ममता की परीक्षा - 4 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

ममता की परीक्षा - 4



घुटनों में मुँह छिपाए अमर बड़ी देर तक सिसकता रहा। बड़ी देर तक उसके कानों में रजनी की आवाज गूँजती रही, 'अमर ! मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ।'
अमर को ऐसा लग रहा था जैसे उसका सिर फट जाएगा। दोनों हाथों से जोर से अपने सिर को दबाए हुए वह चीख पड़ा, "नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता !"

सड़क से गुजर रहे राहगीरों ने ठिठक कर उसकी तरफ देखा और फिर उसे रोते हुए देखकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए। अमर जानता था यहाँ उसे कोई रोकने टोकने वाला नहीं था। किसे फुर्सत थी जो उसका हालचाल पूछता ? अतः वह जी भर रोकर अपनी रज्जो से बिछड़ने का मातम मना लेना चाहता था। उसने सुन रखा था कि रोने से दुःख कुछ कम हो जाते हैं।

सूर्य दिनभर की अपनी दिनचर्या पूरी कर अस्ताचल की तरफ अग्रसर थे। आसमान में अब इक्का दुक्का पंछी भी नजदीक के बगीचे की तरफ बढ़ रहे थे, शायद बगीचे में स्थित विशाल वृक्षों में ही उनका आशियाना हो। जनसागर का विशाल रेला अपनी मंजिल की ओर बढ़ा जा रहा था। बसें, टेंपो, ऑटो व अन्य सवारियाँ अपनी क्षमता से अधिक मुसाफिरों को अपने गंतव्य तक जल्दी पहुँचाने के जद्दोजहद में एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगाए हुए थीं।
धुँधलका घिरने लगा था। अपने आपको सँभालते हुए अमर किसी तरह से उठा और फिर अचानक बैठ गया। उसे ऐसा लगा जैसे उसके पैरों में कोई जान ही न हो। कुछ देर बाद पूरी शक्ति समेटकर वह उठा और लड़खड़ाते कदमों से बस स्टॉप की तरफ बढ़ने लगा।

शहर से बाहर के हिस्से में बने अनधिकृत कालोनियों में अपने किराये के मकान तक जब तक अमर पहुँचता रात के आठ बज चुके थे। मुख्य सड़क पर बस से उतर कर अमर चल पड़ा अपने मकान की ओर जो सड़क से लगभग एक फर्लांग दूर बनी एक अनधिकृत दोमंजिला भवन में था।

सड़क पर घोर अँधेरे का साम्राज्य व्याप्त था। ऊबड़खाबड़ सड़क पर खड्डों से बचता बचाता अमर अपने घर की तरफ बढ़ रहा था कि एक खड्डे में पड़े पत्थर पर से फिसलते हुए अमर खुद को संभाल न सका और गिर पड़ा। उसका सिर किसी धारदार पत्थर से टकरा गया था। खून की धार बहने लगी। जेब से रुमाल निकालकर अमर ने कसकर घाव पर बाँध लिया। माथे के अलावा उसकी हथेलियों व कोहनियों पर भी चोट लगी थी।

लापरवाही न करते हुए अमर ने तुरंत उसी मोहल्ले के एक झोला छाप डॉक्टर से मरहम पट्टी करवा ली। माथे पर बँधी पट्टी के नीचे घाव पर लगी हुई लाल दवाई यूँ लग रही थी जैसे रक्त का प्रवाह अभी फूटने ही वाला हो।
अपने कमरे में चारपाई पर लेटे उसके विचारों का प्रवाह रजनी व अपने भविष्य के साथ ही अब अपनी चोटों पर भी केंद्रित हो चुका था।

हमेशा की तरह अमर तैयार होकर सुबह दफ्तर के लिए निकलने ही वाला था कि तभी घर के नजदीक जानी पहचानी कार के हॉर्न की आवाज सुनकर उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं।
जल्दी जल्दी घर का दरवाजा बंद करके अमर गली से बाहर उस पतली सी सड़क पर आ गया जहाँ कार में बैठी रजनी बेकरारी से उसका इंतजार कर रही थी।
अमर को देखते ही रजनी के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं। दरअसल उसकी नजर अमर के सिर पर बँधी पट्टी पर पड़ गई थी। दवाई की अधिकता से उसे लगा जैसे अमर को बहुत गहरी चोट लगी हो। फुर्ती से कार से बाहर निकलकर रजनी अमर की तरफ बढ़ी और अमर का हाथ अपने हाथों में लेते हुए उसे उलाहना दिया, "ये क्या हुआ अमर ? ये चोट कैसे लगी ? कब लगी ? और मुझे बताया भी नहीं ?"

