भक्ति माधुर्य - 5 Brijmohan sharma द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भक्ति माधुर्य - 5

5

“सुतीक्ष्ण मुनि”
अरण्यकाड का “सुतीक्ष्ण मुनि “ अत्यंत मधुर सर्वश्रेष्ठ प्रसंग,

“ॠषि अगस्त्य कर शिष्य सुजाना ....

निज आश्रम पर आनि करि पूजा विविध प्रकार ।“

जब मुनि सुतीक्ष्ण भगवान श्रीराम के उनकी कुटिया की ओर आगमन की खबर सुनते है, तो उनके दर्शन की अभिलाषा में वे अपनी सुधबुध खो बैठते हैं | वे राम से मिलने दौड़ पड़ते है।

उनके मन में तरह तरह के विचार आते हैं | उनके मन में रह रहकर अनेक प्रकार के संदेह उठते हैं

'मैं प्रभु के दर्शन के अयोग्य हूं, मेरा मन मलिन है। मैं न तो भजन, न विधिवत पूजा, न जप, तप, न योग या ध्यानादिक क्रियाएं जानता हूं। किन्तु फिर वे पुनः विचार करते हैं कि प्रभु ने यह आश्वासन दे रखा है कि जो भक्त सम्पूर्ण ह्रदय से एकमात्र भगवान के प्रति समर्पित रहता है, वह उनका प्रिय पात्र होता है |

इस प्रकार भगवान का स्मरण करते हुए वे अपने अस्तित्व को भूल जाते हैं | वे समस्त दिशाज्ञान भूल बैठते हैं | वे कौन है ? कहां जा रहे है ? वे स्वयं की सुधबुध भूल बैठते हैं । वे कभी आगे जाते है तो कभी पीछे जाने लगते हैं । फिर वे अचानक ठिठक कर गाते हुए नाचने लगते हैं।

इतने में श्रीराम उनके समीप आते है | वे उनकी भक्ति की उन्मत्त अवस्था देखकर वे अत्यंत प्रसन्न होते हैं । राम एक वृक्ष के पीछे छिपकर मुनि की अवस्था को देखने लगते हैं।

सुतीक्ष्ण मुनि की अत्यंत उच्च भक्ति देखकर श्रीराम सुतीक्ष्ण मुनि के हृदय में प्रकट हो जाते हैं। मुनि तत्काल उसी जगह पर बैठकर ध्यानमग्न हो जाते हैं। तब राम उनके समीप पहुंचकर मुनि को जगाने का यत्न करते हैं। किन्तु मुनि ध्यान से नहीं जागते हैं।

इस पर श्रीराम मुनि के हृदय से अपना स्वरूप विलोपित कर देते हैं। तब मुनि इस तरह तड़पकर उठते हैं जैसे किसी मणिधारी सर्प की मणि खो जाने पर वह व्याकुल हो उठता है।

वे अपने आगे राम, लक्ष्मण व जानकी को देखकर धन्य हो जाते हैं व भगवान के श्रीचरणों में एक निर्जीव डंडे की तरह गिर पड़ते हैं।

इस प्रसंग में कवि अपने भक्तिकाव्य स्रजन के चरम शिखर पर है। इस महाकाव्य के उच्च भावों को व्यक्त करना मुझ जैसे सामान्य लेखक के लिए संभव नहीं है। इस प्रसंग में तीव्र भक्ति के द्वारा योग की अंतिम परमोच्च अवस्था समाधि लाभ की प्राप्ति को बतलाया गया है जिसमे जीव ब्रम्ह में लीन हो जाता है |

रामायण का सर्वश्रेष्ठ प्रसंग – शबरी प्रसंग
इस सुंदर प्रसंग में प्रत्येक प्राणी में भगवान स्थित हैं | उसका सच्चा स्वरुप भगवान ही है, इस तथ्य को अत्यंत सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है |

शबरी प्रसंग रामायण का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानमय भक्तिभाव पूर्ण प्रसंग है |

“ पानि जोरि आगे भई ठाडी, .....

जीव पाव निज सहज सरुपा |

श्रीराम ने शबरी के झूठे फल बहुत प्रशंसा करते हुए खाए |

शबरी हाथ जोड़ कर कहने लगी, हे प्रभो ! में नीच जाति की अधम नारी हूँ, अज्ञानी हूँ ; आपके अभिवादन, पूजन आदि की किसी विधि का मुझे ज्ञान नहीं है |

इस पर श्रीराम कहने लगे, “ अरे शबरी ! मै जात,पात, ऊँच, नीच, गरीब, अमीर, बलवान, दुर्बल, ज्ञानी, अज्ञानी आदि किसी भेद को नहीं मानता | मुझे सिर्फ भक्ति पसंद है | भक्ति विहीन व्यक्ति का जीवन जल विहीन बादलों के सामान व्यर्थ है |

शबरी ! मुझे सभी साधू संतों ने तेरे यहाँ आने से यह कहते हुए मना किया था, “ शबरी एक निम्न कुल की अज्ञानी औरत है | आप अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ के ज्येष्ठ राजकुमार हो | आप सूर्यवंशी राजकुमार हो, आप का एक अज्ञानी स्त्री के यहाँ जाना किसी तरह उचित नही | किन्तु मैंने उनके निषेध को नहीं माना | यदि मै उनकी सलाह मान लेता तो मुझे ऐसे अमृत के समान स्वादिष्ट फल खाने को कभी नहीं मिलते | अरे शबरी ! मैंने अपने जीवन में ऐसे निस्वार्थ मीठे सुस्वादु फल कभी नहीं खाए | दुनिया मुझे छप्पन भोग अर्पित करती है, सोना चांदी भेंट करती है किन्तु मै उनकी ओर देखता तक नहीं क्योकि वे सब स्वार्थयुक्त होते हैं” |

आगे रघुपति कहते हैं, “ शबरी ! तूने मुझे अमृत के समान अमूल्य भेंट दी है, अब मै भी तुझे एक अनुपम भेंट देना चाहता हूँ | मै आज तुझे अपना वह स्वरुप दिखलाना चाहता हूँ जिसे अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी ऋषि मुनि नहीं देख पाते “|

भगवान ने शबरी को अपना सच्चा स्वरुप दिखाते हुए कहा, “ अरे शबरी देख तू मुझे नहीं,खुद को देख रही है | मै तो एक आइना मात्र हूँ | शबरी हर प्राणी का सरल सहज प्राकृत रूप ब्रम्ह है, भगवान है, तू ही राम है | “

मित्रों यही चारों वेदों का सार है :, “सर्व खल्विदं ब्रम्ह”, “आत्मा सो परमात्मा “

मित्रों ! शबरी प्रसंग में महाकवि तुलसीदास ने बड़े ही सुन्दर तरीके से एक पंक्ति में चारों वेदों का सार प्रस्तुत करने का कमाल किया है |