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सख़्तजान

दीपक शर्मा

“आप की मां का फोन आया है,’’ सुबह के आठ बजने में पन्द्रह मिनट बाकी थे जब जौहरी परिवार की नौकरानी ने उनके वैवाहिक कक्ष पर दस्तक दी ।

उषा का मोबाइल मां के पास धरे का धरा रह गया था । पिछली शाम विवाह-मण्डप में उसे ले जाते समय मां ने उसके हाथ खाली करवा लिए थे, ‘वधू के हाथ में मोबाइल शोभा नहीं देता...’

“आती हूं, ’’कुन्दन उस समय अभी सो रहा था, मगर उषा अपने नित्य- कर्म से भी निपट चुकी थी और सोफ़े पर बैठी थी ।

बल्कि रात का अधिकांश समय उसने वहीं उसी सोफ़े पर बिताया था। नींद उसे आयी ही न थी ।

कान के दर्द के मारे ।

रात खराब बीती थी ।

चूक उषा ही से हुई थी । उनका एकान्त में एक दूसरे को सामने पाने का वह पहला अवसर था और असहज हो रही उषा को सहज करने हेतु कुन्दन बोला था, ‘तुम्हारे मन में कोई बात हो तो सब कह सकती हो । पूछ सकती हो -’

‘आप की मां ने आत्महत्या क्यों की थी ?’उषा पूछे थी । उस ने सुन रखा था कुन्दन को उसके एक पैर का लंगड़ापन उसकी मां की उस छलांग ने दिया था जो उसने पंचमंज़िले इस ‘जौहरी निवास’ से नीचे कूदते समय लगायी थी । दूध-पीते कुन्दन को अपनी छाती से चिपकाए-चिपकाए ।

‘भक्क ! इधर मैं तुम्हें अपनी हुक्मबन्दी के लिए लाया था या कि तहकीकात करने ।’उषा का प्रश्न कुन्दन को आपे से बाहर ले आया था और उसने एक तमाचा उषा की कनपटी पर ला जमाया था ।

तमाचा क्या था मानो बिजली की कड़ी कोई कड़क उसके कान पर जा गिरी थी ! उसकी कान की लोलकी से लटक रहा उसका कर्णफूल उस के कान से भिड़ता हुआ उस कान को चीर गया था । लहू उछालता हुआ ।

एक घुमनी उस पर सवार हो ली थी और वह इसी सोफ़े पर धंस ली थी ।

बिना देखे जाने कि कुन्दन कब कमरे से बाहर निकला था और कब पलंग पर आन सोया था ।

उषा को कुन्दन ने मांग कर ब्याहा था । उस से कुन्दन की भेंट अपनी पारिवारिक दुकान पर हुई थी जहां वह एक सेल्ज़गर्ल की हैसियत से उन के ग्राहकों को जे़वर- जवाहारात दिखलाती और सम्भालती रही थी । उषा की नियुक्ति अभी छः महीने पहले ही की गयी थी । पिछले वर्ष से शुरू हुआ कोरोना वाइरस का प्रकोप जौहरी परिवार पर भी भारी पड़ा था । ढाई तीन माह तो दुकान बंद की बंद ही रखी गयी थी, तिस पर विश्वसनीय और पुराने उन के दो कर्मचारी भी उस महामारी की चपेट में आ गए थे और चल बसे थे ।

उषा को दुकान पर अखबार में निकली एक विज्ञप्ति लायी थी : सेल्जगर्ल चाहिए ; बी.ए. के प्रमाण-पत्र तथा चौबीस घंटे के अन्दर करवाए गए अपने कोविड-परीक्षण की नेगेटिव रिपोर्ट के साथ । कुल जमा बाइस वर्ष की उषा बी.ए. तो न थी, किन्तु उस ने कोरोना के कारण बी.ए. परीक्षाओं के टले जाने की दलील सामने रखी थी और नौकरी पा ली थी । साथ ही अपने प्रति कुन्दन का लुभाव भी ।

विवाह के लिए उषा को मां ने तैयार किया था, ‘यह मत सोच, लड़का लंगड़ा है । यह सोच, विवाह-मंडप से ले कर विवाह-भोज तक का ज़िम्मा ले रहा है । लेन-देन का भी कोई चक्कर नहीं । और इधर हमें कोविड का बहाना मिल रहा है । किसी भी रिश्तेदार को कुछ बताना-बुलाना नहीं....’

