जेन ऑस्टिन - 3 Jitin Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जेन ऑस्टिन - 3

चैप्टर-3


रिज़ल्ट के साथ-साथ आज उसका जन्मदिन भी है और वो उम्र के हिसाब से अठारह की हो गई है। पर शारीरिक रूप से पंद्रह की लगती है लेकिन मानसिक रूप से उम्र का अंदाज़ा लगाना थोड़ा मुश्किल है। जिले में तीसरे स्थान आने से ज्यादा खुशी, उसे इस बात की है। कि वो बालिग हो गई है। और उसको लगता है अठारह की होने पर सरकारी तौर पर लड़कियां अपने क्रश को प्यार में बदल सकती हैं।

निशा को जिस लड़के से क्रश है। वो पंडित रघुनाथ का लड़का ही है। उसे ये क्रश दो साल पहले, जब वो ग्यारहवीं में थी, तब हुआ था। लेकिन जारी अब तक है। निशा अपने इस क्रश की तुलना ऑस्टिन के उपन्यासों की नायिकाओं के प्यार से करती है। उसे शेखर को पहली बार में देखते ही खुद के अंदर एक नया एहसास पनपता हुआ महसूस हुआ था। बस तभी से वो शेखर को अपना बनाने के बारे में ख्याब देखने लगी थी।

वैसे निशा को उसे चाहते-चाहते दो साल हो चुके थे। पर उसने अपनी चाहत को शेखर के प्रति कभी भी दिखाने का इरादा नहीं किया था। एक तरह से वो शेखर के बारे में अपना पक्का इरादा कर लेना चाहती थी। कि वाकई में उसे प्यार करती हैं। या नहीं, क्योंकि उसे लगता था। कहीं जल्दबाजी में अगर प्यार का इजहार किया तो मरियान्ने दशवुड(सेंस एंड सेंसिबिलिटी उपन्यास की एक नायिका) की तरह उसे धोखा ना मिल जाए। बस इसलिए वो अपनी तसल्ली को यकीन बनाने के लिए, अपने प्रेम को किसी फल की तरह जो पेड़ पर लगे हुए धीरे-धीरे पककर मीठा होता है। उस तरह पकता हुआ देखना चाहती थी। लेकिन निशा को अब इतने लंबे वक़्त तक प्यार के समुद्र में गोते लगाने के बाद लगने लगा था। कि शेखर के लिए उसका प्रेम पुरी तरह परिपक्व हो चुका है। और वो उस प्रेम का शेखर से ऐलान कर सकती है। और बदले में शेखर के चेहरे पर खुद को पाने से चमकने वाली चमक चाहती है।


निशा ने बाहरवीं पीसीएम से की थी। और उसके पिता का सपना था। वो इंजीनियर बने। लेकिन निशा तो प्यार में थी। इसलिए उसे पढ़ाई से ज्यादा मतलब किसी भी तरह से शेखर के करीब जाने से था। बस इसी मकसद से उसने पहली बार पिता द्वारा अपने सपने की कठपुतली बनाए जाने से पहले सीधा जाकर कानपुर यूनिवर्सिटी में b.com में दाखिला ले लिया जिसके एवज़ में उसे पिता के गुस्से का सामना तो करना ही पड़ा बल्कि घर के बाकी सदस्यों से भी कुछ वक़्त के लिए बातचीत बंद हो गयी थी। पर वो खुश थी। क्योंकि b.com उसे शेखर के करीब ले जा रहा था। जो वो अब तक नहीं जा पायी थी। लेकिन अफसोस जब निशा ने दाखिला लिया तब तक शेखर b.com को बीच में छोड़कर अपने पिता का कार्मिक साझेदार बन चुका था। इसलिए निशा की जो ख्वाहिश थी। यूनिवर्सिटी के गलियारों में हाथ में हाथ डालकर घूमने की वो, पुरी तरह टूट चुकी थी।

