ममता की परीक्षा - 11 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 11



रजनी ने कार कोठी के लॉन में खड़ी की और किताबें हाथ में संभाले कोठी के विशाल हॉल में दाखिल हो गई। हॉल में सोफे पर ही सेठ जमनादास बैठे अखबार के पन्ने पलट रहे थे।
कल अमर से मिल कर आने के बाद से ही उनके दिमाग में कुछ कशमकश चल रहा था। अमर को लेकर उनके दिमाग में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे, इसीलिए वह कोई फैसला नहीं कर पा रहे थे।

दरअसल अमर को देखते ही उन्हें आश्चर्य का झटका लगा था। उसे देख कर उन्हें अपने कॉलेज के जिगरी दोस्त गोपाल की याद आ गई थी। अमर की कदकाठी नाक नक्श,चेहरा मोहरा बिल्कुल उसके दोस्त गोपाल जैसा ही लग रहा था, बिल्कुल हमशक्ल ! इसी के साथ उन्हें याद आ गया था कॉलेज के दिनों का वह समय जब वो, गोपाल और साधना बहुत अच्छे मित्र हुआ करते थे। इससे पहले कि वो यादों के भँवर में समा जाते रजनी ने हॉल में प्रवेश कर उनके विचारों को झटका दे दिया था।

तेज कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ रही रजनी के चेहरे को देखते ही सेठ जमनादास की अनुभवी नजरों ने उसके चेहरे का भाव पढ़ लिया। वो समझ गए कि रजनी किसी मानसिक परेशानी में है,... लेकिन उससे कैसे बात करें ? .. कुछ तो करना ही होगा।

नजरें अखबार से हटाते हुए शेठ जमनादास ने रजनी को पुकारा, "रजनी बेटा ! क्या बात है ? आज समय से पहले ही कॉलेज से वापस आ गई हो ? सब ठीक तो है न ?"

" हां पापा ! बस यूँ ही एक लेक्चर छोड़कर आ गई। वो मिसेज पंडित कुछ समझाने की बजाय बस अपनी लिखी कविताएं ही पढवाती रहती हैं !" कहते हुए रजनी ने मुस्कुराने का असफल प्रयास किया था।

"बहुत अच्छा किया बेटा ! पढ़ाई तो घर पर भी मन लगाकर की जा सकती है। अच्छा हुआ तुम आ गईं। यहाँ आओ ! " कहते हुए जमनादास जी ने उसे अपने सामने सोफे पर बैठने का ईशारा किया।

अनचाहे ही रजनी उनके सामने के सोफे पर बैठ गई और बोली, "पापा ! आप आज ऑफिस नहीं गए ?"

"हाँ ! तबियत थोड़ी नासाज थी और फिर तुमसे मिलना भी था न इसलिए आज ऑफिस नहीं गया। वैसे अपने मैनेजर वर्मा जी सभी काम बखूबी संभाल लेते हैं। कुछ आवश्यक होगा तो संपर्क करेंगे ही मुझसे।" कहते हुए जमनादास जी ने रजनी की आँखों में झाँका मानो कुछ तलाश रहे हों।

"मैं कल अमर से मिला था बेटा ! मुझे बताते हुए बहुत अफसोस हो रहा है कि तुम्हारा चुनाव बहुत गलत लगा मुझे। मेरी हर कसौटी पर असफल हो गया तुम्हारा अमर !" जमनादास जी ने अचानक धमाका कर दिया था।

"ओह नो, पापा ! जरूर आपको कोई गलतफहमी हुई होगी। अमर लाखों में एक है और मेरा चुनाव गलत नहीं हो सकता।" रजनी ने अपने मनोभावों पर पूरा नियंत्रण रखते हुए चौंकने का शानदार अभिनय किया था और फिर अमर के लिए सफाई भी पेश कर दी।

"काश ! ऐसा ही होता बेटा, ..तो मुझे कोई ऐतराज नहीं होता। " कहते हुए सेठ जमनादास जी ने अपना मोबाइल उठा लिया और आगे कहना जारी रखा, "उसे परखने के लिए मैंने उसे थोड़े पैसों का लालच दिया, लेकिन मुझे तब बड़ा झटका लगा, जब उसने कुछ न कहते हुए सीधे पैसे से भरा बैग थाम लिया और बाद में मक्कारी भरे स्वर में कहा था, "ऐसी लड़कियाँ तो बेवकूफ होती हैं। एक ढूँढो, हजार मिल जाएंगी लेकिन इतनी रकम इतनी आसानी से नहीं मिलती सेठ !..इतनी मोटी रकम के लिए तो मैं ऐसी दस रजनियाँ कुर्बान कर दूँ!"
यकीन मानो मुझे बहुत अफसोस हुआ था उसका यह रूप देखकर, लेकिन क्या कर सकता था ?.... मुझे पता था तुम यकीन नहीं करोगी इसलिए मैं सबूत भी ले आया हूँ।" कहते हुए जमनादास जी ने अपने मोबाइल पर एक वीडियो चालू कर के रजनी को थमा दिया और कहा, " लो, खुद ही देख लो।"

रजनी ने मोबाइल के स्क्रीन पर देखा। मात्र कुछ सेकंड का वह छोटा सा वीडियो था। कार के अंदर से आते हुए बैग को अमर ने लपक लिया था और बैग उसके हाथ में ही था कि तभी वीडियो समाप्त हो गई थी। वीडियो में कोई आवाज नहीं थी। देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि अमर ने वह बैग थामा हुआ था मतलब लिया हुआ था।