वैसे भी मां ने उन में किसी को बताना-बुलाना नहीं था । उषा के पिता के कैन्सर के समय सहायता मांगने पर भी किसी रिश्तेदार ने कुछ न किया था और मां उन से रूष्ट चल रही थीं । मृतक-आश्रिता के रूप में मां को पिता के सरकारी संस्थान में एक नौकरी मिली ज़रूर थी, किन्तु घर की तंगहाली मिटी न थी । बारहवीं में पढ़ रही निशा, दसवीं कर रहा मोहित और आठवीं में दोबारा फ़ेल हो चुका रोहित मां के लिए अतिरिक्त कार्यभार ही लाते, राहत नहीं ।

 

(2)

“फ़ोन ऊपर बैठक में है,’’ नौकरानी ने दरवाजे़ पर दोबारा दस्तक दी ।

“आ रही हूं,’’ घायल अपने कान की भिनभिनाहट को सम्भालती हुई उषा ने दरवाज़ा खोला और बाहर बरामदे में चली आयी ।

नुक्कड़ पर स्थित होने के कारण जौहरी परिवार अपनी दुकान सुनार वाली गली की ओर खोले था और अपनी रिहाइश का फ़ाटक दूसरी गली, गोटे बाज़ार, में रखे था ।

रिहाइश इस फ़ाटक के बरामदे से खुलती थी जिस के बांए सिरे पर कुन्दन और उसके पिता के स्वतन्त्र कमरे थे और दांए सिरे पर ऊपर जाने वाला एक जीना । जीने की पहली दस सीढ़ियां पहले पड़ाव पर टूटती थीं और अगली दस सीढ़ियां दूसरी मंज़िल के गलियारे पर जा रूकती थीं । इस दूसरे पड़ाव से शुरू हुई दस सीढ़ियां फिर तीसरे पड़ाव और दूसरे गलियारे पर जा  पहुंचातीं और उसी बानगी से चौथा, पांचवा तथा छठा पड़ाव पांचवी मंज़िल पर जा ठहराता । चार गलियारे लिए ।

बैठक उषा की देखी थी । पहले गलियारे का पहला दरवाजा उसी में खुलता था । ‘जौहरी निवास’ के फाटक पर किए गए उषा के पारम्परिक गृह-प्रवेश के उपरान्त उसे वहीं बैठक ही में बिठलाया गया था ।

“प्रणाम मम्मी जी,’’ कुन्दन की  सौतेली मां बैठक में पहले से बैठी थीं । परिवार में सभी को उन्हे ‘मम्मी जी’ ही पुकारते हुए उषा ने सुना था ।

“तुम्हारे जे़वर कहां हैं ?’’ मम्मी जी ने उषा के गले और कान की ओर इशारा किया । तेज़ नज़र रही उन की ।

“कमरे में रखे हैं । नहाते समय उतार दिए थे ’’ उषा ने कहा । हालांकि अपनी बेहोशी टूटने पर सब से पहले भनभना रहे अपने कान का कर्णफूल ही उस ने अलग किया था । फिर दूसरे कान का कर्णफूल और फिर गले का हार ।

“पग-फेरे पर जाओगी तो सभी जे़वर मुझे दे कर जाना । अपने हाथों के ये कंगन भी। जब ज़रूरत होगी तो मैं तुम्हें फिर पहना दूंगी । जानती तो होगी, लाखों का सामान है यह । नीचे हमारी दुकान पर नौकरी करती रही हो ....’’

“जी, ज़रूर, ’’ उषा ने फ़ोन की ओर इशारा किया, “मां से बात करनी है....’’

“हां । हां । क्यों नहीं, ’’ मम्मी जी ने भृकुटि तान ली, “तुम्हारी मां तुम्हें पग-फेरे के लिए पूछना चाहती होगी...’’