निशा की ख्वाहिश टूटी थी। लेकिन उसने प्यार करने के इरादा नहीं छोड़ा था। और वैसे भी कॉलेज में जाने के बाद हर बच्चे की तरह निशा के अंदर भी आवारगी उभरने लगी थी। और इसी आवारगी के चलते वो शेखर से मिलने के नए-नए तरीके सोचती रहती थी। निशा जब से कॉलेज में जाने लगी थी। तब से शेखर का काम कुछ ऐसा हो चुका था। कि वह सुबह जल्दी कानपुर के लिए निकाल जाता और देर रात को ही लौटकर आता था। जिस कारण वो उसे नजर भर कर देख भी नहीं पाती थी। इसलिए इस बार आवारगी के रास्ते पर पूरी तरह चलते हुए, निशा ने उससे मिलने के लिए, अपने चाचा के लड़के का काम अपने हाथों में ले लिया, जो काम था। सुबह-सुबह बिकने वाला दूध ले जाकर, शेखर के घर देकर आने का, बस यही एक मौका होता था। उसके पास पूरे दिन में शेखर के पास जाकर उससे बात करने का---- निशा जब शेखर के पास सुबह-सुबह दूध की बाल्टी लेकर जाती। तो वो बड़े सलीके से अपने होटों को अंदर की तरफ सिकोड़ता, वो भी बड़े इत्मीनान से अपने होटों पर ज़ीभ घुमाती, फिर वो अपनी उंगलियों से आंखों पर आए बालों को पीछे करता, जिसके एवज में निशा भी अपने गालों पर बिखरती जुल्फों को कान के पीछे करती, इन सबके बाद वो नजर नीची करके बड़े प्यार से नमस्ते करता और चेहरे पर मुस्कुराहट का चित्र बना देता, फिर निशा भी उस चित्र में रंग भरते हुए उसके अभिवादन की स्वीकार करती और इन सबके बाद उन दोनों में थोड़ी बहुत इधर-उधर की बातें होती।

निशा को शेखर से मिलते हुए ऐसे ही तीन महीने बीत गए थे। इन तीन महीनों में उसने कई बार कोशिश की थी। अपने प्यार का इजहार करने की, पर नहीं कर पाई थी। शायद उसे प्रेम की इन छोटी-छोटी चुहलबाज़ी में मज़ा आ रहा था। उसे प्रेम की इन लीलाओं में सुख़न की अनुभूति हो रही थी। या उसे प्रेम के इस भंवर में भटकने में आनन्द आ रहा था।

कहते हैं। प्यार तभी परवान चढ़ता हैं। जब दोनों तरफ बराबर की आग लगी हो, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो ये प्यार उम्र भर की टीस के अलावा और कुछ नहीं होता। निशा भी एक रात बैठकर इसी ख्याल से मिलते-जुलते खयाल बुन रही थी। कि मैं तो उसके प्यार में पुरी तरह पागल हूँ पर क्या वो भी मुझे पसंद करता हैं। या फिर वो पहले से ही किसी और लड़की से प्यार करता हैं। जो उसकी अपनी उम्र की हैं। अगर ऐसा हुआ तो, मैं पूरी तरह मरियाने दशवुड की तरह टूटकर बिखर जाऊंगी। और वो मुझे जॉन विल्लूबी की तरह दिलाशा भी नहीं देगा।

ओफो! ये मैं क्या सोच रही हूं? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि मुझे जॉन विल्लुबी जैसा प्रेमी मिलेगा जो मुझे धोखा देगा। क्योंकि अगर मैं मरियाने दशवुड हूँ तो मुझे कर्नल ब्रैंडन जैसा प्रेमी मिलना चाहिए ना, और वैसे भी मुझे सेंस एंड सेंसीबिलिटी उपन्यास में मरियाने से ज्यादा एलिनोर पसंद है। और मैं उसके जैसा बनना चाहती हूँ तो इसलिए मेरा प्रेमी एडवर्ड जैसा होना चाहिए हमेशा मेरा इंतज़ार करता हुआ। और मेरे शेखर में तो ये सारे गुण हैं। आखिर कितनी बार तो ऐसा होता हैं। जब मैं उसे खिड़की में से देखती हूँ। तो वो खिड़की पर आकर रुक जाता है। जैसे उसे आभास होता हो, कि मेरी आंखें उसके इंतज़ार में बड़ी देर से निर्निमेष का रूप धरकर बैठी हैं।