वीडियो को अनमने ढंग से देखते हुए रजनी के चेहरे पर कई भाव आ और जा रहे थे।
उस वीडियो को देखने के बाद उसने फटाफट वह वीडियो अपने नंबर पर फारवर्ड किया और फिर जमनादास जी से बोली, "ओके पापा ! अमर के बारे में फिर कभी बात करेंगे। अभी मुझे एक जरुरी काम करना है,.. बाय !" कहते हुए जमनादास जी के जवाब का इंतज़ार किये बिना रजनी ने अपनी किताबें उठाईं और अपने कमरे की तरफ लगभग दौड़ पड़ी।

हाँ, सचमुच दौड़ ही पड़ी थी रजनी अपने कमरे की तरफ, क्योंकि अब उसे अभिनय करना बड़ा ही कठिन लग रहा था। पापा के सामने सहज रहने का वह अभिनय ही तो कर रही थी।

अपने कमरे में पहुँचते ही रजनी के सब्र का पैमाना छलक पड़ा। कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर वह बेड पर पसर कर तकिए में मुँह गड़ाकर फफक पड़ी। व्हाट्सएप पर अमर के लिखे शब्द उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे।
'और मेरा फैसला ये है कि मैं तुम्हारी जिंदगी से बहुत दूर चला जाऊँ .....' यह वाक्य बार बार उसके जेहन में गूँज रहा था।

उसका नन्हा सा दिल तड़प उठा। उसका दिल पुकार उठा, 'क्यों अमर ?.. आखिर क्यों तुम मेरी जिंदगी से दूर चले जाना चाहते हो ? ऐसी भी क्या खता हो गई मुझसे ? अचानक एक दिन में ही ऐसा क्या हो गया जब तुम्हें कोई नया फैसला करना पड़ रहा है ? मुझे किस कसूर की इतनी बड़ी सजा दे रहे हो अमर ? कम से कम इतना तो बता देते कि मेरा कसूर क्या है ?'

तभी उसके दिमाग ने चेताया, '...और उस वीडियो को देखने के बाद तुमने क्या नतीजा निकाला ? क्या वह वीडियो झूठ है ?'

अचानक बिफर पड़ी वह, "हाँ ! हाँ ! हाँ !.. वह वीडियो झूठ है। मुझे अपने अमर पर पूरा यकीन है। वह ऐसा नहीं हो सकता। वह वीडियो पापा की कोई चाल भी हो सकती है। मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ अपने पापा को ! बहुत बड़े व्यापारी हैं वो। उनका बस चले तो दिल का भी सौदा कर लें !"

तभी उसके दिल के किसी कोने से आवाज आई, 'अरे अभी तो तूने उसका पूरा संदेश पढ़ा ही नहीं। पहले पूरा संदेश तो पढ़ ले और फिर उसके मुताबिक ठंडे दिमाग से सभी बातों पर विचार करके ही कोई फैसला लेना।'

रजनी स्वतः ही बड़बड़ा उठी, "हाँ ! यही ठीक रहेगा। पहले मुझे पूरा संदेश पढ़ना चाहिए।"
सोचते हुए एक बार फिर उसने अपना मोबाइल उठा लिया और नजरें गड़ गईं अमर के व्हाट्सएप संदेश पर ....लिखा था ........

...मेरा दिल मेरी आत्मा बिल्कुल इस फैसले के खिलाफ है, लेकिन मेरा दिमाग कह रहा है कि 'नहीं ! यह फैसला सही है.. और फैसला ये है कि मैं तुमसे और तुम्हारी दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए दूर चला जाऊँ !' एक बार फिर यही पंक्तियाँ पढ़ते हुए रजनी की आँखों में आँसू छलक पड़े थे।

आँसुओं को अमर्याद बहने की इजाजत देते हुए रजनी ने आगे पढ़ना शुरू किया। लिखा था .......
' मुझे माफ़ कर देना रज्जो ! नहीं !.. मैंने तुम्हें रज्जो कहने का अधिकार भी खो दिया है। तुम शायद मेरी मजबूरी न समझ पाओ लेकिन मेरा यकीन मानो मैंने यह फैसला खुश होकर नहीं लिया है। बड़ी मुश्किल से अपने दिल को समझा पाया हूँ मैं। ....मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ रजनी.. और इसीलिए दिल से चाहता हूँ कि तुम मुझ जैसे बेबस, बेचारे और मजबूर इंसान की जिंदगी से दूर चली जाओ। क्या मिलेगा तुम्हें मेरे पास ? प्यार की सुनहरी धूप तब तक ही भली लगती है जब तक यथार्थ की दुपहरिया की तीखी धूप से सामना नहीं हो जाता। इंसानी जीवन की यही सबसे बड़ी हकीकत है रजनी,.. कि प्यारी सुहानी सी सुबह की धूप के बाद दुपहरिया की तीखी धूप जैसी वास्तविकता का सामना किये बिना जीवन की साँझ नहीं होती। हकीकत की इस तीखी धूप में मैं तुम्हें झुलसता नहीं देख सकता था रजनी और इसीलिए यह फैसला मजबूर होकर करना पड़ा .............!.'

क्रमशः