“देखती हूं, ’’ उषा के सामने मां का चेहरा आन खड़ा हुआ ।

निस्तेज और ढुलमुल अवस्था में चुकता-चुकाता हुआ ।

बज रहे अपने कान के साथ उषा ने मां का मोबाइल मिलाया ।

“तुम कैसी हो ?’’ मां ने पूछा ।

“फेरे के लिए कितने बजे आना है ?’’ अपनी रूलाई रोकने में उषा सफल रही ।

“जब तुम चाहो, मैं ने छुट्टी ले रखी है, ’’ मां रोआंसी हो ली ।

“देखती हूं, ’’ उषा ने कहा और फ़ोन नीचे रख दिया ।

“क्या देखा ?’’ मम्मी जी ने उसे एक तिरछी मुस्कान दी, “देखती हूं...देखती हूं...कहती तुम खूब हो…”

“मैं अभी ही जाऊंगी. सोचती हूं ये जे़वर भी अभी ही आप को दे दूं । ये कंगन तो आप अभी ही ले लीजिए.... बाकी अभी लाए देती हूं....’’

“नहीं । सभी एक साथ लूंगी । मेरे पास वह बक्स है न ! उसी में रखे रहूंगी । जब देने-निकालने होंगे, उसी में से देती-निकालती रहूंगी-’’

“जी, ’’ उषा को याद आया पिछली रात जयमाल से ठीक एक घंटा पहले मम्मी जी उषा के कमरे में एक बक्स लायी थीं । जौहरी परिवार ने विवाह का आयोजन एक अतिथि-गृह में किया था जिस का एक अकेला कमरा ही उषा के परिवार के लिए आरक्षित रखा गया था । जहां मां, वह और उसके तीनों भाई-बहन के अतिरिक्त कोई छठा व्यक्ति न रहा था ।

“सभी सामान अभी देना चाहो तो वह भी ठीक है । इस सुमित्रा को साथ लेती जाओ, यह तुम्हारी मदद कर देगी....’’

“जी, ज़रूर, ’’ उषा ने नौकरानी को पहली बार अपनी नज़र में उतारा । पचास और पचपन के बीच उस की आयु कुछ भी हो सकती थी । जौहरी परिवार की विश्वास-पात्रा । जिस पर मम्मी जी को उषा से अधिक भरोसा था ।

जभी उषा को सूझा सुमित्रा ज़रूर कुन्दन की मां को देखे-जानी रही होगी ।

बैठक का गलियारा पार कर उषा जीने के पहले पड़ाव पर जा रूकी ।

“इतनी सीढ़ियां चढ़ने उतरने का मुझे अभ्यास नहीं, ’’ सुमित्रा का दिल जीतने के आशय से उषा ने अपने कान का दर्द पिछेल दिया ।

“उधर आपके मायके घर में सीढ़ियां नहीं का ?’’ सुमित्रा ने समवेदना जतायी ।

“नहीं, ’’ यह सच था । सरकारी संस्थान का जो क्वार्टर उषा के पिता को उस के परिसर में अलाट हुआ था, वह भूमितल ही पर था ।

“मगर यहां तो ललाइन दिन भर आप को ऊपर नीचे चढ़ाती रहेंगी-’’

“आप कितने साल से ऊपर नीचे आ जा रही हैं ? ’’ उषा उसे देख कर मुस्करायी।

“पच्चीस-छब्बीस साल तो होएंगे, ’’ सुमित्रा बोली, “बबुआ की पैदाइश मेरे सामने की है....’’

कुन्दन दुकान पर भी ’बबुआ भैय्या’ के नाम से जाना जाता था ।

“फिर तो आप उन की मां को भी जानती हांगी....’’

“हां । खूब देखे-जाने हूं...’’

“वह कैसी थीं ?’’

“सख़्तजान । हठीली । छत से ऐसी बंधी थी कि पूछिए मत....’’

“छत से ? ’’ उषा सकते में आ गयी ।

“वहां अपना बाजा रखे थीं । हारमोनियम । उन्हें उसी को बजाना होता । गाने के साथ । नीचे बजाने की मनाही थी । गाने की मनाही थी ’’

“फिर ?’’

“पेट से थीं तब भी ऊपर फलांग लेतीं । नीचे से घुड़की आए, धमकी आए, उन्हें कोई मतलब नहीं, परवाह नहीं, लिहाज़ नहीं...’’

“फिर ?’’

“जच्चगी में थीं । सवा महीना आधा भी न गुज़रा था कि बबुआ को छाती से लगायीं और ऊपर जा कर शुरू हो लीं । इधर बाजे की धौंकनी से ऊंचे सुर निकले तो उधर लाला जी को ऊपर भेजा गया । आते ही बाजे पर जो झपटे तो ललाइन छीनाझपटी में लग गयी । ऐसे में जाने कैसे वह भी गयीं और बाजा भी....’’

