाद दीजिये ! अब देर हो रही है। मुझे जाना है।"
"जुग जुग जिओ बेटा ! जब समय मिले तब जरूर आना। तुम्हें अपने बेटे जैसा समझ कर ही कमरा किराये पर दिया था। तुम्हारे अलावा वह कमरा किसी अन्य को नहीं दिया जाएगा। जब कभी इस तरफ से गुजरो तो जरूर मिलते जाना।" स्नेहिल निगाहों से उसे देखते हुए लल्लन जी ने कहा।

चाबी मकान मालिक को सौंप कर अमर ने चैन की साँस ली और वह छोटा सा बैग जिसमें उसकी पूरी दुनिया समा गई थी, अपनी पीठ पर लादकर वह चल पड़ा उस रास्ते पर जो रास्ता बस्ती से बाहर जाकर मुख्य सड़क से मिलता था। उसी नुक्कड़ पर बस स्टॉप था जहाँ से उसे शहर जाने के लिए बस मिल सकती थी। संयोग से उसके पहुँचते ही बस आ गई। शाम का समय था। बस में गिनती की सवारियाँ ही थीं। बैग सीट के ऊपर बने रैक में रखने के बाद वह एक खिड़की के बगल वाली सीट पर बैठ गया।

बस कुछ ही दूर चली होगी कि तभी तेजी से एक सुर्ख टमाटर के रंगों वाली कार उसकी बगल से तेजी से गुजरी। वह कार पहचानने में अमर से तनिक भी भूल नहीं हुई। कार रजनी ही चला रही थी। इससे ज्यादा वह नहीं देख सका था और कार बड़ी तेजी से उसकी बगल से गुजर कर उसकी नजरों से ओझल गई। बस भी काफी तेज गति से शहर की तरफ दौड़ रही थी और उससे भी तेज गति से दौड़ रहा था अमर के दिमाग में मंथन ,विचारों का प्रवाह !
कार को जाते हुए देखकर उसे अपनी योजना के सफल होने की खुशी हो रही थी। ..हो भी क्यों नहीं ? सब कुछ उसकी योजना के मुताबिक ही चल रहा था। उसने सही समय पर कमरा खाली कर दिया था। दरअसल वह अब रजनी का सामना करना ही नहीं चाहता था। आज उसकी योजना का एक हिस्सा कामयाब हो गया था। इस बात की खुशी के साथ ही उसे रजनी से बिछड़ने का गम भी था।

कभी खुशी कभी गम के अजीब से कशमकश में उलझा हुआ बस की सीट से पीठ टिकाकर आँखें बंद किये वह बड़ी देर तक पड़ा रहा। यूँ ही पड़े पड़े कुछ बीते हुए पल उसकी आँखों के सामने नाच उठे।

पाँच साल पहले जब वह कॉलेज में पढ़ने के लिए गाँव से पहली बार शहर आ रहा था, उसकी माँ का रो रो कर बुरा हाल हो गया था। बड़ी मुश्किल से वह माँ को समझा पाया था कि शहर में उसे कोई तकलीफ नहीं होगी। रहने के लिए कमरे की बात हो गई है। वहीं रहकर वह पढ़ाई भी कर लेगा और अपना ख्याल भी रख लेगा। खाना समय पर बना भी लगा और खा भी लेगा।
उसे विदा करते हुए माँ की आँखें भर आईं थीं और भरे गले से उसके मुँह से बस इतना ही निकल सका था, "अपना ख्याल रखना बेटा ! ईश्वर तेरी हर समय रक्षा करें !"

..और कुछ देर बाद वह घर से पैदल ही निकल पड़ा था अपना छोटा सा बैग हाथ में थामे मुख्य सड़क की तरफ जो उसके गाँव के बाहर की तरफ से निकलती थी। उसे ऐसा लग रहा था वह आज फिर उसी तरह अपना घर छोड़कर कहीं दूर किसी शहर की ओर जा रहा है और उसकी माँ वैसे ही उसे अपना ख्याल रखने का वचन ले रही हैं। अपने विचारों को झटक कर अमर खिड़की से छनकर आ रही हवा के तेज झोंको का आनंद लेने लगा। शीघ्र ही बस की गति अपेक्षाकृत कम हो गई।
बस अब शहर की भीड़भाड़ में रेंगने लगी थी।
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मुख्य सड़क से बस्ती की तरफ जानेवाली सड़क पर अपनी कार मोड़ते हुए रजनी के दिल की धड़कनें तेज हो गई थी। वह मानसिक रूप से खुद को अमर से मिलने के लिए तैयार करने लगी।

'अमर उससे मिलकर भी क्या उससे दूर जाने की बात कह पायेगा ? और यदि उसने ऐसा कह भी दिया तो क्या वह बरदाश्त कर पायेगी उसके मुँह से ऐसा सुनना ? ..और फिर उसके पापा ? उसके पापा और अमर आपस में कैसा बर्ताव करेंगे ? हे भगवान ! मुझे शक्ति देना ! ताकि इस आनेवाले पल का मुकाबला मैं सरलता से कर सकूँ।"
सेठ जमनादास ने कार से बाहर झाँकते हुए बस्ती का माहौल समझने की कोशिश की, और वह कुछ अनुमान लगाते कि तभी बस्ती में एक संकरे से रास्ते पर गाड़ी खड़ी करके रजनी कार से उतरकर अमर के कमरे की तरफ बढ़ गई। कुछ देर बाद अमर के कमरे के मुख्य दरवाजे पर लटक रहे ताले को देखकर रजनी हताश होकर वहीं बैठ गई।

लल्लन जी से वह परिचित थी ही सो अमर के बारे में पता करने की मंशा से वह उनके मकान की तरफ बढ़ गई।
सेठ जमनादास खुली खिड़की से अमर के कमरे का मुआयना करने लगे। कमरे में कुछ भी नजर नहीं आ रहा था सिवा एक चारपाई के और फिर चारपाई के सिरहाने टंगी हुई उस तस्वीर को देखकर वह बुरी तरह चौंक गए। बेसाख्ता उनके मुँह से निकल पड़ा, "साधना ?.. साधना की तस्वीर यहाँ अमर के कमरे में कैसे ?'

क्रमशः