"अरे चोट ज्यादा नहीं लगी है रज्जो ! तुम चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा।" बेहद शांत स्वर में अमर ने समझाना चाहा।

"कैसे चिंता न करूँ ? देखो तो कितना खून निकल रहा है और कह रहे हो थोड़ा ही लगा है।" रजनी चिंता व्यक्त करते हुए बोली।

अमर कार में दूसरी तरफ से बैठते हुए बोला, " अब चलो रज्जो ! नहीं तो देर हो जाएगी।" रजनी से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी अमर की, फिर भी वह यथासंभव खुद को संयत दिखाने का भरपूर प्रयास कर रहा था। लेकिन कहते हैं न चेहरा मन के भावों की चुगली कर ही देता है। कार चलाते हुए रजनी भी अमर के बदले हुए व्यवहार की वजह समझने की कोशिश कर रही थी लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

बस्ती से बाहर मुख्य सड़क पर आते ही रजनी ने बातों का क्रम फिर से शुरू किया, " अमर !"

"हूं, बोलो न रज्जो, क्या कहना चाहती हो ? "

"आज से तुम इस बस्ती में नहीं रहोगे।"
"क्यों ?"

"क्योंकि मैं कह रही हूँ !" कहते हुए रजनी ने शरारत से मुस्कुराते हुए अमर की तरफ देखा, लेकिन अमर का ध्यान तो जैसे कहीं और ही था। तड़प सी गई रजनी अमर की बेरुखी को महसूस करके लेकिन वह सोच रही थी 'आखिर क्या वजह होगी अमर के इस रूखे व्यवहार के पीछे ? कहीं पापा ने तो कुछ नहीं कहा ? चलो पूछ ही लेते हैं।'

"अमर ! " रजनी फिर से उसे कुरेदते हुए बोली।

"कहो !"

"मैंने दो दिन पहले ही पापा से बात की थी तुम्हारे बारे मे, लेकिन जानबूझकर तुम्हें नहीं बताया था। सोचा था मिलकर तुम्हें खुद ही सरप्राइज दूँगी।" कहते हुए रजनी की सोच यह थी कि यह खबर सुनते ही अमर खुशी से उछल पड़ेगा, लेकिन उसकी उम्मीद के विपरीत अमर निर्विकार सा बैठा रहा और फिर धीरे से बोला, " क्या कहा पापा ने ?" कहते हुए अमर खिड़की से बाहर की तरफ देख रहा था।
अनजानी आशंका से रजनी का हृदय जोरों से धड़क उठा। अमर के बेरुखी की वजह वह समझ नहीं पा रही थी। जब से वह अमर को जानती थी उसे इतना गंभीर कभी नहीं देखी थी।
" पापा ने कहा है बहुत जल्दी तुमसे मिलेंगे। वो तो कह रहे थे कि मैं अपनी तरह से अमर की परीक्षा लूँगा, लेकिन मुझे मालूम है कि वो ऐसा सिर्फ कह रहे हैं। उनका दिल बहुत अच्छा है। उन्हें भरोसा है मेरी समझ पर। तुम्हें देखते ही अपना आशीर्वाद दे देंगे।" कहते हुए रजनी ने कार सड़क के किनारे रोक दी थी।

दरअसल अब रजनी का कॉलेज सामने ही था और सड़क किनारे वह बस स्टॉप भी जहाँ से अमर को अपने दफ्तर के लिए बस आसानी से मिल जानेवाली थी। जब से अमर काम पर जाने लगा था अक्सर इसी तरह रजनी उसे लेने ठीक समय पर उसकी बस्ती में उसके घर तक पहुँच जाती और फिर यहीं बस स्टॉप के नजदीक अमर को छोड़कर अपने कॉलेज चली जाती। अमर का दफ्तर यहाँ से बहुत दूर था सो बस ही एकमात्र विकल्प था अमर के लिए।
कार से बाहर निकलते हुए वह धीरे से बोला, "ठीक है,... देखते हैं तुम्हारे पापा कब मिलते हैं, और क्या परीक्षा लेते हैं।" अमर के कार से नीचे उतरते ही रजनी ने उसे देखकर बाय कहा और फिर कार आगे बढ़ा दी।

रजनी की तरफ देखते हुए हाथ हिलाया अमर ने और फिर उसके जेहन में उसकी कही बात गूँजने लगी 'मैं अपनी तरह से अमर की परीक्षा लूँगा ' तो कहीं सेठ जमनादास की वह धमकी बनावटी तो नहीं ?.. क्या पता पैसे का लालच देकर परखने की कोशिश कर रहे हों ? क्या वह बातचीत उनके द्वारा लिए जा रहे परीक्षा का एक हिस्सा मात्र थी या कोई वास्तविकता ?' अमर इन्हीं विचारों में खोया हुआ कुछ भी निर्णय नहीं कर पाया था कि तभी बस स्टॉप पर खड़े यात्रियों का शोर सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई। बस आ चुकी थी। लपक कर अमर बस में सवार हो गया।

क्रमशः