“और वह बच्चा ?’’

“ऊपर वाले ने उसकी उम्र अभी लिखी थी...’’

(3)

कमरे में कुन्दन नहीं था मगर त्रासक उसकी उपस्थिति की सनसनाहट पूरी हवा में लहरा रही थी ।

उग्र एवं आक्रामक । एक चिंघाड़ के साथ । उषा के दूसरे कान को भी अपनी चंगुल में लेती हुई ।

उषा का वह कान दायां था । कहां सुना था उसने कि हमारा यह दांया कान बोल सुनने में बांए कान से अधिक तेज़ रहता है !

अपने कर्णफूल और हार अपने बक्से से समेटने में फिर उषा ने एक पल भी न गंवाया और सुमित्रा के साथ जीने पर आन लौटी ।

अभी वह जीने की निचली सीढ़ी ही पर थी जब उसे लगा उसके बायीं ओर खड़े ऊंचे वे चारों गलियारे हिल रहे थे ।

क्या वे उसके सिर पर गिरने जा रहे थे ?

या फिर उन के पीछे आधे खुले दरवाज़ों में से कुछ लोग उस की ओर बढ़ रहे थे ? आपस में हंसते-ठठाते हुए ? कुछ जाने-पहचाने तो कुछ निपट अनजाने ?

“ये कौन हैं ? ’’ उषा ने सुमित्रा से पूछा । गूंगे हो रहे अपने कान उठाते और गिराते हुए ।

“कहां ? कौन ?’’ सुमित्रा ने चौंक कर फ़ाटक की ओर देखा ।

“उधर उन कमरों में से जो इधर झांक रहे हैं ? इशारे कर रहे हैं ?’’

“अरे वे लोग ? वे मुझे बुला रहे हैं । उनकी ताकाझांकी तो यहां दिन भर चला करती है । मुझी को ढूंढा करते हैं । तमाम अपने काम करवाने...’’

“इन सब के लिए क्या आप अकेली ही ऊपर नीचे दौड़ा करती हैं ?’’

“अब अकेली न रहूंगी, ’’ सुमित्रा हंसी, “ये लोग बोल रहे थे, बहू के नाम पर दूसरी सुमित्रा ला रहे हैं । हमारे हुक्म वह भी उठाएगी....’’

उषा अन्दर तक हिल गयी ।

मम्मी जी अपनी बगल की मेज़ पर बक्स टिकाए तैयार बैठी थीं ।

“देख लीजिए, ’’ उषा ने कर्णफूल तथा हार देते समय अपने हाथों के कंगन भी साथ ही मेज़ पर धर दिए, “कहीं कुछ रह तो नहीं गया ?’’

मम्मी जी ने बक्स के सभी सांचों की समई पूरी हो जाने दी ।

फिर बोलीं, “दुरूस्त है । तुम्हारी अंगूठी छोड़ कर सभी चीज़ हैं । यहीं रहेंगे भी...’’

“अंगूठी भी आप ले लीजिए, ’’ विवाह-मण्डप में कुन्दन द्वारा पहनायी गयी हीरों-जड़ी अंगूठी उषा ने अपने हाथ से अलग की और उसी मेज़ पर धर दी ।

बिना उन की प्रतिक्रिया देखे या जाने उषा ने तेज़ कदमों से गलियारा पार किया, जीने की सीढ़ियां पार कीं और फ़ाटक के आमुख पड़ रही गोटे बाज़ार की सड़क पर निकल ली ।

उसे जौहरी निवास में नहीं रहना था । घटित- अघटित घटनाओं के बीच । निर्दिष्ट-अनिर्दिष्ट आदेशों के मध्य ।

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बताना न होगा उषा को तलाक के कागज़ भिजवाने में पहलकदमी जौहरी परिवार ही की ओर से हुई ।

उषा को अभित्यागी घोषित करते हुए ।

उन के आरोप को उषा ने सहर्ष स्वीकारा भी । कुन्दन के उस तमाचे का उल्लेख तक न किया जिस के परिणामस्वरूप उसका बांया कान स्थायी रूप में बहरा हो गया था ।

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